मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019जाति आधारित जनगणना क्यों मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है

जाति आधारित जनगणना क्यों मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है

1941 तक जाति के आधार पर जनगणना की कोशिश हुई और उसके बाद इसे रोक दिया गया

मयंक मिश्रा
नजरिया
Updated:
1941 तक जाति के आधार पर जनगणना की कोशिश हुई और उसके बाद इसे रोक दिया गया.
i
1941 तक जाति के आधार पर जनगणना की कोशिश हुई और उसके बाद इसे रोक दिया गया.
(फोटो: iStock)

advertisement

कहते हैं कि जाने-माने एंथ्रपॉलजिस्ट और सेंसस कमिश्नर जेएच हटन ने 1931 की जनगणना के बाद सुझाव दिया था कि भविष्य में जब भी जनगणना हो, उसमें जाति आधारित आंकड़े न जुटाए जाएं. दरअसल, उनसे पहले के सेंसस कमिश्नरों ने ऐसी कोशिश की थी और वे असफल रहे थे. जाति आधारित जनगणना में गड़बड़ियों की आशंका रहती थी.

मिसाल के लिए, अवध में 1867 की जनगणना की रिपोर्ट में ऊंची जातियों में ब्राह्मण, बंगाली, जैन, क्षत्रिय, कायस्थ, कश्मीरी और मारवाड़ियों सहित अन्य को शामिल किया गया था. इससे पता चला कि जाति का मतलब अलग-अलग वर्गों के लिए अलग-अलग था.

1871 की जनगणना पूरी होने के बाद कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने कहा कि मराठा क्षेत्र के कुछ कुनबी जाति के लोगों ने सेंसस में खुद को मराठा के तौर पर दर्ज करने को कहा. कुछ ने अपना धर्म ब्राह्मण बताया, जबकि यह उनकी जाति थी. जाति आधारित जनगणना की जब भी कोशिश हुई, उनमें ये गड़बड़ियां पाई गईं.

1941 तक जाति के आधार पर जनगणना की कोशिश हुई और उसके बाद इसे रोक दिया गया. 1941 की जनगणना में जाति को ऑप्शनल बना दिया गया. इसके बाद जाति के सीमित आंकड़े होने की वजह से उसे कभी पब्लिश नहीं किया गया.

खुद को सवर्ण दिखाने की चाहत

(फोटो: Pixabay)

जाति आधारित जनगणना में सिर्फ यही दिक्कत नहीं थी. साल 1901 के बाद कई जातीय समूह जनगणना करने वालों से अलग कास्ट स्टेटस की मांग करने लगे. वंश परंपरा का हवाला देते हुए कुछ जातियों के लोग खुद को ब्राह्मण वर्ग में डालने की मांग करते, तो कुछ क्षत्रिय और कई अन्य खुद को वैश्य साबित करने की कोशिश करते. यह वह दौर था, जिसे हम संस्कृतिकरण के नाम से जानते हैं.

इसमें कथित तौर पर निचली जातियों के लोग ऊंची जातियों के रस्म-रिवाज को अपनाकर खुद के उच्च जाति का होने का दावा करते थे. वे इस तरह से सामाजिक रुतबा बढ़ाना चाहते थे. इसी वजह से जाति आधारित जनगणना में जो आंकड़े मिले, वे भ्रामक थे.

इसीलिए एक समाज विज्ञानी को कहना पड़ा, '‘सेंसस रिपोर्ट में जाति के जो आंकड़े हैं, उस पर ऐतबार करना मुश्किल है. किसी भी सूबे के लिए जातियों की व्यापक रिपोर्ट नहीं तैयार की गई, फिर देश के लिए ऐसी रिपोर्ट का खयाल छोड़ ही दीजिए. ऐसी हर लिस्ट को ‘अन्य जातियां’ और ‘जाति का पता नहीं या अज्ञात जाति’ जैसे कॉलम जोड़कर पूरा किया गया. जाति आधारित जनगणना की ऐसी एक भी रिपोर्ट नहीं सौंपी गई, जिस पर सवालिया निशान न हो. जातियों का जिस तरह वर्गीकरण किया गया था, कभी भी रिपोर्ट का उससे मेल नहीं हुआ. इसलिए एक भी सेंसस कमिश्नर ने जाति आधारित जनगणना को लेकर संतुष्टि नहीं जाहिर की और इससे पूरे प्रोजेक्ट पर सवालिया निशान लगा रहा.''

