बजट 2020: टैक्स और वित्तीय कटौती नहीं – बस ‘TRUST’ चाहिए
बाजार की शक्तियों में भरोसा, पुन: पूंजीकरण- समझिए वे तरीके से जो वक्त की मांग हैं
राघव बहल
नजरिया
Updated:
i
सरकार और वित्तमंत्रालय को ‘TRUST’ पर करना चाहिए काम
फोटो: द क्विंट
✕
advertisement
यह एक जाना पहचाना शोर है. टैक्स कटौती की मांग. इनवर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर को पलट दो. वित्तीय घाटे को काबू करो. अपने गणित को लेकर ईमानदार रहो. इक्विटी टैक्स को खत्म करो. सरकारी खर्च बढ़ाओ, खजाने की फ्रिक छोड़ो. इनवेस्टमेंट भत्ता वापस लाओ. विरासत कर लगाओ... यही वो स्टैंडर्ड पॉलिसी टैक्टिक्स हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था को सुधार सकता है.
लेकिन असल बात यह है कि इस बार डर काफी गहरा, मौलिक और करीब से महसूस होने वाला है. यह रूह में बस चुका है. सच कहूं तो फौरी तौर पर राहत देने वाले बजट का वक्त खत्म हो चुका है. अगर प्रधानमंत्री मोदी सही मायने में सुधार करना चाहते हैं, तो उन्हें भारत के प्राइवेट एन्टरप्राइज जो कि देश की अर्थव्यवस्था का 90 फीसदी हिस्सा हैं उनका TRUST जीतना होगा. TRUST एक संक्षिप्त नाम है. (क्योंकि संक्षिप्त नाम हमारे पीएम को बहुत पसंद है).
लेकिन असल बात यह है कि इस बार डर काफी गहरा, मौलिक और करीब से महसूस होने वाला है. यह रूह में बस चुका है. सच कहूं तो फौरी तौर पर राहत देने वाले बजट का वक्त खत्म हो चुका है. अगर प्रधानमंत्री मोदी सही मायने में सुधार करना चाहते हैं, तो उन्हें भारत के प्राइवेट एन्टरप्राइज जो कि देश की अर्थव्यवस्था का 90 फीसदी हिस्सा हैं उनका TRUST जीतना होगा.
भारत की नौकरशाही हमेशा से सुनियोजित बाजार को लेकर सशंकित रही है. यही वजह है कि वो इसके नतीजों को माइक्रो-मैनेज करते हैं, हालांकि इस बार उनकी खोज सनकी हो चुकी है. अब इन उदाहरणों पर गौर करिए.
अगर आप वाकई प्रतिस्पर्धी बाजार बनाते हैं, तो ‘’सुपर प्रॉफिट’’ अपने आप खत्म हो जाएगा- पता नहीं कब हमारे नीति-निर्माता इस बात को समझेंगे?
हमें बेन बर्नांके से सीखना चाहिए था, जिन्होंने TARP (Troubled Assets Reconstruction Program) बनाया और 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को डूबने से बचा लिया.
कारोबारी को अपराधी बनाना धीरे-धीरे भयावह रूप ले चुका है. इसलिए इसने भारत की अर्थव्यवस्था पर सबसे बुरा असर डाला है.
T मतलब बाजार की शक्तियों में भरोसा
भारत की नौकरशाही हमेशा से सुनियोजित बाजार को लेकर सशंकित रही है. यही वजह है कि वो इसके नतीजों को माइक्रो-मैनेज करते हैं, हालांकि इस बार उनकी खोज सनकी हो चुकी है. अब इन उदाहरणों पर गौर करिए.
एक भयानक चीज है जिसे एंटी-प्रॉफिटियरिंग अथॉरिटी (नहीं, मैं कोई मजाक नहीं कर रहा, यह एक वास्तविकता है और इसे बिलकुल ऐसा ही कहा जाता है वो भी एक खुले एंटरप्राइज इकॉनोमी में!). इसका काम है नए GST शासन में बने ‘सुपर प्रॉफिट’ को निगमों से झपट लेना. क्या आप इस पर यकीन कर सकते हैं? क्या सरकार के इंस्पेक्टर खुले बाजार में चलनी वाली कंपनियों की ‘सुपर प्रॉफिट’ का हिसाब किताब कर सकते हैं? उपभोक्ता की क्रेडिट पर लगने वाला ब्याद दर क्या होगा? आप अतिरिक्त कर्मचारियों का हिसाब कैसे रखेंगे? ब्रैंड एडवर्टाइजिंग का कितना हिस्सा करेंट सेल (खर्च) में जाएगा, और भविष्य के उपभोक्ता बनाने में कितना खर्च होगा (पूरी तरह एक निवेश). ऐसे लाखों सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं है, शुरुआत से ही. लेकिन इसके नतीजे पहले से तय थे: हैरान करने वाला जुर्माना, हद से ज्यादा कानूनी फीस, जबरन वसूली और भ्रष्टाचार. दूसरी तरफ, अगर आप प्रतिस्पर्धात्मक बाजार बनाए रखते हैं, ‘सुपर प्रॉफिट’ अपने आप गायब हो जाएगा; तो हमारे नीति-निर्धारण करने वाले लोग इसे कब समझेंगे?
