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BJP को घेरने को आतुर विपक्षी पार्टियों की राह में रोड़े कम नहीं

विपक्ष की एकता में केवल नीतीश ही कमजोर कड़ी नही हैं, कई छोटे दल भी अलग-अलग मुद्दों पर दूसरी राह तलाश लेते हैं

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
एक मीटिंग के दौरान विपक्ष के बड़े नेता
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एक मीटिंग के दौरान विपक्ष के बड़े नेता
(फोटो: IANS)

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2019 लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की बीजेपी से विपक्ष मिलकर कैसे मुकाबला करता है, इसका इम्‍त‍िहान संसद के आगामी मॉनसून सत्र में होने जा रहा है. राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के लिए जेडीयू के नीतीश कुमार का समर्थन हासिल करके बीजेपी पहले ही 18 पार्टियों के विपक्षी दलों के मोर्चे को बड़ा झटका दे चुकी है.

मॉनसून सत्र की शुरुआत की तारीख उसने 12 जुलाई से बढ़ाकर 17 जुलाई कर दी, क्योंकि इसी दिन राष्ट्रपति चुनाव है. यह सत्ता पक्ष की चालाकी है. राष्ट्रपति चुनाव में जेडीयू उसके साथ है और उसके नेता विपक्षी खेमे से सत्ता पक्ष की ओर आकर मतदान करेंगे. वह मॉनसून सत्र की शुरुआत में ही इसके जरिये विपक्ष को मैसेज देना चाहती है.

विपक्षी दलों की चुनौती

सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास मुद्दों की कमी नहीं है. उसने कई मुद्दों पर स्थगन प्रस्ताव और बहस की मांग के लिए नोटिस भी दिए हैं. हालांकि, आने वाली चुनौतियों की वजह से उसका हौसला पस्त दिख रहा है. चार हफ्तों तक विपक्षी मोर्चे को एकजुट रखने के लिए उसे मुस्तैद रहना होगा, क्योंकि बीजेपी उसमें दरार डालने का कोई मौका नहीं छोड़ेगी.

विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच एक और मुकाबला उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर होगा. यह 5 अगस्त को होना है. मॉनसून सत्र तब तक जारी रहेगा. इसे लेकर भी नीतीश कुमार केंद्र में होंगे. उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए उन्हें साथ लेने की कोशिश विपक्ष और बीजेपी दोनों खेमों से हो रही है. 

विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मीरा कुमार का समर्थन नहीं करने को लेकर नीतीश कुमार से तकरार के बाद कांग्रेस और आरजेडी के तेवर नरम पड़ गए हैं. दोनों की कोशिश अब नीतीश को उपराष्ट्रपति चुनाव में साथ लाने की है. सोनिया ने इस काम में अपने विश्वासपात्र अहमद पटेल को लगाया है.

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादवफोटो: PTI

नीतीश का मौनव्रत

बीजेपी बिहार में महागठबंधन से बाहर निकलने और लालू का साथ छोड़ने के लिए नीतीश पर लगातार दबाव डाल रही है. लालू और उनके परिवार पर सीबीआई के कई छापे हाल में पड़े हैं और आरजेडी के बॉस के खिलाफ केस दर्ज किए गए हैं. लालू के बेटे और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और उनकी बेटी और राज्यसभा सांसद मीसा यादव की वजह से नीतीश परेशान हैं, जिन्हें अपनी साफ-सुथरी छवि पर गर्व रहा है.

नीतीश चुप हैं, लेकिन उनकी खामोशी बहुत कुछ कह रही है. सीबीआई छापों के बाद जहां सोनिया और ममता बनर्जी ने फोन करके लालू का साथ देने का संकेत दिया, वहीं नीतीश ने न तो उन्हें फोन किया और न ही इस मामले में कोई बयान जारी किया. बिहार के मुख्यमंत्री ने उपराष्ट्रपति चुनाव पर अपने पत्ते भी नहीं खोले हैं.

नीतीश की वफादारी को लेकर विपक्षी नेता आश्वस्त नहीं हैं. वे चाहते हैं कि सभी दल मिलकर मोदी का मुकाबला करें. विडंबना यह है कि नीतीश ने ही सबसे पहले मोदी विरोधी मोर्चा बनाने का आइडिया पेश किया था. कमजोर कड़ी कौन?

18 पार्टियों के विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे में सिर्फ नीतीश ही कमजोर कड़ी नहीं हैं. कई छोटी पार्टियां भी बीजेपी के दबाव में विपक्षी मोर्चे से अलग हो सकती हैं. विपक्ष के लिए उन्हें सभी मुद्दों पर साथ बनाए रखना बड़ी चुनौती होगी.

मिसाल के लिए, जीएसटी पर विपक्षी दलों की अलग-अलग राय है. कांग्रेस खुद इस रिफॉर्म पर बंटी हुई है. पार्टी का एक वर्ग ममता बनर्जी के साथ मिलकर इसका विरोध करना चाहता है तो दूसरे वर्ग का कहना है कि इस मामले में संतुलित अप्रोच की जरूरत है क्योंकि जीएसटी का आइडिया यूपीए सरकार का था.

बीजेपी ‘बांटो और राज करो’ की रणनीति पर चल रही है. वह कांग्रेस, लालू और ममता पर वह काफी दबाव बना रही है, जो हर हाल में बीजेपी का विरोध करेंगे. उन पर दबाव के लिए सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि, एसपी के अखिलेश यादव और बीएसपी की मायावती के खिलाफ उसका रवैया ऐसा नहीं है, जबकि उनके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं.

सीबीआई एआईएडीएमके की शशिकला और उनके परिवार के पीछे जोर-शोर से लगी है, लेकिन पार्टी के ओ पनीरसेल्वम जैसे नेताओं पर बीजेपी नरम है.

मारन बंधुओं और डीएमके नेता करुणानिधि की बेटी कनिमोझी के खिलाफ भी करप्शन के मामले चल रहे हैं, लेकिन उन पर बीजेपी का रुख राजनीतिक जरूरत के हिसाब से बदलता रहता है. बीजेपी के उभार का दौर संसद देश की सियासत का सबसे बड़ा रंगमंच है. मॉनसून सत्र में अगले आम चुनाव का बिगुल बजेगा, जिसमें अब दो साल से कम समय बचा है. यूपी में जीत के बाद बीजेपी का उभार हो रहा है.

हालांकि, इसी वजह से विपक्षी पार्टियों एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं. उन्हें डर सता रहा है कि बीजेपी कहीं समूचे विपक्ष का सफाया ना कर दे. इसी वजह से एसपी और बीएसपी जैसी धुर विरोधी पार्टियां हाल में एक मंच पर दिखी हैं. एनडीए के राष्ट्रपति कैंडिडेट का समर्थन करके नीतीश ने विपक्षी एकता में दरार डाल दी है. मॉनसून सत्र से यह साफ हो जाएगा कि बीजेपी ने विपक्ष को कितना बड़ा झटका दिया है.

(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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