advertisement
वामपंथियों को यह श्रेय देना चाहिए कि जो उनकी आत्मा में होता है, वही वो दिमाग में भी बिठा लेते हैं. इस मिथक को बढ़ावा दिया गया है कि कारोबारी पुरुष, कारोबारी महिला और प्रबंधक समाज में चार महत्वपूर्ण चीजों के बारे में सोच पाने में सक्षम नहीं होते. राजनीतिक और धार्मिक विषयों के अलावा ये हैं नैतिकता, बराबरी, न्याय और वेदी (altar), जिन पर हमारे नैतिक मूल्य आधारित होते हैं.
सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है. यह बहुत अच्छा है कि बड़े स्तर पर सफल रहे प्रबंधकों ने इस बात को साबित कर दिखाया है. मैं यहां केवल चार ऐसे लोगों का संदर्भ दे रहा हूं. वैसे इनकी संख्या ज्यादा है और शायद महिलाओं में, जिनके बारे में मैं अब तक अनजान हूं.
एक, शिक्षाविद जिस तरह शब्दजाल के साथ अक्सर सामने आते हैं, उससे अलग भी दर्शनशास्त्र से जुड़े विचारों पर चर्चा करना संभव है. और दूसरा, विद्वतापूर्ण बातचीत का मौखिक तड़क-भड़क से बिल्कुल उल्टा नाता होता है, जो अज्ञानता के तंबू की तरह धराशायी हो जाते हैं.
इस तरह गुरचरण दास ने धर्म के बारे में कई बार लिखा. उन्हें चुनौती दी गई और अक्सर उस पर बहस हुई. मगर, बाकी तीन लोग नए हैं.
इनमें से मायरा और राव की लिखी दो किताबें नयी हैं. सभी चार किताबें ऑनलाइन उपलब्ध हैं और 2500 रुपये से कम में खरीदी जा सकती हैं.
रुपये खूब खर्च हुए हैं. मगर, राज्य को विशिष्टता देने के उतावलेपन में वामपंथियों को कभी इन चीजों से जूझना नहीं पड़ा, क्योंकि ये मानते हैं कि राज्य में सारे गुण भरे पड़े होते हैं. लैटिन भाषा में इस तरीके को ‘इप्सी दीक्षित’ कहा जाता है, जिसका मतलब होता है क्योंकि मैं कहता हूं.
जयतीर्थ राव ने एक विषय को उठाया है कि भारत ने वास्तव में जिस बात की कभी चिन्ता नहीं की है तो वह है रूढ़िवादी सोच. परंपरा और सामान्यतया धीरे-धीरे या फिर कुछ इसके इर्द-गिर्द वह इसकी बहुत हल्की परिभाषा देते हैं.
वैसे यह कोई सम्पूर्ण परिभाषा नहीं है, लेकिन इसकी शुरुआत किसी बहुत महत्वपूर्ण वजह से होगी. सामाजिक मुद्दों पर हाल के दिनों में भारतीय सोच की भावनात्मकता को यह कम करता है और इसमें कुछ अलग रंग भरता है.
इसकी आवश्यकता को कम नहीं किया जा सकता. यह दिमाग है दिल नहीं, जिसे सोचना चाहिए. कहा गया है कि इस किताब को दो दूसरे विषयों के बारे में भी विचार करना चाहिए. वे केवल भारत में रूढ़िवादी सोच की सीमा का विस्तार कर सकते हैं.
मुझे यहां इंगित करना चाहिए कि चाणक्य/कौटिल्य जैसी तार्किकता यहां बहुत सहायक नहीं होती है जब राज्य लोकतांत्रिक स्पर्धा में जीत के लिए खड़ा होता है, क्योंकि तब संप्रभुत्ता जनता में नहीं राजा या रानी में हुआ करती.
मार्क्स ने कहा है कि राज्य यह करेगा. लेकिन चूकि उन्होंने विस्तार से नहीं बताया, स्टालिन अपने विरोधियों का दमन करने के बाद राज्य को ही ले उड़े. 25 लाख रूसी लोगों को उनके शासन की कीमत चुकानी पड़ी.
पुस्तक ऐसे सवालों से भरे पड़े हैं. मूल बिन्दु बहुत स्पष्ट है : दो बेहतर सामाजिक विकल्पों में आप बेहतर तालमेल कैसे बनाते हैं? नियम बनाकर या गलतियों से सीखकर? हजारों साल की कोशिशों के बावजूद हम किसी सर्वमान्य उत्तर के करीब नहीं पहुंच पाए हैं.
यह सीधे न्याय के उस सवाल की ओर ले जाता है जिसकी चर्चा गोपालकृष्णन ने अपनी किताब में की है. वे एक साधारण प्रश्न पूछते हैं : क्यों न्याय मौलिक अधिकार नहीं है? मुझे एक भी न्यायाधीश या राजनीतिकशास्त्र के प्रोफेसर याद नहीं आते, जिन्होंने यह प्रश्न पूछा हो.
अंत में यह सवाल पूछना जरूरी है कि क्या किसी बिजनेस स्कूल में दर्शनशास्त्र की पढ़ाई होती है. अगर वे नहीं पढ़ाते हैं तो वे यह नहीं जानते कि इन्हें पढ़ाएगा कौन. वे इनमें से किसी एक या ऊपर के सभी चार पूर्व सीईओ के साथ इसे शुरू कर सकते हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 17 Jan 2020,10:30 AM IST