अब देखिए इन्होंने ई-कॉमर्स पॉलिसी में कितनी गड़बड़ी की है. हमारे नौकरशाहों ने एक कहानी बनाई जिस पर भरोसा सिर्फ वो ही कर सकते हैं. इसको भव्य तरीक के ‘मार्केट प्लेस मॉडल’ कहा जाता है. इसमें Amazon और Walmart जैसी विदेशी कंपनियां सीधे उपभोक्ताओं को सामान नहीं बेच सकेंगी, बल्कि वो थर्ड पार्टी के लिए सिर्फ कारोबार का एक प्लेटफॉर्म ही दे पाएंगी जिसमें वो ज्यादा से ज्यादा 26 फीसदी शेयर रख सकती हैं. ऐसा विदेशी कंपनियों की ‘गलत’ मंशा पर रोक लगाने के लिए किया जा रहा है. इसके बावजूद ये बड़ी-बड़ी कंपनियां बड़े पैमाने पर मुफ्त चीजें और छूट मुहैया करा रही हैं, हमारी आंखों के सामने ही. और हम रोज बलपूर्वक कार्रवाई की धमकी दे रहे हैं. सब कुछ छोटे/स्थानीय किराना दुकानों को बचाने के नाम पर. लेकिन इसी क्रम में हम बड़ी भारतीय कंपनियों के लिए मददगार साबित होने वाली नीतियां बना रहे हैं, और विदेशी और लोकल को एक साथ तबाह कर रहे हैं. जो कि जैसे-तैसे महान है!
यह मेरा सबसे पसंदीदा है – हमने ऊर्जा के क्षेत्र में खुले मूल्य तय कर दिए, जिसमें तेल भी शामिल है, लेकिन हम मनोरंजन शुल्क पर नियंत्रण करते हैं (आप यकीन करें या नहीं, लेकिन मनोरंजन टेलीविजन के दाम और रूप कैसे होंगे यह TRAI तय करता है!). और हम यह पक्का नहीं कर पाते कि दवा के दाम को खुला रखा जाए, नियंत्रित किया जाए, सीमा तय की जाए या खिचड़ी बना दी जाए, जबकि बेहद जरूरी दवाइयां ग्लोबल प्रोड्यूसर्स के हाथ में हैं.
इसके अलावा हम पाबंदी और बार-बार पाबंदी के बीच झूलते रहते हैं. 1990 के दशक में अनलिस्टेड भारतीय कंपनियां देश से बाहर नहीं जा सकती थीं; 2000 की शुरुआत में उन्हें इसकी इजाजत मिल गई; फिर 2000 के बीच उन पर दोबारा पाबंदी लगाई गई; अब मुझे लगता है उन्हें दोबारा हरी झंडी मिल जाएगी! ठीक ऐसा ही निवेश करने वाली विदेश कंपनियों के साथ हुआ. और डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स के साथ भी. और लिस्टेड इक्विटी शेयर के लॉन्ग-टर्म कैपिटल गेन्स के साथ भी.
ऐसे लाखों मिसाल हैं जिससे हमारी नीति-निर्धारण करने वालों की हास्यास्पद हालात बयां होती हैं.
R का मतलब रिकैपिटलाइजिंग (पुन:पूंजीकरण – पूंजी की बर्बादी नहीं)
हमारी बदहाल अर्थव्यवस्था नोटबंदी के झटके से अभी उबरी ही थी कि हमने कायो (उर्फ नॉकआउट) पंच मार दिया – हमने एक के बाद एक अहम पूंजी को कंगाल होने दिया जबकि उन्हें एक-एक कर बचा लेना चाहिए था. यह ILFS के साथ शुरू हुआ, लेकिन फिर DHFL और दूसरी रियल इस्टेट कंपनियां भी इसमें शामिल हो गईं, जिसके बाद जेट एयरवेज, पीएमसी वहैरह. मैं इस बारे में तब तक लिखता और चीखता रहा जब तक मेरा चेहरा नीला नहीं पड़ गया. पूंजी को दोबारा हासिल करो और गड़बड़ी करने वालों को सबक सिखाओ.
हमें बेन बर्नांके से सीखना चाहिए था, जिन्होंने TARP (Troubled Assets Reconstruction Program) बनाया और 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को डूबने से बचा लिया. अगर हमने भी डेट इंस्ट्रूमेंट के जरिए कैश झोंका होता – शायद 1 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा नहीं – हम करीब 20 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति की बर्बादी को रोक लेते.
