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न्यूनतम आय गारंटी: राहुल गांधी का ‘न्याय’ मुमकिन भी, बेहद जरूरी भी

न्यूनतम आय गारंटी यानी ‘न्याय’ के आदर्श पर राहुल 2019 का चुनाव लड़ रहे हैं.

ऑनिंद्यो चक्रवर्ती
नजरिया
Updated:
न्यूनतम आय गारंटी यानी ‘न्याय’ के आदर्श पर राहुल 2019 का चुनाव लड़ रहे हैं.
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न्यूनतम आय गारंटी यानी ‘न्याय’ के आदर्श पर राहुल 2019 का चुनाव लड़ रहे हैं.
(सांकेतिक तस्वीर : Altered By Quint Hindi)

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राहुल गांधी ‘इंदिरा गांधी’ बनने की ओर हैं. उनकी दादी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, सूदखोरी-महाजनी को खत्म किया और उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ की बुनियाद पर 1971 का चुनाव लड़ा. न्यूनतम आय गारंटी यानी ‘न्याय’ के आदर्श पर राहुल 2019 का चुनाव लड़ रहे हैं. उन्होंने 5 करोड़ गरीब परिवारों को 12 हजार रुपये महीने की न्यूनतम आमदनी का वादा किया है. यह औसतन प्रति परिवार प्रति माह 6 हज़ार रुपया या सालाना 72 हजार रुपये बैठेगा.

हर साल 3.6 लाख करोड़ रुपये सरकार को इस मद में खर्च करना होगा. यह अगले साल के समग्र अनुमानित बजट का 13 फीसदी के करीब है. यह अनुमानित राजकोषीय घाटे का तकरीबन आधा है.

अगर सभी योजनाएं बनी रहती हैं और राहुल की ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) उन सबसे ऊपर और प्राथमिकता में आता है, तो राजस्व घाटा 2019-20 में 10.6 लाख करोड़ बढ़ जाएगा. यह अगले वित्तीय वर्ष में अनुमानित जीडीपी का 5.1 फीसदी होगा.

राजकोषीय घाटा बढ़ा सकता है ‘न्याय’

दूसरी ओर खाद्य सब्सिडी को ‘न्याय’ के तहत रखा जा सकता है. 2018-19 में इसके 1.84 लाख करोड़ रहने का अनुमान है. आमदनी की कुछ गारंटी मनरेगा के तहत मजदूरी के रूप में भी हो सकती है, जिस पर 60 हजार करोड़ का खर्च आता है.

अगर दोनों को जोड़ दें, तो राहुल गांधी की आमदनी के टॉपअप स्कीम पर प्रस्तावित खर्च का यह दो-तिहाई होता है. उस स्थिति में उन्हें अतिरिक्त 1.2 लाख करोड़ रुपये खर्च करने होंगे. राजस्व घाटा तब बढ़कर 8.2 लाख करोड़ यानी जीडीपी का 4 फीसदी हो जाएगा.

इस तरह ‘न्याय’ पर अमल करते हुए वर्तमान में राजस्व घाटा 3.4 फीसदी से बढ़कर 4 से 5.1 फीसदी के बीच कहीं ठहरेगा, जो इस बात पर निर्भर करेगा कि इस मद में कितना अतिरिक्त धन खर्च किया जाना है.  

राजस्व से जुड़ी परम्परागत सोच कहेगी कि यह विनाशकारी होगा क्योंकि इससे ब्याज दर और महंगाई बढ़ेगी. लेकिन क्या वास्तव में ये सच है?

ये भी पढ़ें - क्या राहुल गांधी की मिनिमम गारंटी स्कीम गेमचेंजर साबित होगी?

...लेकिन क्या यह विनाशकारी है?

मान लें कि एक सीमेंट फैक्ट्री 10 करोड़ की एक मशीन का इस्तेमाल करती है. अगर मशीन की लाइफ 5 साल है, तो सीमेंट कम्पनी को इस मशीन पर सालाना 2 करोड़ का खर्च आता है. अब मान लें कि यह मशीन हर साल 10 हजार सीमेंट की बोरियां बना सकती है. लेकिन चूंकि पर्याप्त मांग नहीं है, इसलिए कम्पनी केवल 5 हजार बोरियां ही बनाती है. जब पूरी क्षमता हो, तो मशीन की औसत कीमत 2000 रुपये प्रति बोरी निकलती है. लेकिन जब आधी क्षमता का इस्तेमाल हो, तो औसतन निश्चित लागत 4 हजार रुपये प्रति बोरी बैठती है.

अब मान लें कि सरकार सीमेंट खरीदने के लिए बेहद गरीब लोगों के हाथों में नकद देती है. सीमेंट की प्रभावी मांग बढ़ जाती है. अब फैक्ट्री और ज्यादा सीमेंट का उत्पादन करने लगती है, जिससे प्रति बोरी मशीन की लागत कम होती जाती है. इस उदाहरण में ऊंची होती मांग का किताबी अर्थशास्त्र से बिल्कुल अलग नतीजा सामने है: कीमत बढ़ने के बजाए, इसने वास्तव में कीमत को कम कर दिया है.

