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क्या राहुल गांधी की मिनिमम गारंटी स्कीम गेमचेंजर साबित होगी?

आंकड़ों के हिसाब में देश में 2.5 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिनकी मासिक आमदनी 5,000 रुपए या इससे कम है

मयंक मिश्रा
नजरिया
Published:
क्या राहुल गांधी की मिनिमम गारंटी स्कीम गेमचेंजर साबित होगी?
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क्या राहुल गांधी की मिनिमम गारंटी स्कीम गेमचेंजर साबित होगी?
(फोटो: Twitter)

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसकी घोषणा पहले कर दी थी. लेकिन डिटेल्स सोमवार को बताए गए. राहुल गांधी के ऐलान की सबसे बड़ी बात ये है कि मिनिमम गारंटी स्कीम के तहत ये सुनिश्चित किया जाएगा कि देश में किसी भी परिवार की मासिक आय 12,000 रुपए से कम ना हो. मतलब ये हुआ कि किसी परिवार की मासिक आमदनी अगर 6,000 रुपए हो तो उसे 6,000 रुपए की रकम दी जाएगी. यानी साल का 72,000 रुपए.

आंकड़ों के हिसाब में देश में 2.5 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिनकी मासिक आमदनी 5,000 रुपए या इससे कम है, 5 करोड़ परिवारों की औसत मासिक आय 10,000 रुपए है. कांग्रेस का वादा है कि उसकी सरकार बनती है तो इन 7.5 करोड़ परिवारों में 5 करोड़ परिवारों को मिनिमम गारंटी स्कीम का फायदा मिलेगा. इस हिसाब से ये बड़ी स्कीम है.

ध्यान रहे, ये यूनिवर्सल स्कीम नहीं है

मतलब ये कि इस स्कीम को अगर लागू किया जाता है तो देश के करीब 30 करोड़ परिवारों में से करीब 5 करोड़ परिवारों को इसका फायदा मिलेगा. इस हिसाब से ये एक टार्गेटेड स्कीम है जिसका एक खास मकसद होगा.

इसका सबसे बड़ा फायदा होगा कि देश में गरीबों की संख्या में कमी आएगी, गांवों में लोगों की आमदनी बढ़ेगी, कॉट्रेक्ट पर काम करने वालों को एक मिनिमम आय का भरोसा होगा, गांवों और शहरों में बढ़ती खाई कम होगी. एकदम मार्जिन पर रहने वालों का कॉन्फिडेंस बढ़ेगा, और गरीबी पर आने वाली डिप्रेशिंग रिपोर्ट्स से छुटकारा मिलेगी—कांग्रेस का कम से कम यही दावा है. पार्टी ने यह भी दावा है कि इस स्कीम की वजह से सरकार का फिस्कल मैथ बेकाबू नहीं होगा. मतलब वित्तीय घाटा काबू में रहेगा. सरकारी बैलेंशशीट की सेहत बहुत खराब नहीं होने वाली है. ग्रोथ अगर ठीक रहे और रेवेन्यू कलेक्शन हेल्दी रहे तो इस फंड का आसानी से चलाया जा सकता है. लेकिन ये तो हो गया कांग्रेस का दावा.

चुनौतियां क्या-क्या हैं?

हकीकत में इस स्कीम को लागू करना काफी मुश्किल होगा. सबसे बड़ी बात, परिवार की आमदनी का हिसाब कैसे लगाया जाएगा. देश में एनएसएसओ का हाउसहोल्ड सर्वे होता है जिससे परिवारों की औसत आमदनी का अंदाजा लगता है. लेकिन क्या अंदाज के हिसाब से परिवारों का चुनाव होगा? एनएसएसओ के सर्वे में लोगों के बातों-दावों को रिकॉर्ड कर लिया जाता है. क्या इसे आधार बनाया जा सकता है? नहीं तो लाभार्थी का चयन और किस तरह से होगा, इसका फिलहाल जवाब नहीं है.
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दूसरी सबसे बड़ी चुनौती होगी ये सुनिश्चित करना कि परिवार की मासिक आमदनी 12,000 पहुंचे. इसका मतलब ये हुआ कि हर परिवार को कितनी रकम दी जाए, इसका आंकड़ा हर महीने बदल सकता है. या फिर परिवार को हर महीने यह बताना पड़ सकता है कि उसकी कितनी आमदनी हुई और यह 12,000 रुपए से कितना कम रह गया. भारत के सरकारी सिस्टम में इतनी कार्यकुशलता है कि वो इस बदलाव को कैप्चर कर ले और उसी हिसाब से एडजस्ट कर ले? फिलहाल इसकी उम्मीद काफी कम है.

तीसरी बड़ी चुनौती होगी इतना भारी भरकम फंड हर साल जुटाना. इस स्कीम को चलाने के लिए सालाना 3 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का खर्च हो सकता है. एक आसान तरीका है कि कई गैर जरूरी सब्सिडी स्कीम को बंद कर दिए जाएं और उस बचत से इस स्कीम को चलाई जाए. अगर ऐसा होता है तो सरकारी बैलेंशशीट पर ज्यादा बोझ नहीं बढ़ेगा. लेकिन ये बाकी के साथ-साथ एक और सब्सिडी स्कीम बन जाती है तो इसका बहुत बुरा परिणाम होगा.

कांग्रेस को उम्मीद है कि चुनावी सीजन में उसका ये गेमचेंजर आइडिया है. यानी इसके ऐलान भर से उसके पक्ष में हवा बहने लगेगी. शायद इस तरह की उम्मीद लगाना जल्दबाजी होगी. देश की जनता हर चुनावी सीजन में लोकलुभावन वादों से इतनी ठगी जा चुकी है कि उनके लिए ये वादा एक और चुनावी वादों जैसा ही लगेगा. क्या कांग्रेस यह भरोसा जगा पाएगी कि यह हजारों वादों जैसा एक और चुनावी वादा नहीं है.ये आसान है?

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