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नागरिकता कानून: अपने दिल के दरवाजे किसी के लिए बंद मत कीजिए

एक धर्म को बार-बार यह बताया जा रहा है कि वह बहुसंख्यकों के रहमोकरम पर जिंदा है.

माशा
नजरिया
Published:
दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन
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दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन
(फोटो: IANS)

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यह दिलो-दिमाग के सिकुड़ने पर दुख मनाने का वक्त है. नागरिकता संशोधन विधेयक दोनों सदनों में पारित हो गया है. तीन देशों के छह धर्मों के लोगों को हमने अपनाने का फैसला कर लिया है. लेकिन एक धर्म है, जिसके लिए हमारे दरवाजे बंद हैं. तर्क दिया गया है कि ऐसे कई देश हैं, जिनका अपना राज्य धर्म है. वे उस धर्म विशेष को पनाह दे सकते हैं. हर समुदाय को अंगीकार करना हमारा फर्ज नहीं है. यह हमारी मर्जी पर है कि हम किसे कबूल करें, किसे नहीं.

ऐसे मौके को नजरंदाज करना आसान है, उससे आंख मिलाना मुश्किल. हमारी धर्मनिरपेक्षता सवालों के घेरे में है. यह झूठी तसल्ली जान पड़ती है. यूं हम कई सालों से खुद को झूठा आश्वासन दे रहे हैं. कई साल पहले जनादेश आने पर हमने कहा था कि इसमें भारत की एक आबादी की सहमति है. वह आबादी भारतीय से अधिक हिंदू है. उसकी भारतीयता अनिवार्य रूप से पड़ोसी देश और एक समुदाय विशेष के विरोध से पारिभाषित होती है.

लेकिन यह जनादेश भारतीय जन के निर्माण की प्रक्रिया को बाधित करता था. यह बात जितनी कई सालों में साफ हुई थी, उससे अधिक क्रूरता से अब स्पष्ट हो रही है.

नए कानून में क्या हैं शर्तें

नागरिकता संशोधन विधेयक के कई प्रावधान हैं. यह कहता है कि चार शर्तों को पूरा करने वाले प्रवासी भारतीयों के साथ अवैध प्रवासियों के तौर पर व्यवहार नहीं किया जाएगा. ये शर्तें हैं: (क) वे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई हैं, (ख) अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के हैं, (ग) उन्होंने 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया है, (घ) वे संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के कुछ आदिवासी क्षेत्रों, या ‘इनर लाइन’ परमिट के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों यानी अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में नहीं आते.

इस प्रकार विधेयक न केवल धर्म, बल्कि क्षेत्र विशेष, निवास स्थान और भारत में प्रवेश की तिथि के आधार पर लोगों से भेदभाव करता है. संविधान का अनुच्छेद 14 व्यक्तियों, नागरिकों और विदेशियों को समानता की गारंटी देता है. यह कानून को व्यक्ति समूहों के बीच अंतर करने की अनुमति देता है, जब किसी उपयुक्त उद्देश्य को पूरा करने के लिए ऐसा करना तार्किक हो. सवाल यह है कि ऐसी शर्तें क्या एक उपयुक्त उद्देश्य की पूर्ति करती हैं.

विधेयक में कहा गया है कि भारत में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से लोगों का ऐतिहासिक प्रवास होता रहा है और इन सभी देशों का अपना राज्य धर्म है, जिसके परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक समूहों का धार्मिक उत्पीड़न हुआ है.

विधेयक यह तर्क तो देता है कि अविभाजित भारत के लाखों नागरिक पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते हैं, वह अफगानिस्तान को इसमें शामिल करने का कोई कारण नहीं देता.

इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट नहीं है कि इन देशों के प्रवासियों को दूसरे पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका और म्यांमार के प्रवासियों से अलग क्यों रखा गया है. दोनों देशों में बौद्ध धर्म की प्रधानता है. श्रीलंका का इतिहास तमिल ईलम नामक भाषाई अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का गवाह रहा है. इसी प्रकार भारत म्यांमार के साथ सीमा साझा करता है, जहां रोहिंग्या मुसलमानों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का इतिहास रहा है.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान तमिल ईलम और रोहिंग्या मुसलमान, दोनों अपने-अपने देशों में उत्पीड़न से बचने के लिए भारत में शरण लेते रहे हैं. यह देखते हुए कि बिल का उद्देश्य धार्मिक उत्पीड़न के शिकार प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना है, यह स्पष्ट नहीं है कि इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के अवैध प्रवासियों को विधेयक से बाहर क्यों रखा गया है.

