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दयाशंकर के बहाने बीजेपी-बीएसपी में जारी है राजनीतिक रस्साकसी 

बीजेपी और बीएसपी में दयाशंकर विवाद पर जारी रस्साकसी पर पढ़िए क्या कह रहे हैं विवेक अवस्थी.

विवेक अवस्थी
नजरिया
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(फोटो: TheQuint)
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(फोटो: TheQuint)
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दयाशंकर मामले पर बीएसपी द्वारा लगातार विरोध को देखें तो ऐसा लग रहा है कि मानो बीएसपी कहीं न कहीं 2017 का चुनाव जीतने की अपनी लड़ाई शुरू करने से पहले ही रास्ता भटक गई है.

साल 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान बीएसपी को 206 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उनकी इस बड़ी जीत के पीछे की वजह कहीं न कहीं उनकी पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति थी.

इस स्ट्रेटजी के तहत समाज के हर वर्ग को शामिल करना मुख्य उद्देश्य था. इसमें सबसे प्रमुख यूपी के सवर्ण यानि ऊंची जाति के मतदाता थे. सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नारे और सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति के साथ पार्टी ने न सिर्फ चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की बल्कि अपने दम पर सरकार बनाने में भी सफल हुई.

बसपा सुप्रीमो मायावती (फोटो: PTI)
आंकड़ों के अनुसार, उत्तरप्रदेश में 21 प्रतिशत अनुसूचित जाति के मतदाता हैं, जिनमें अगर 13 प्रतिशत ब्राह्मण, 8 प्रतिशत ठाकुर और कुछ प्रतिशत पिछड़ी जाति के वोट मिला दिए जाएं तो बीएसपी एक ऐसी ताकत के रूप में उभरती है जिसे आसानी से चुनौती देना किसी भी राजनैतिक-सामाजिक दल या दलों के गठजोड़ के लिए आसान नहीं है.

बीएसपी की सोशल-इंजीनियरिंग

बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने साल 2007 के चुनावों में सोशल इंजीनियरिंग का कार्ड का बड़ी ही समझदारी से इस्तेमाल किया था. उन्होंने राज्यभर में फैले सवर्ण बहुल सीटों पर न सिर्फ ब्राह्मण और ठाकुर कैंडीडेट्स को तवज्जो दी बल्कि उन्हें चुनाव मैदान में भी उतारा.

राज्य का दलित वोटर पहले से मायावती के साथ था, वो किसी भी हालत में किसी और दल को वोट देने नहीं जा रहा था. लेकिन जिस बात ने 2007 चुनावों में मायावती का पलड़ा भारी किया वो उन सवर्ण मतदाताओं का वोट था जिन्होंने पहली बार बीएसपी का समर्थन किया था. इसी वोटर ग्रुपने मायावती को अगले पांच सालों के लिए राज्य में शासन करने का अधिकार दिया.

विभिन्न जातियों को रिझाना

दयाशंकर ने जो भी अपशब्द कहे और उससे जो तुरंत हानि सामने आयी, उसका राजनैतिक लाभ लेने कि कोशिश बीजेपी और बीएसपी दोनों की तरफ से की जा रही है. एक तरफ जहां दयाशंकर की असयंमित भाषा के कारण बीजेपी को त्वरित नुकसान हुआ, वहीं पार्टी ने तुरंत इस गलती को सुधारने के लिए कदम उठाते हुए दयाशंकर को सजा सुना दी, इससे पार्टी किसी तरह से इस प्रकरण के कारण हुए नुकसान की भरपाई कर पाए और अपने सवर्ण मतदाताओं का वोट हासिल कर सके.

दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाती सिंह (फोटो: PTI)

दूसरी तरफ मायावती ने इस पूरे मसले को अतिरेक में काफी ऊंचा नैतिक मुद्दा बना दिया. इसकी वजह उनकी ही पार्टी के महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी का अतिउत्साही होना भी था, जिनके कारण बीएसपी समर्थक सड़कों पर उतर आए और दयाशंकर के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने लग गए.

इन प्रदर्शनों के दौरान बीएसपी कार्यकर्ताओं ने दयाशंकर और उनके परिवार खासकर उनकी पत्नी और बेटी के खिलाफ अश्लील टिप्पणी और नारेबाजी की. इसने एक बार फ़िर से बीजेपी को मौका दे दिया.

बीजेपी के समर्थन से दयाशंकर की पत्नी ने राष्ट्रीय टेलीविजन का न सिर्फ सहारा लिया बल्कि बीएसपी कार्यकर्ताओं की इस तथाकथित बदले की कार्रवाई के खिलाफ अपनी आवाज भी बुलंद की. उन्होंने सीधे-सीधे मायावती पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि उन्हें और उनकी बेटी को बिना वजह निशाना बनाया जा रहा है और बीएसपी प्रमुख को याद दिलाया कि वे भी एक महिला हैं.

बीजेपी ने इस गर्माते राजनैतिक माहौल का तुरंत फायदा उठाते हुए इस मौके का इस्तेमाल सवर्ण वोट के पक्का करने के लिए किया. पार्टी की महिला मोर्चा भी राज्य भर में सड़कों पर उतर आयी और दयाशंकर के परिवार की महिलाओं के ख़िलाफ़ खुलकर गाली-गलौच करती रहीं.

सामाजिक गठजोड़ में तोड़

अब बीजेपी इस फिराक में है कि वो ऊंची जाति के वोटरों के एक बड़े हिस्से को जो 2007 चुनावों में बीएसपी के साथ थी, उसे उनसे अलग कर दे. बीजेपी के नेताओं ने इशारों ही इशारों में कहा है कि दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह आगामी विधानसभा चुनावों में मैदान में उतारी जा सकती हैं.

इसके अलावा नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर निशाना साधकर बीजेपी ने मतदाताओं के ध्रुवीकरण की रणनीति भी शुरु कर दी है.

बसपा सुप्रीमो मायावती (बाएं) और बीजेपी से निकाले गए दयाशंकर सिंह (दाएं) (फोटो: TheQuint)

लेकिन बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने जैसे ही बीजेपी की इस रणनीति को समझा, उन्होंने तुरंत अपने कार्यकर्ताओं को आदेश दे दिया कि वे स्वाति सिंह और उनके परिवार के प्रति नर्म रुख अपनाए.

इसके विपरीत उन्होंने सीएम अखिलेश यादव को सीधी चुनौती दे दी है कि वे जल्द से जल्द दयाशंकर सिंह को गिरफ्तार करे. उन्होंने यहां तक कहा है, “अगर अखिलेश यादव उन्हें सच में अपनी बुआ मानते हैं, तो उन्हें अब तक दयाशंकर सिंह को गिरफ्तार कर लेना चाहिए था.”

मायावती ये अच्छी तरह से जानती हैं कि उनकी पार्टी का पुराना नारा, “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है,” आने वाले चुनावों में पूरी तरह से खोखला साबित हो जाएगा अगर उनके ऊंची जाति के मतदाता जिनमें ब्राह्मण और ठाकुर शामिल हैं, अगर वे उनके मुंह मोड़ लेते हैं.

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