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शहर में बसते, पर शहर के बाशिंदे क्‍यों नहीं हो पाते आदिवासी, दलित

भेदभाव गांवों-कस्बों में ही नहीं, शहरों में भी मौजूद है

माशा
नजरिया
Updated:
सच तो यह है आदिवासी-दलित शहरों में बसते तो हैं लेकिन शहरों के बाशिंदे कभी नहीं बन पाते.
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सच तो यह है आदिवासी-दलित शहरों में बसते तो हैं लेकिन शहरों के बाशिंदे कभी नहीं बन पाते.
फोटो : द क्विंट 

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22 मई को आदिवासी डॉक्टर पायल तड़वी ने गर्ल्स हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. इससे पहले 2017 में दलित विद्यार्थी मुत्थूकृष्णनन जीवनाथम उर्फ रजनी कृश और 2016 में रोहित वेमुला भी ऐसा ही कर चुके हैं. 2008 से 2016 के बीच हैदराबाद के 6 दलित स्कॉलर भी आत्महत्या कर चुके हैं. इन सबमें समानता सिर्फ यही है कि वे सभी दलित-आदिवासी थे और फैकल्टी या सीनियर्स के उत्पीड़न का शिकार थे.

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एक पैटर्न और है, जो एक दूसरे से मिलता-जुलता है. इन सभी का कैरेक्टर कॉस्मोपॉलिटन था. वे अंग्रेजी जानने वाले थे. वेमुला के सुसाइड नोट और रजनी कृश के फेसबुक पोस्ट और ब्लॉग से उनके बौद्धिक विकास का अंदाजा लगाया जा सकता है.

वेमुला का मानना था कि दलितों को सत्तासीन वर्ग सिर्फ एक वस्तु, एक वोट के रूप में देखता है. रजनी कृश अपने ब्लॉग में नेशनल और एंटी नेशनल्स को लेकर लगातार बहस करता था.

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ऐसा बर्ताव गांव-कस्बों में ही नहीं, शहरों में भी मौजूद

पायल और उसके जैसे दर्जनों आदिवासी-दलित युवाओं की मौत से हमारे सामने कई मुश्किल सवाल खड़े होते हैं. सवाल यह कि उनके साथ यह व्यवहार किसी कस्बे या गांव में नहीं किया जा रहा था. वे महानगरों में रह रहे थे. वहां के बड़े शैक्षणिक संस्थानों में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे.

आम तौर पर यह माना जाता है कि शहर गैर-बराबरी को बढ़ावा नहीं देते. शहरों में आकर हम सब एक बराबर महसूस करते हैं. स्कूलों में किया जाने वाला फर्क, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी लेवल पर खत्म हो जाता है. पढ़े-लिखे आधुनिक लोगों का समाज अलग तरह से रिएक्ट करता है. शहरीकरण और आर्थिक तरक्की ने जाति विभाजन की रेखाओं को धुंधला कर दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है.

अश्विनी देशपांडे जैसी अर्थशास्त्री बताती हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अब भी बहुत से मामले दर्ज किए जाते हैं और वह भी बड़े शहरों में. 2016 में पहली बार एनसीआरबी ने 19 मेट्रोपॉलिटन शहरों में इन समुदायों के प्रति होने वाले अपराधों के आंकड़े जारी किए थे.

इस अधिनियम के अंतर्गत जो मामले सामने आते हैं, उनमें दलित-आदिवासियों को गंदे पदार्थ खाने या पीने को मजबूर करना, उनके घर के बाहर टॉयलेट करना, गंदगी का ढेर लगाना, जमीन हथियाना, अपमानित करना, यौन उत्पीड़न करना इत्यादि शामिल है.

पायल के साथ भी लगातार ऐसा ही व्यवहार उसकी सीनियर्स कर रही थीं. उसके गद्दे पर गंदे पैरों से चढ़ती थीं. पायल को मरीजों- अस्पताल के दूसरे कर्मचारियों के सामने बेइज्जत करती थीं. उसे आरक्षण के कोटे से दाखिला लेने पर ताने देती रहती थीं.