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शरणार्थियों को दुनिया कैसे देख रही है?

यहां मामला शरण देने का है. हम किसे शरण देकर नागरिक बनाना चाहते हैं, किसे नहीं. दुनिया के ऐसे कई देश हैं जो स्वदेश में प्रताड़ित होने वाले लोगों का स्वागत करते हैं. उन्हें शरण देते हैं. कनाडा उन्हीं में एक है. इराक के येज्दी समुदाय के लोगों के अतिरिक्त वहां सीरिया के हजारों लोगों ने शरण ली है. पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि शरणार्थियों का खतरा दिखाकर राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश की गई हो.

कनाडा सरकार तो अपने नागरिकों को यह मौका भी देती है कि वे शरणार्थियों को स्पॉन्सर करें. जिस प्रोग्राम के तहत यह स्‍पॉन्‍सरशिप दी जाती है, उसका नाम है, ग्लोबल रिफ्यूजी स्‍पॉन्‍सरशिप इनीशिएटिव. इस साल इस प्रोग्राम के तहत 1,000 से अधिक शरणार्थियों की मदद की गई है. सरकार शरणार्थियों को इकोनॉमिक एसेट के रूप में देखती है. यहां तक कि प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने सोमाली-कनाडियन वकील अहमद हुसेन को इमिग्रेशन, रिफ्यूजी एंड सिटिजनशिप मंत्री तक बनाया है.

तुर्की और लेबनान तथा जॉर्डन भी शरणार्थियों को शरण देने वाले देशों में से हैं. जोर्डन में दस लाख से भी ज्यादा सीरियाई लोग रहते हैं. आठ सालों से वहां सीरियाई शरणार्थियों के जत्था पहुंच रहे हैं. हालांकि जोर्डन में आर्थिक मंदी और बेरोजगारी की स्थिति है, पर वहां कभी रेफ्यूजी कार्ड नहीं खेला गया और न ही उनके प्रति लोगों ने आग उगली.

UNSCR का कहना है कि जोर्डन सरकार ने सीरियाई और स्थानीय लोगों के बीच प्यार-मोहब्बत को बढ़ावा दिया. छोटे-छोटे प्रॉजेक्ट के जरिए लोगों का सशक्ति‍करण किया. दोनों के बीच संगति बैठाई. सरकार ने यह कोशिश नहीं कि शरणार्थियो को टारगेट करके देश निकाला दिया जाए.

इससे उलट भारत में शरणार्थियों को धर्मों में बांटकर देखा गया है. दुखद यह है कि यहां बहुसंख्यक उदारता का इत्मीनान किसी को नहीं. एक धर्म को बार-बार यह बताया जा रहा है कि वह बहुसंख्यकों के रहमोकरम पर जिंदा है. मस्जिदें अब हिंदुओं के दिलों में चुभने लगी हैं. अजान की पुकार में नींद तोड़ने की साजिश नजर आने लगी है. धर्म हमें यह साहस नहीं दे रहा कि हम दुनियावी मजबूरियों की हदों से आजाद रहें.

असली साहस की पहचान तब होती है, जब आप उनके खिलाफ खड़े होते हैं, जो आपके अपने हैं या आप जिनका हिस्सा हैं. कई साल पहले म्यांमार की सू की अपने देश में बौद्ध समर्थकों से यह नहीं कह पाई थीं कि रोहिंग्या लोगों के साथ वे जो कर रहे हैं, वह मनुष्यता के विरुद्ध है. आज हम अपने लोगों को यह नहीं कह पा रहे कि नस्लकुशी किसी भी जनतंत्र को व्यर्थ बनाती है. इसीलिए बेचैन दिलों को यही पैगाम है कि उत्तेजना के क्षणों को गुजर जाने दिया जाए और फिर अपने विवेक को जाग्रत करने का प्रयास किया जाए. तंगनजरी दूर भी होगी.

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