मुख्य रूप से भारतीय उद्योग इस समय इसी समस्या का सामना कर रहे हैं. उपभोक्ता के पास पर्याप्त रकम नहीं है कि वह भारतीय कंपनियों के उत्पादों को खरीद सके. इस वजह से हमारी फैक्ट्रियां 75 फीसदी क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं. सीमेंट में यह लगातार कम लगभग 70 फीसदी रहा है. ऑटो सेक्टर में चीजें और भी बुरी हैं. भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी लिमिटेड ने इस महीने अपना उत्पादन 8 फीसदी कम कर दिया है. ‘न्याय’ से यह दशा बदलेगी.

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‘न्याय’ का 'मल्टीप्लायर इफेक्ट'

अगर मांग को बढ़ाने के लिए 3.6 लाख करोड़ रुपये अर्थव्यवस्था में झोंके जाते हैं, तो इसका प्रभाव पूरी अर्थव्यवस्था में कई दिशाओं में कई तरीकों से पड़ेगा. गरीब और ज्यादा खाद्य, दूध, दवा, टॉर्च, बैटरी, कपड़े, फोन और दूसरी चीजें खरीदेंगे, जो अभी वे नहीं खरीद पाते. अपने घरों की मरम्मत, सीमेंट की खरीद, पेंट और टाइल्स खरीदने पर वे और ज्यादा खर्च कर सकते हैं. शायद वे अपने बच्चों की शिक्षा, उन्हें स्थानीय अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजने पर ज्यादा खर्च करें.

गरीब जिन वस्तुओं का उपभोग करते हैं उन्हें बनाने वाली कंपनियों के उत्पाद की मांगों में शुरुआती तौर पर उछाल आएगा. जैसे- एफएमसीजी, बैटरी उत्पादक, बीज कंपनियां, सीमेंट कंपनियां. उसके बाद वे और लोगों को नौकरी पर रखेंगे, पहले से ज्यादा कच्चा माल और मशीनें खरीदेंगे और विज्ञापनों पर ज्यादा खर्च करेंगे.

रोजगार में रहने वाले लोग वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करेंगे, कार और मकान खरीदने के लिए लोन लेंगे और अपनी आमदनी का एक हिस्सा निवेश भी करेंगे. जब बाजार में धन का प्रवाह होगा और बैंकों में ज्यादा कारोबार होगा तो रीयल इस्टेट और ऑटो सेक्टर का पुनरुद्धार होगा और वित्तीय सेक्टर में नयी जान आएगी. यह देखते हुए कि अभी इन क्षेत्रों में अधिकतम क्षमता से बहुत कम काम हो रहा है, कीमत बढ़ने के बजाए कीमत गिर सकती है.

क्या हो अगर खाद्य सब्सिडी और मनरेगा 'न्याय' के अंतर्गत हो जाए?

कुल मिलाकर ‘न्याय’ के 'मल्टीप्लायर इफेक्ट' का नतीजा ये हो सकता है कि जीडीपी के विकास की दर दोहरे अंक में पहुंच जाएगी. अगर मुद्रास्फीति 5 फीसदी बढ़ती है और वास्तविक जीडीपी 10 फीसदी बढ़ जाती है, तो सामान्य जीडीपी अगले वित्त वर्ष में अनुमानित 210 लाख करोड़ के बजाए 217 लाख करोड़ होगी. समान टैक्स/जीडीपी अनुपात के रहते हुए करों से सरकार की आय 53 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा बढ़ जाएगी.

अगर ऐसा होता है कि पूरी योजना के लिए अतिरिक्त कोष से वित्त की व्यवस्था की जाती है, तो ‘न्याय’ के अतिरिक्त बोझ के कारण राजकोषीय घाटे में 4.6 फीसदी की कमी होगी.

अगर मौजूदा खाद्य सब्सिडी और मनरेगा को इस योजना में शामिल कर दिया जाता है, तो राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.5 फीसदी बैठता है. मौजूदा 3.4 फीसदी से इसकी तुलना करें, तो आप देखेंगे कि ‘न्याय’ न सिर्फ संभव है, बल्कि यह बिल्कुल जरूरी भी है.

(अनिंद्यो चक्रवर्ती एनडीटीवी के हिन्दी और बिजनेस न्यूज चैनल के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं. अब वे एनडीटीवी इंडिया के एंकर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @AunindyoC. ऊपर व्यक्त विचार लेखक के हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें - ‘न्याय’ नहीं मिला तो 3.5 लाख करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान होगा

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Published: 27 Mar 2019,10:49 AM IST

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