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कुछ वादे इतने सुहावने होते हैं कि वे वास्तविकता से कोसों दूर ही होते हैं. केंद्र सरकार ने वर्ष 2022 तक भारतीय किसानों की आय को दोगुनी करने का टारगेट निर्धारित किया था. खैर इसके बजाय, वादे और सरकारी पॉलिसी के बीच की खाई ने किसानों के संकट को ही दोगुना कर दिया है. इसके निम्नलिखित सात कारक हैं:
पहला: राष्ट्रीय सांख्यिकी और सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रिपोर्ट (2019) में बताया गया कि ग्रामीण भारत में कृषक परिवारों की औसत मासिक आय 8,337 रुपये थी, जो कई अलग-अलग स्रोतों से कमाई गई थी. वार्षिक कृषि आय में 2002-03 से 2012-13 के बीच औसत वृद्धि लगभग 20% थी, जो 2012-13 से 2018-19 के बीच लगभग 12% तक गिर गई. और ये भी तब जब कृषि की अनुमानित विकास दर 4.5% है.
दूसरा: किसान आत्महत्या के आंकड़े भारत में किसानों की दशा और कृषि की स्थिति के महत्वपूर्ण संकेतक (इंडिकेटर) हैं. 2021 में आये राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2019 की तुलना में 2020 में किसान आत्महत्याओं में वृद्धि दर्ज की गयी है. साथ ही कृषि क्षेत्र के श्रमिकों की आत्महत्याओं में भी 18% की भारी वृद्धि देखी गयी जिन्हें पीएम किसान या रायथु बंधु जैसी योजनाओं से बाहर रखा गया है.
किसान आत्महत्या के आंकड़े इन बहुप्रचारित योजनाओं के लिए आइना हैं और इस सच्चाई को उजागर करते हैं कि छोटे और सीमांत किसान अपनी गिरती आय और बढ़ते कर्ज के बोझ के कारण खुद को मार रहे हैं.
तीसरा: खेती के लिए आवश्यक इनपुट लागत खर्च में महत्वपूर्ण योगदान देती है और इसमें वृद्धि किसानों की आय में कटौती करती है. यह कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या का एक महत्वपूर्ण कारण भी हैं. वर्ष 2021 में डि-अमोनियम फॉस्फेट (DAP) की कीमतों में 58% की बढ़ोतरी की गई थी, कीमतों में इस वृद्धि को उद्योगों की तरफ से भारी समर्थन दिया गया था.
चौथा: कृषि क्षेत्र पर GST का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रभाव होना. कृषि उपकरणों पर GST अभी 12% से 18% के साथ उच्च स्तर पर बना हुआ है. उदाहरण के लिए ट्रैक्टरों पर GST 12% है, जिससे किसानों की लागत में वृद्धि हो जाती है. कायदे से कृषि के मशीनीकरण से उत्पादकता बढ़ सकती है, लेकिन अगर उपकरण की लागत में ही वृद्धि हो तो वह लाभ किसान को हस्तांतरित नहीं होगा.
प्लास्टिक पाइपों पर GST 18% है, जो किसानों के लिए सिंचाई या भूजल तक पहुंच के लिए इसके इस्तेमाल को मुश्किल बना देता है. एक ऐसा देश जहां 65% सिंचाई भूजल पर निर्भर हो, वहां प्लास्टिक पाइपों पर इतने टैक्स का कृषि आय पर गंभीर प्रभाव पड़ता है.
पांचवां: आयात और किसानों के हित में विरोधाभास, विशेष रूप से तिलहन में. खाद्य तेल आयात बिल में 75% की वृद्धि हुई है और भारत दुनिया में इसके सबसे बड़े आयातकों में से एक है. इससे तिलहन किसानों को नुकसान होगा. ऐसे किसान जिन्होंने फसल विविधीकरण पर सरकार के वादे पर विश्वास कर चावल-गेहूं जैसे खाद्यान्न या नकदी फसलों से सोयाबीन जैसी फसलों की ओर रुख किया था.
छठा: केंद्र और राज्य सरकारों के बीच धान की खरीद पर विवाद ने सरकारी महकमे के सभी हिस्सों में वास्तविक संकट को उजागर कर दिया है. इसमें से एक है भारतीय खाद्य निगम (FSI) में स्टोरेज का बढ़ता संकट जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
उदाहरण के लिए जब तेलंगाना की राज्य सरकार ने घोषणा की कि उसकी तरफ से रबी सीजन के लिए धान की खरीद नहीं की जाएगी तो लाखों किसानों के पास कोई और विकल्प ही नहीं बचा था. राजनीति ने धान उगाने वाले किसानों के लिए कृषि संकट को बढ़ा दिया, जो अब कर्ज में डूबे हुए हैं.
सातवां: किसानों के भारी आंदोलन के बाद कृषि कानूनों को निरस्त कर दिया गया और प्रधान मंत्री मोदी ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और अन्य मुद्दों की जांच के लिए एक समिति के गठन का वादा किया था. उचित MSP तय करने से किसानों की आय में सुधार होगा. लेकिन अभी भी इस समिति का गठन होना बाकी है, और सरकार के अस्पष्ट शब्दों की माने तो 'निकट भविष्य में बहुत जल्द' इसका गठन किया जाएगा.
आखिर में, केंद्र सरकार 2022 के बजट में यह स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी कि उसने किसानों की आय को दोगुना करने के लिए कितना लगन से प्रयास किया था. वित्त मंत्री उन किसानों की चर्चा नहीं करेंगी जिनका सरकारी नीतियों के कारण कर्ज बढ़ गया है, और तमाम वादों के बावजूद जिनके जीवन में कोई सुधार नहीं है. इन सबके बीच किसान हमेशा की तरह उस संसद में अनुपस्थित रहेगा, जहां उसके भाग्य का फैसला करने वाले लोग बजट पर ‘चर्चा’ कर रहे होंगे.
(डॉ. कोटा नीलिमा एक लेखिका, शोधकर्ता और इंस्टीट्यूट ऑफ परसेप्शन स्टडीज, नई दिल्ली की डायरेक्टर हैं. डॉ. नीलिमा ग्रामीण संकट और किसानों की आत्महत्या पर लिखती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @KotaNeelima है. यहां व्यक्त विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं)
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