हमें अपने बैंकों को भी नए तरीकों से रिकैपिटलाइज करना चाहिए था, ना कि पुराने 1990 के दशक के ‘रिकैपिटलाइजेशन बॉन्ड’ के जरिए. ऐसा कर हमें पुन:पूंजीकरण में मोदी सरकार की लगाई गई रकम का दोगुना फायदा हो सकता था. दुर्भाग्य से हम वही पुराने नौकरशाही सिस्टम से बंधे रहे.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
U मतलब (कारोबार के अपराधीकरण को खत्म करना)
कारोबारी को अपराधी बनाना धीरे-धीरे भयावह रूप ले चुका है. इसलिए इसने भारत की अर्थव्यवस्था पर सबसे बुरा असर डाला है. यहां कुछ उदाहरण के जरिए हम इसे ठीक से समझ सकते हैं.
रशेष शाह, देश के बड़े व्यवसायी और FICCI के पूर्व-अध्यक्ष, को सार्वजनिक तौर पर प्रवर्तन निदेशालय का समन मिलता है जिसमें गलतियों की गुंजाइश है. क्या उनका नाम खराब करने से पहले समझदारी से इसकी जांच नहीं हो सकती थी?
रवि नारायण और चित्रा रामकृष्ण – नामी पेशेवर जिन्होंने एक तरह से नेशनल स्टॉक एक्सचेंज को बनाया – के साथ एक पूरी तरह तकनीकी मामले में बाजार के हेरफेर के आरोप में अपराधियों जैसे बर्ताव किया गया.
जगदीश खट्टर, पूर्व-आईएएस ऑफिसर, मारूति के पूर्व सीईओ, रिटायरमेंट के बाद एक कारोबार में नाकाम रहे. उन्हें संदेह का लाभ देने के बजाए, भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआई के हवाले कर दिया गया.
E&Y से संबंद्धित एक फर्म के दो ऑडिटर को 6 साल पुराने एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. जबकि उनके फर्म ने पुलिस के सामने करीब 50 पेशी दी और सबूत पेश किए.
‘S’ का मतलब-
संप्रभु,सुप्रीम कोर्ट की बनाई इकनॉमिक पॉलिसी नहीं
टेलीकॉम लाइसेंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद AGR (एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू) का जुर्माना इसकी बड़ी मिसाल है. पहले तो सरकार ने अस्पष्ट नियम बनाए जिसमें कि किराया और विदेशी विनिमय जैसे आय के स्त्रोत को भी टेलीकॉम कंपनी की ऑपरेटिंग राजस्व में शामिल कर दिया गया. जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे जायज ठहराते हुए 1.50 लाख करोड़ का कर लगा दिया तो टेलीकॉम कंपनियों के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा, सरकार ने पॉलिसी की गड़बड़ियों को ठीक करने के बजाए चुप्पी साध ली.
इससे भी बुरा तब हुआ जब टेलीकॉम लाइसेंस वाली गैर-टेलीकॉम कंपनियां, जैसे कि तेल/गैस कंपनियों और केबल ऑपरेटर पर अनचाहे करीब 3 लाख करोड़ रुपये के असर का खुलासा हुआ, सरकार ने इस गलती को जल्दी दुरुस्त करने की बजाए जब दिल्ली (रोम नहीं) जल रही थी बंसी बजाना शुरू कर दिया.
ऐसे ही कई उदाहरण हैं जिसमें सरकार ने कोर्ट के भयावह आदेशों के सामने अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया जिससे कि देश की अर्थव्यवस्था और खराब हो गई. अब जरूरत यह है कि मोदी सरकार सामने आए और नीति निर्धारणों में हुई गलतियों की जिम्मेदारी ले – उन्हें ठीक करे, बजाय कि किनारे खड़े होकर तमाशा देखती रहे.
T का मतलब (कर का आतंक)
इसके बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि मुझे कोई सबूत रखने की जरूरत नहीं है. यह शायद अकेली सबसे बड़ी वजह है जिससे भारत की अर्थव्यवस्था डगमगा रही है, ठीक उस बॉक्सर की तरह जो कि लड़ाई में बुरी तरह पिट चुका है.
इसलिए निष्कर्ष में यह कहना चाहूंगा कि कम से कम मेरी नजर पहली फरवरी 2020 को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट में कर कटौती पर नहीं रहेगी. मेरी नजर पूरी तरह इस बात पर टिकी होगी कि उनकी सरकार ने TRUST बनाने के लिए क्या किया.
T मतलब बाजार की शक्तियों पर यकीन
R मतलब संपत्तियों का संरक्षण और पूंजीकरण, ना कि उनकी बर्बादी
U मतलब कारोबार के अपराधीकरण का अंत
S मतलब नीति-निर्धारण में सुधार, सुप्रीम कोर्ट पर आधारित ना रहे सरकार