शहरों में अलग-अलग रिहाइशी इलाके

एक और मिथ है जो कि शहरों को इलीट और गांवों को पिछड़ा बताता है. वह यह है कि शहरों में जाति के आधार पर सेग्रेगेशन नहीं होता. सेग्रेगेशन का कारण सामाजिक आर्थिक स्थिति होती है. लेकिन न्यूयार्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय ने एक वर्किंग पेपर पब्लिश किया, जिसमें इस मिथ को तोड़ने की कोशिश की गई. इस पेपर को नवीन भारती, दीपक मलघन और अंदलीब रहमान ने लिखा है. इसमें कहा गया है कि भारत के मेट्रोपॉलिटन शहरों में भी जाति के आधार पर सेग्रेगेशन होता है.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग खास इलाकों में बसते हैं. पेपर कहता है कि आधुनिकीकरण, विकास और उदारीकरण ने जाति व्यवस्था को खत्म नहीं किया है. लोग काम और पढ़ाई के सिलसिले में कस्बों, छोटे शहरों से बाहर निकले हैं तो शहरों में भी अपने साथ सामाजिक और आर्थिक सच्चाइयों को लेकर पहुंचे हैं.

इसका उदाहरण देखना है तो अहमदाबाद चले जाइए. वहां अलग-अलग समुदायों की हाउसिंग कालोनियां हैं. मुसलमानों के लिए अगर जुहापुरा है, तो दलितों के लिए आजादनगर फतेहवादी. वहां दलित बिल्डर ही अपने समुदाय के लोगों के लिए सस्ते घर बना रहे हैं. चूंकि दूसरे समुदाय के लोग दलितों को किराए पर घर नहीं देते, इसलिए उनके लिए उनके इलाके बसाए गए हैं.

शहरी समाजशास्त्री लोइक वेक्यूएंट के अनुसार, फ्रांस से लेकर अमेरिका तक के शहर में ऐसी बस्तियां बन रही हैं, जिसका आधार पलायन, जाति, सांस्कृतिक मतभेद और धार्मिक मतभेद हैं.

शहर में बसते तो हैं लेकिन शहर के बाशिंदे नहीं हो पाते

सच तो यह है आदिवासी-दलित शहरों में बसते तो हैं लेकिन शहरों के बाशिंदे कभी नहीं बन पाते. वे हमेशा हाशिए पर रहते हैं. ये हाशिए सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक हर तरह के हैं. संसदीय जनतंत्र में संख्या चाहिए जो सबसे अधिक इन्हीं की है. इसीलिए इन समुदायों की इंसाफ और बराबरी की आकांक्षा को हमेशा भुनाया जाता है.

बाकी आंकड़े कई सच्चाइयों से परदा हटाते हैं. 2015-16 में यूजीसी ने एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि देश के 53% से भी ज्यादा विश्वविद्यालयों में ऐसी कोई व्यवस्था कायम नहीं की गई है कि दलित-आदिवासी विद्यार्थी किसी भेदभाव की शिकायत तक दर्ज करा सकें. देश में लगभग 800 विश्वविद्यालय हैं. जिन विश्वविद्यालयों में ऐसी व्यवस्था है, उनमें से 87% ऐसी शिकायतों से साफ इनकार करते हैं. शिकायत दर्ज कराने वाले बहुत कम लोग होते हैं.

पायल तड़वी की मौत के बाद एक अंग्रेजी की एक न्यूज वेबसाइट पर एक युवा वकील ने अपनी आपबीती साझा की. कानून की पढ़ाई के दौरान वह जिन अनुभवों से गुजरी, उसे सुनकर होश फाख्ता हो जाते हैं.

रोजमर्रा के जो वाकये हमारे लिए सामान्य बात हो सकती है, वह किसी दलित-आदिवासी के लिए भयावह अतीत को बेवजह याद दिलाने का बायस भी हो सकता है. जैसे पूरी क्लास से यह कहना कि आप अपने पूर्वजों के बारे में निबंध लिखिए. ब्राह्मणों, कायस्थों, क्षत्रिय, बनिया के लिए अपने परिवारजनों और उनके पेशे के बारे में लिखना क्या मुश्किल है- लेकिन मैला ढोने वाले के बच्चों के लिए क्या यह लिखना आसान है.

यह रोजाना का अपमान गांव-कस्बों के साथ-साथ शहरों में बाय डिफॉल्ट होता ही रहता है. और अक्सर यह जान-बूझकर किया जाता है, क्योंकि उन्हें लेकर एक डर का भाव हमेशा रहता है. डर इस बात का कि कहीं वे उस पायदान पर काबिज न हो जाएं, जहां हम पहले से मौजूद हैं. इसी डर का शिकार पायल तड़वी जैसी महत्वाकांक्षी युवा हो रहे हैं.

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Published: 05 Jun 2019,02:39 PM IST

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