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राजनीति में उदारवाद और आर्थिक मामलों में दखल, ऐसा कैसे चलेगा

वामपंथियों-उदारवादियों के मन में हर स्तर पर भ्रम है, पहले इसको दूर करना पड़ेगा

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Updated:
इकनॉमी के उतार-चढ़ाव भरे आंकड़ों को समझना जरूरी है
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इकनॉमी के उतार-चढ़ाव भरे आंकड़ों को समझना जरूरी है
(फोटो: pixabay)

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कुछ दिनों पहले चेन्नई से निकलने वाले देश के एक बड़े अखबार में एक आर्टिकल छपा, जिसमें लिखा था कि देश का भविष्य अंधकारमय है. इसका निचोड़ यह था कि देश हर तरह से अब खत्म हो चुका है. इसमें खतरनाक भविष्य की भविष्यवाणी की गई थी. यह आर्टिकल हर्ष मंदर  ने लिखा था, जो पहले आईएएस थे और अब फुल टाइम एक्टिविस्ट हैं. वह हमेशा से सरकारों की आलोचना करते रहे हैं, चाहे वह किसी भी पार्टी की हो. अक्सर वह सही होते हैं.

हमारे लिए यह पता लगाना मुश्किल है कि उनकी भविष्यवाणी सही होगी या नहीं, लेकिन 2019 चुनाव में बीजेपी की शानदार जीत के बाद नेहरूवादी उदारवादियों की जो स्थिति दिख रही है, उनका आर्टिकल इसकी आदर्श मिसाल है.

अजीब संयोग है कि पाकिस्तान के अखबार डॉन में भी भारतीय उदारवादियों के गुस्से और खीझ को लेकर एक आर्टिकल छपा है. इसे पाकिस्तानी स्कॉलर अंजुम अल्ताफ ने लिखा है. वह जाने-माने अर्थशास्त्री हैं, लेकिन इस आर्टिकल में उन्होंने भारत में हुए हालिया लोकसभा का सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण किया है.

अल्ताफ लिखते हैं कि नेहरूवादी प्रोजेक्ट हमेशा से एक एलीट प्रोजेक्ट था, जिसके जरिये अंग्रेजीदां लोगों ने भारत पर ब्रिटिश राजनीतिक आदर्शों को थोपने की कोशिश की. वह लंदन में इतिहास के भारतीय मूल के प्रोफेसर और बेहद चर्चित किताब ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ लिखने वाले सुनील खिलनानी का हवाला देते हैं. खिलनानी ने लिखा था कि 1947 में ज्यादातर भारतीयों को पता नहीं था कि आजादी के रूप में उन्हें क्या मिला है. इसलिए नेहरू और उनके उत्तराधिकारियों ने शिद्दत से उन्हें इसका अहसास कराया कि आजादी के साथ उन्हें धार्मिक सहिष्णुता, उदारवादी सोच मिली है, जो एक तरह से ब्रिटिश आदर्श थे.

अल्ताफ ने लिखा है कि अब ये सब इतिहास की बातें हो चुकी हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों की चादर ओढ़ने वाले भारतीय असल में असहिष्णु और गैर-लोकतांत्रिक हैं. इन दिनों कई स्कॉलर, एक्टिविस्ट और आम लोग ऐसी बातें कह रहे हैं, जिनमें हमें अमर्त्य सेन को भी शामिल करना चाहिए.

सेन के विद्वान होने पर कोई शक नहीं है, लेकिन वह जिस तरह के विश्लेषण और डर जाहिर कर रहे हैं, उस पर जरूर संदेह होता है. खैर, कोई बात इसलिए अच्छी या बुरी नहीं हो जाती कि उसे कौन कह रहा है. लेकिन जिस तरह से उदारवादियों ने अपना गैर-उदारवादी चेहरा पेश किया है, उससे उनकी पोल खुल गई है. वे विचार की आलोचना नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे कौन कह रहा है, इस पर उनकी आलोचना केंद्रित हो गई है.

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राजनीति हां, इकनॉमिक्स ना?

उन लोगों से मैं एक ही सवाल करना चाहता हूं- क्या राजनीतिक उदारवाद के साथ आर्थिक गैर-उदारवाद ठीक है? संविधान के आर्टिकल 19(जी) को दमित करने पर वे क्या कहेंगे, जो हर नागरिक को किसी भी काम की आजादी देता है. वामपंथियों-उदारवादियों का इस मामले में रटा-रटाया जवाब यह है कि अगर आर्थिक गैर-उदारवाद से मतलब आर्थिक गतिविधियों में सरकार की भागीदारी और दखल है तो वह समाज में बराबरी बढ़ाने के लिए जरूरी है. वे इस मामले में गरीबी खत्म करने जैसे तर्क देते हैं.

हो सकता कि उनकी बात सही हो, लेकिन उन्हें यह सवाल भी करना चाहिए कि राजनीतिक गैर-उदारवाद फिर आर्थिक बराबरी बढ़ाने के लिए ठीक क्यों नहीं हो सकता? आखिर चीन और उससे पहले दक्षिण पूर्व एशियाई के इसी गैर-उदारवाद से वहां आर्थिक असमानता कम हुई. दिलचस्प बात यह है कि इसे वामपंथी और उदारवादी पसंद भी करते हैं. इसलिए जो लोग नेहरू के राजनीतिक उदारवाद का बखान कर रहे हैं, वे उनके आर्थिक गैर-उदारवाद की अनदेखी करके गलती कर रहे हैं.

आप नेहरू के दौर के किसी भी कानून को उठा लीजिए, उसमें आपको यह गैर-उदारवाद नजर आ जाएगा. इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी कार की तरह हो गई, जिसके दायीं तरफ राजनीतिक उदारवाद के पहिये तो बायीं तरफ आर्थिक गैर-उदारवाद के स्कूटर के पहिए लगे थे. इसलिए इसकी रफ्तार सुस्त और अनियमित रही है. विडंबना देखिए कि जो लोग नेहरू के राजनीतिक आदर्शों के खत्म होने पर अफसोस कर रहे हैं, वहीं उनके आर्थिक गैर-उदारवाद को खत्म करने की मांग कर रहे हैं. मिसाल के लिए, यहां तक डॉ मनमोहन सिंह समय-समय पर कह चुके हैं कि भारतीय श्रम कानूनों को और ‘फ्लेक्सिबल’ यानी कम लिबरल बनाने की जरूरत है.

जो लोग देश में 2006 में मनरेगा लेकर आए, उन्हें गरीबी को दी जा रही सब्सिडी खत्म करने की मांग से पहले कुछ भी नहीं सोचा. यह सब्सिडी इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियों की बुनियाद थी.

दरअसल, वामपंथियों-उदारवादियों के मन में हर स्तर पर भ्रम है. मैं जानता हूं कि वे सबका भला चाहते हैं, लेकिन पहले उन्हें मन के इस संशय को दूर करना होगा. वे 1990 के दशक के आखिर की ब्रिटिश लेबर पार्टी से सीख सकते हैं, जिसे बाद में न्यू लेबर के नाम से जाना गया. भारतीय उदारवादी भी इसी तरह से नए उदारवादी बन सकते हैं. उन्हें इसके लिए राजनीतिक उदारवाद और आर्थिक गैर-उदारवाद के बीच संतुलन साधना होगा. मुझे लगता है कि हिंदू हितों की बात के पीछे से बीजेपी यही करने की कोशिश कर रही है.

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Published: 20 Jun 2019,01:58 PM IST

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