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कहते हैं कि जाने-माने एंथ्रपॉलजिस्ट और सेंसस कमिश्नर जेएच हटन ने 1931 की जनगणना के बाद सुझाव दिया था कि भविष्य में जब भी जनगणना हो, उसमें जाति आधारित आंकड़े न जुटाए जाएं. दरअसल, उनसे पहले के सेंसस कमिश्नरों ने ऐसी कोशिश की थी और वे असफल रहे थे. जाति आधारित जनगणना में गड़बड़ियों की आशंका रहती थी.
मिसाल के लिए, अवध में 1867 की जनगणना की रिपोर्ट में ऊंची जातियों में ब्राह्मण, बंगाली, जैन, क्षत्रिय, कायस्थ, कश्मीरी और मारवाड़ियों सहित अन्य को शामिल किया गया था. इससे पता चला कि जाति का मतलब अलग-अलग वर्गों के लिए अलग-अलग था.
1871 की जनगणना पूरी होने के बाद कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने कहा कि मराठा क्षेत्र के कुछ कुनबी जाति के लोगों ने सेंसस में खुद को मराठा के तौर पर दर्ज करने को कहा. कुछ ने अपना धर्म ब्राह्मण बताया, जबकि यह उनकी जाति थी. जाति आधारित जनगणना की जब भी कोशिश हुई, उनमें ये गड़बड़ियां पाई गईं.
जाति आधारित जनगणना में सिर्फ यही दिक्कत नहीं थी. साल 1901 के बाद कई जातीय समूह जनगणना करने वालों से अलग कास्ट स्टेटस की मांग करने लगे. वंश परंपरा का हवाला देते हुए कुछ जातियों के लोग खुद को ब्राह्मण वर्ग में डालने की मांग करते, तो कुछ क्षत्रिय और कई अन्य खुद को वैश्य साबित करने की कोशिश करते. यह वह दौर था, जिसे हम संस्कृतिकरण के नाम से जानते हैं.
इसीलिए एक समाज विज्ञानी को कहना पड़ा, '‘सेंसस रिपोर्ट में जाति के जो आंकड़े हैं, उस पर ऐतबार करना मुश्किल है. किसी भी सूबे के लिए जातियों की व्यापक रिपोर्ट नहीं तैयार की गई, फिर देश के लिए ऐसी रिपोर्ट का खयाल छोड़ ही दीजिए. ऐसी हर लिस्ट को ‘अन्य जातियां’ और ‘जाति का पता नहीं या अज्ञात जाति’ जैसे कॉलम जोड़कर पूरा किया गया. जाति आधारित जनगणना की ऐसी एक भी रिपोर्ट नहीं सौंपी गई, जिस पर सवालिया निशान न हो. जातियों का जिस तरह वर्गीकरण किया गया था, कभी भी रिपोर्ट का उससे मेल नहीं हुआ. इसलिए एक भी सेंसस कमिश्नर ने जाति आधारित जनगणना को लेकर संतुष्टि नहीं जाहिर की और इससे पूरे प्रोजेक्ट पर सवालिया निशान लगा रहा.''
जाने-माने समाजशास्त्री एएम शाह कहते हैं कि गुजराती में जाति के लिए पांच शब्द हैं- जात, जाति, जनाति, वर्ण और कौम. इनमें से हर शब्द के अलग-अलग मायने हैं और वह इस पर निर्भर करता है कि उसका किस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है. इसलिए किसी समूह के अंदर शादी जैसे संदर्भ के चलते उसे जाति का नाम दिया जाता है, तो यह पहचान पारंपरिक तौर पर पेशे से भी जुड़ी रही है. कुछ मामलों में सरनेम से भी जाति की पहचान होती है.
क्या 2021 के लिए प्रस्तावित जातीय जनगणना का भी यही हाल होगा? इससे बचने के लिए जनगणना अधिकारियों को जाति के बारे में सीधे सवाल नहीं करना चाहिए. वहीं, जाति की परिभाषा तय करने के लिए समाजशास्त्रियों और एंथ्रपॉलजिस्टों यानी मानवविज्ञानियों की समिति बनाई जा सकती है.
इन सबके बावजूद यह काम आसान नहीं होगा. जाति एक सामाजिक सचाई होने के साथ किसी समूह के पिछड़ेपन की निशानी भी है. जहां आर्थिक मानकों के हिसाब से आंकड़े जुटाना आसान है, वहीं जाति आधारित ठोस आंकड़े जुटाने की कोशिश अब तक छलावा साबित हुई है.
केंद्र और राज्यों की ओबीसी की लिस्ट मिलाई जाए, तो सिर्फ इसी वर्ग में जातियों की संख्या हजारों में पहुंच जाएगी. इसलिए किसी एक्सपर्ट कमेटी को खास मानकों के आधार पर किसी ओबीसी जाति की परिभाषा तय करनी होगी. इसके बाद उसी हिसाब से जनगणना अधिकारियों को ट्रेनिंग देनी पड़ेगी.
क्या यह काम सामान्य जनगणना के साथ हो सकता है? इसकी संभावना बहुत कम है, लेकिन फिर भी सरकार इसकी कोशिश करेगी. हालांकि इससे जो आंकड़े मिलेंगे, वे अनियमित होंगे. उससे ओबीसी को लेकर हमारा नॉलेज बेस नहीं बढ़ेगा.
कल्याणकारी योजनाओं का कारगर ढंग से लाभ पहुंचाने के लिए ओबीसी की व्यापक लिस्ट की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता. हालांकि बिना योजना के यह काम जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए.
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Published: 11 Sep 2018,07:20 PM IST