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राहुल गांधी के ग्रेट ग्रैंडफादर और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1949 में अमेरिका के दिल-ओ-दिमाग को समझने और उन्हें भारत के बारे में बताने के लिए तीन हफ्ते की अमेरिका यात्रा पर आए थे. राहुल की दो हफ्ते की अमेरिका यात्रा का मकसद उनसे अलग है.
उन्हें इस दौरान ऐसे नेता के रूप में पेश किया जा रहा है, जो ‘भारत की आत्मा’ को बचा सकता है. इसके लिए राहुल और कांग्रेस पार्टी के कुछ सीनियर नेता विदेश में एक कैंपेन चला रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश जिस दिशा में बढ़ रहा है, उससे कांग्रेस के विरोध को पहुंचाने के लिए राहुल अमेरिकी बिजनेस लीडर्स और विचारकों से मिल रहे हैं.
वह सरकार से अपने मतभेदों को विनम्रता के साथ रख रहे हैं. राहुल ने मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्वच्छता अभियान’ जैसी योजनाओं की तारीफ भी की, लेकिन जोर देकर यह भी कहा कि मोदी के विजन में सभी देशवासी शामिल नहीं हैं. अमेरिका, रूस और चीन से रिश्ते के बारे में कांग्रेस की राय सरकार से अलग है, उन्होंने यह भी बताया.
राहुल ने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए मंगलवार को कहा कि वह अमेरिका के साथ भारत के अच्छे रिश्ते की कद्र करते हैं, लेकिन इसमें ‘संतुलन’ भी चाहते हैं. उन्होंने सवाल किया:
उन्होंने कहा कि भारत में अभी असहिष्णुता का जो माहौल है, वह उसके सामाजिक ताने-बाने को खत्म कर सकता है. अगर देश के 20 करोड़ मुसलमान खुद को अलग-थलग पाते हैं तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अच्छा नहीं होगा. उन्होंने गोरक्षा और गोमांस के बहाने और पत्रकारों सहित उदारवादियों की हत्या का भी जिक्र किया. उन्होंने कॉलेज स्टूडेंट्स से कहा कि अगर भारत ‘अहिंसा’ की राह से भटकता है तो हालात खतरनाक हो सकते हैं.
राहुल ने कहा, ‘नफरत, गुस्सा और ध्रुवीकरण की राजनीति से देश का विकास रुक सकता है.’
राहुल ने अमेरिका में अच्छी छाप छोड़ी है. यहां के भारतीय मामलों के जानकार बीजेपी-आरएसएस के सोशल एजेंडा से चिंतित हैं. वे दबी आवाज में भारत में दलितों, ईसाइयों और मुसलमानों पर हो रहे हमलों का जिक्र कर रहे हैं. हो सकता है कि जल्द ही वे खुलकर ये बातें कहने लगें. राहुल ने बेरोजगारी की समस्या का भी जिक्र किया.
उन्होंने कहा कि हर रोज कम से कम 30,000 युवा जॉब मार्केट में आ रहे हैं, लेकिन रोजगार के बहुत कम मौके बन रहे हैं. अमेरिका को राहुल की यह बात सूट करती है. अमेरिकियों को लगा था कि मोदी बड़े आर्थिक सुधार करेंगे. वह भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक खोलेंगे. वे भारत में मौका मिलने पर अधिक प्रॉडक्ट्स बेचना चाहते हैं. मोदी से उनकी यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है.
भारतीय अर्थव्यवस्था धीमी गति से बढ़ रही है, जिसके लिए कई लोग नोटबंदी को कसूरवार मानते हैं. राहुल ने कहा, ‘नोटबंदी अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था.’ कई अर्थशास्त्री भी इसकी आलोचना कर चुके हैं.
राहुल की मीटिंग में अक्सर पहला सवाल देश में असहिष्णुता को लेकर पूछा गया. आयोजकों ने बताया कि कई भारतीय-अमेरिकी मूल के लोगों ने राहुल का समर्थन करने में दिलचस्पी दिखाई है.
राहुल ने एक बड़ी बात यह कही कि भारत ग्रोथ के लिए चीन के मॉडल को नहीं अपना सकता. देश को विकास के नए मॉडल की जरूरत है. इसमें छोटी और मझोली कंपनियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि 100 बड़ी कंपनियों के लिए, जिनके लिए मौजूदा सरकार नई नीतियां बना रही है.
राहुल की इन बैठकों में पित्रोदा उनके साथ थे. उन्होंने बताया कि दर्शक राहुल से प्रभावित हुए. वह उन्हें ईमानदार लगे. सियासी विरासत पर बोलते वक्त जब उनकी जुबान लड़खड़ाई, तो वह किसी वास्तविक इंसान की तरह लगे. बर्कले में राहुल ने माना भी कि मोदी उनसे बेहतर वक्ता हैं. जो लोग अमेरिका में राहुल को सुनने आए, उन्हें यह बात समझ में आ गई कि वह वैसे नहीं हैं, जिस तरह से उन्हें सोशल मीडिया पर पेश किया जाता है.
उन्होंने इन लोगों को ‘बीजेपी की मशीन’ बताया. राहुल ने कहा, ‘'दरअसल, इस मशीन को जो सज्जन चला रहे हैं, वही देश भी चला रहे हैं.’'
विपक्ष के नेता होने के नाते व्हाइट हाउस से राहुल को वह अटेंशन नहीं मिली, जो अमेरिका में सत्ता से बाहर हुए नेताओं को भारत यात्रा के दौरान मिलती है. ट्रंप सरकार की सिर्फ एक अधिकारी लीजा कर्टिस ने उन्हें फोन किया, जो वाइट हाउस में साउथ एशिया की सीनियर डायरेक्टर हैं. क्या अमेरिकी एंबेसी को पता नहीं था कि राहुल वाशिंगटन की यात्रा पर जा रहे हैं या उसे ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन से उनकी मीटिंग कराना जरूरी नहीं लगा, इस बारे में तो अटकलें ही लगाई जा सकती हैं.
राहुल की अमेरिका यात्रा के बारे में इसके आयोजक और कांग्रेस पार्टी के नेता मिलिंद देवड़ा ने बताया कि हम उन्हें अमेरिका में एक बड़े ऑडिएंस से मिलाना चाहते थे. क्या इस यात्रा से राहुल की छवि एक संवेदनशील और योग्य नेता की बनेगी? यह तो पता नहीं, लेकिन अपने भाषणों के जरिये वह ईमानदार नेता की छवि गढ़ने में सफल रहे हैं. लेकिन क्या उनमें भारत में ‘उदारवादी सियासत’ की जगह भरने का दम है?
(सीमा सिरोही सीनियर जर्नलिस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @seemasirohi. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 21 Sep 2017,06:06 PM IST