जाति के आंकड़े जुटाना क्यों इतना दुश्वार है?

जाने-माने समाजशास्त्री एएम शाह कहते हैं कि गुजराती में जाति के लिए पांच शब्द हैं- जात, जाति, जनाति, वर्ण और कौम. इनमें से हर शब्द के अलग-अलग मायने हैं और वह इस पर निर्भर करता है कि उसका किस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है. इसलिए किसी समूह के अंदर शादी जैसे संदर्भ के चलते उसे जाति का नाम दिया जाता है, तो यह पहचान पारंपरिक तौर पर पेशे से भी जुड़ी रही है. कुछ मामलों में सरनेम से भी जाति की पहचान होती है.

(फोटो: iStock)
जाति की सर्वमान्य परिभाषा नहीं होने से पहले के जनगणना अधिकारियों को रिपोर्ट में ऐसी जातियों के नाम दर्ज करने पड़े, जो या तो अस्पष्ट थे या जिनका वजूद नहीं था. इसी वजह से 2011 सामाजिक आर्थिक जाति आधारित जनगणना का बुरा हश्र हुआ है. विश्वस्त रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें 46 लाख जातियां दर्ज की गई हैं. इसका मतलब यह है कि हर 72 परिवार पर देश में एक जाति है.

क्या 2021 के लिए प्रस्तावित जातीय जनगणना का भी यही हाल होगा? इससे बचने के लिए जनगणना अधिकारियों को जाति के बारे में सीधे सवाल नहीं करना चाहिए. वहीं, जाति की परिभाषा तय करने के लिए समाजशास्त्रियों और एंथ्रपॉलजिस्टों यानी मानवविज्ञानियों की समिति बनाई जा सकती है.

इन सबके बावजूद यह काम आसान नहीं होगा. जाति एक सामाजिक सचाई होने के साथ किसी समूह के पिछड़ेपन की निशानी भी है. जहां आर्थिक मानकों के हिसाब से आंकड़े जुटाना आसान है, वहीं जाति आधारित ठोस आंकड़े जुटाने की कोशिश अब तक छलावा साबित हुई है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
आइए, इसे समझते हैं कि देश में जाति का सवाल कितना उलझा हुआ है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग सभी राज्यों में पिछड़ी जातियों की लिस्ट तैयार करता है और उसे अपडेट करता है. आयोग की लिस्ट के मुताबिक, बिहार में 136 ओबीसी हैं,जबकि कर्नाटक में इनकी संख्या 199 है. इसके बाद संबंधित राज्य इसके अलग लिस्ट तैयार करते हैं.

केंद्र और राज्यों की ओबीसी की लिस्ट मिलाई जाए, तो सिर्फ इसी वर्ग में जातियों की संख्या हजारों में पहुंच जाएगी. इसलिए किसी एक्सपर्ट कमेटी को खास मानकों के आधार पर किसी ओबीसी जाति की परिभाषा तय करनी होगी. इसके बाद उसी हिसाब से जनगणना अधिकारियों को ट्रेनिंग देनी पड़ेगी.

क्या यह काम सामान्य जनगणना के साथ हो सकता है? इसकी संभावना बहुत कम है, लेकिन फिर भी सरकार इसकी कोशिश करेगी. हालांकि इससे जो आंकड़े मिलेंगे, वे अनियमित होंगे. उससे ओबीसी को लेकर हमारा नॉलेज बेस नहीं बढ़ेगा.

कल्याणकारी योजनाओं का कारगर ढंग से लाभ पहुंचाने के लिए ओबीसी की व्यापक लिस्ट की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता. हालांकि बिना योजना के यह काम जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए.

ये भी देखें

23 लाख जातियों पर पॉलिटिक्स के संकेत BJP के लिए कोई अच्छे नहीं हैं

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 11 Sep 2018,07:20 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT