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पॉलिटिकल साइंटिस्ट सैमुएल पी॰ हंटिंगटन (Samuel P. Huntington) का कहना था कि अमेरिका के अधिकांश इतिहास ने अपनी सेनाओं के प्रति हमेशा “उदासीनता का रुख” बरकरार रखा था. भारतीय संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है. भारतीय सशस्त्र बलों के राजनीतिक आकाओं ने हमेशा उनका व्यवस्थागत ह्रास ही किया है. पिछले 75 सालों के दौरान समय-समय पर ऑफिशियल वॉरंट ऑफ प्रेसिडेंस में संशोधनों से यह साफ जाहिर होता है. सरकार की बागडोर किसी के भी हाथ में रही हो, सैन्य बलों के लिए अनमनापन बढ़ता ही रहा है.
आज यह पूरी कोशिश की जा रही है कि उन्हें तिरंगे के मान के साथ जोड़ा जाए (याद कीजिए वह बयान- देश का सिपाही जो मुंह तोड़ जवाब देता है). कई बातूनी पूर्व सैन्य अधिकारियों को न्यूजरूम्स का योद्धा भी बनाया जा रहा है. बॉलिवुड (Bollywood) के रुपहले परदे पर देशप्रेम जगाने की कोशिश की जा रही है (शेरशाह (Shershaah) फिल्म का नारा- हाऊज़ द जोश?) लेकिन राजनीति (politics) और सेना (army) के बीच के मतभेद बार-बार उजागर हुए हैं. खास तौर से कई अराजनीतिक (लेकिन राजनीति के अच्छे जानकार) किस्म के सैन्य अधिकारियों के साथ सरकारों की असहमतियां छिपी नहीं हैं.
आज देश दो मोर्चों पर चुनौतियों से जूझ रहा है. छह महीने से सीडीएस का पद खाली है.
अब 62 वर्ष से कम आयु के सभी सेवारत और हाल ही में सेवानिवृत्त तीन-सितारा अधिकारियों को सीडीएस का पद दिया जा सकता है. इससे इस ओहदे को कमतर किया गया है जिसका ऐलान खूब शोरशराबे के साथ किया गया था.
दरअसल छावनियों में राजनीतिक हितों ने प्रवेश कर लिया है (उनकी कार्यात्मक क्षमता से कहीं अधिक) और एक बड़े खेल को बारीकी से खेलने की कोशिश की जा रही है. यह चिंताजनक है, क्योंकि सेना राजनीति का हथियार नहीं बन सकती.
यह खतरनाक है कि “वर्दी पहनने वाले” अधिकारी खुलकर पक्षपात कर रहे हैं और व्यवस्था की ‘ढाल’ बन रहे हैं ताकि वे जो करना चाहते हैं, कर सकें. वे देश के लिए “आखिरी रास्ता” नहीं, बेकाबू राजनीति का “पहला रास्ता” बन चुके हैं. भारतीय “सैनिक” (Indian army) हमारे उग्र राष्ट्रवाद की पॉप-राजनैतिक संस्कृतिक का चेहरा बन गया है जिसका इस्तेमाल सिर्फ तिजारत के लिए किया जाता है. इसलिए जब इस संबंध में कोई सवाल किया जाता है, रक्षा से जुड़े मसलों पर कोई पूछताछ की जाती है तो सवाल करने वाले को “तरफदारी” करने वाला कहा जाता है. कहा जाता है कि वह “राजनीति से प्रेरित” है. यहां तक कि उसे “देशद्रोही” का तमगा दे दिया जाता है.
2019 में स्वतंत्रता दिवस पर खुद देश के प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्रतीकात्मक प्राचीर से चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के ओहदे की घोषणा की थी. निश्चित तौर पर यह ऐसा विचार था जिसमें बहुत लंबा समय लग गया था. वह भी राजनेताओं और नौकरशाही की ढिलाई के चलते. क्या इस घोषणा का हश्र भी “ओआरओपी” जैसा होने वाला था (शुरुआती वादे के बाद उससे फायदा उठाने की कोशिशों के साथ) या इससे पांच सितारा जनरलों की पीढ़ी तैयार की मंशा थी?
प्रधानमंत्री ने कहा, "इस क्षेत्र के विशेषज्ञ लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं ... एक बार यह पद बनने के बाद यह तीनों बलों को शीर्ष स्तर पर एक प्रभावी नेतृत्व प्रदान करेगा.” यह बिल्कुल सच था. लेकिन देश ने इस घोषणा की सराहना की. एक ऐसी संस्था, जो दो टूक बात करने में गर्व महसूस करती है और पूरी प्रतिबद्धता से काम करती है, अपने लिए एक सीडीएस का लंबे समय से इंतजार कर रही थी.
अहम बात यह थी कि इस घोषणा से पहले नोटबंदी और गुड्स और सर्विस टैक्स यानी जीएसटी (GST) जैसी घोषणाएं हो चुकी थीं. यह उम्मीद की गई थी कि सबक सीख लिए गए हैं, और अब की बार कोई चूक नहीं होगी. इसके अलावा सीडीएस की घोषणा 2020 की गर्मियों में भारत-चीन गतिरोध से पहले की गई थी. इसीलिए “गेमचेंजर”, “मास्टरस्ट्रोक”, “ट्रांसफॉरमेशन” जैसे शब्दों का खुलकर इस्तेमाल किया गया था.
24 दिसंबर 2019 को कैबिनेट की मंजूरी के बारे में पीआईबी का एक गुप्त बयान आया जिसमें लिखा था- "... एक सर्विस चीफ के बराबर वेतन और अनुलाभों वाले चार सितारा जनरल के रैंक के साथ चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद सृजित करने को मंजूरी दी गई. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ रक्षा मंत्रालय में गठित सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) का भी प्रमुख होगा और इसके सचिव के रूप में काम करेगा.” यह भी कहा गया कि वह एक समान पद के अधिकारियों के बीच पहले नंबर पर होगा (यानी फर्स्ट अमंग इक्वल्स).
जाहिर है, इस कदम पर सवाल उठाने का मतलब यह था कि आप पर तरफदारी करने का आरोप लग सकता था. ट्रोलिंग भी शुरू हो सकती थी. इसलिए ज्यादा अच्छा यह था कि कुछ दिन इंतजार करके, स्थितियों को भांपकर फिर कुछ पूछा जाए.
लेकिन पहले सीडीएस के आने के बाद क्या बदलाव हुए हैं, इस पर चर्चा शुरू होती कि वह दुखद हादसा हो गया. 8 दिसंबर, 2021 को हेलीकॉप्टर दुर्घटना में पहले सीडीएस की मौत हो गई.
आज देश दो मोर्चों पर चुनौतियों से जूझ रहा है. छह महीने से सीडीएस का पद खाली है. कहा जा रहा है कि इस पद के लिए सबसे काबिल और बेहतरीन शख्स को चुना जा रहा है, इसीलिए इसमें समय लग रहा है. तो, उस शख्सीयत को चुनने की बात तो छोड़िए- सेवा नियमों में ही बदलाव कर दिए गए हैं. अब 62 वर्ष से कम आयु के सभी सेवारत और हाल ही में सेवानिवृत्त तीन-सितारा अधिकारियों को सीडीएस का पद दिया जा सकता है. इस घोषणा का असर हर उस व्यक्ति पर पड़ेगा, जो इस पद के लिए योग्य है (या जिसे इस पद के लिए योग्य नहीं माना गया है).
इसके अलावा यह खबर भी है कि अब सीडीएस को डीएमए के सचिव की जिम्मेदारियां नहीं निभानी होंगी (जैसा कि पहले कहा गया था). इससे भी अनिश्चितता कायम होती है. अगर ऐसा होता है तो इस महत्वपूर्ण पद को कमतर किया जा रहा है, जिसका पहले काफी शोर-शराबे के साथ ऐलान किया गया था.
किसी पद की लालसा या कमान की पूरी कतार को धीरे-धीरे धराशाई करना, सेनाओं के लिए एकदम दुरुस्त नहीं है. उसे यूं भी राजनीति से एक निश्चित दूरी बनाकर रखना चाहिए. महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों की तरफ से चूक, उलझन और राजनीति से प्रेरित उक्तियां आती रही हैं. लेकिन आने वाले समय में सेनाएं इन व्यर्थ बातों में अपना समय बर्बाद नहीं कर सकती. उन्हें अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर साधना होगा.
सीडीएस प्रकरण को देखकर ऐसा लगता है कि पहले की व्यवस्था की तरह इस व्यवस्था ने भी गलत कदम उठाए हैं. यह कहा जा सकता है कि पहले की व्यवस्था बेहतर नहीं थी (या बदतर थी) लेकिन वह कोई मानदंड नहीं हो सकती.
सीडीएस की नियुक्ति पर मूक चुप्पी, कभी कभी सर्विस प्रोटोकॉल में संशोधन करके टूटती है. यह राजनीतिक मैदान में “मास्टरस्ट्रोक” जैसा ही है. लेकिन सेना की अनुशासनप्रिय दुनिया और कड़े नियम- कि वह अराजनीतिक रहेगी- के बीच ऐसे “मास्टरस्ट्रोक” उसे कमजोर करेंगे और अराजक भी बनाएंगे.
(रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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