मेंबर्स के लिए
lock close icon

कोरोना लॉकडाउन डायरी: अच्छे, बुरे, कड़वे अनुभव

सरकार के किसी भी फैसले पर इतनी सहमति नहीं देखी. यह काफी भरोसा दिलाता है कि वैश्विक महामारी से लड़ाई में हम एकजुट हैं

मयंक मिश्रा
नजरिया
Updated:
कोरोना वायरस जैसी आपदा बहुत बड़ी है और इसकी परफेक्ट प्लानिंग काफी मुश्किल है.
i
कोरोना वायरस जैसी आपदा बहुत बड़ी है और इसकी परफेक्ट प्लानिंग काफी मुश्किल है.
फोटो:PTI

advertisement

लॉकडाउन शुरू होने के कई दिनों बाद रविवार को मैं पहली बार कुछ जरूरी सामान खरीदने अपनी सोसाइटी के सामने वाले किराने की दुकान गया. ध्यान रहे कि नेशनल कैपिटल रिजन में लॉकडाउन को एक हफ्ते हो गए हैं. दुकान में आटा उपलब्ध नहीं मिला. बेसन नहीं है, मैगी का स्टॉक कब का खाली हो गया है. किसी भी तरह का स्नैक्स नहीं मिला. दालें गायब हैं. सब्जियों और फलों की सप्लाई फिलहाल ठीक है. दूध भी सुबह-शाम मिल रहा है. दुकानदार ने कहा कि जो पहले से पड़ा सामान था वही उपलब्ध है. नई सप्लाई पूरी तरह से बंद हो गई है.

उसकी बात अगर सही है तो, और नई सप्लाई तत्काल शुरू नहीं हुई तो, जरूरी सामानों की भारी कमी होने वाली है. कीमतें तो बढ़ गई ही हैं. हुक्मरानों की बात मानकर हमने जरूरी सामानों का स्टॉक नहीं किया. अब लगता है कि गलती हो गई.

लेकिन इस त्रासदी में जो सबसे अच्छी बात लगी वो यह है कि लोग पूरी तरह से लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं. सड़के खाली हैं. पुलिस की गाड़ियों को छोड़ दें, तो सड़कों पर गाड़ियां दिखती नहीं है. ऐसा नजारा उस एनसीआर में है जहां हर-गली चौराहे पर ट्रैफिक जाम आम बात है. सोसाइटी के अंदर भी ऐसा सन्नाटा मैंने पहले कभी नहीं देखा. मॉर्निंग वॉक बंद है, दोस्त भी मुलाकात से परहेज कर रहे हैं, बच्चे पूरी तरह से लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं.

आसपास की हर सोसाइटी में भी कमोबेश यही हाल दिखता है. हममें से कोई घर से निकल नहीं रहा है इसीलिए ठीक से कहा नहीं जा सकता है कि दूर-दराज के इलाकों में क्या हो रहा है. लेकिन लोगों की बातचीत से साफ लगता है कि लॉकडाउन को वो सही मानते हैं. अपनी जिंदगी में मैंने कभी भी सरकार के किसी भी फैसले पर इतनी सहमति नहीं देखी. यह काफी भरोसा दिलाता है कि वैश्विक महामारी से लड़ाई में हम एकजुट हैं.

सरकार के किसी भी फैसले पर इतनी सहमति नहीं देखी. यह काफी भरोसा दिलाता है कि वैश्विक महामारी से लड़ाई में हम एकजुट हैं.(फाइल फोटोःiStock)
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

जरूरी सामान की सप्लाई कब बहाल होगी?


लेकिन जिस तरह से नए स्टॉक की सप्लाई बंद हो गई है, उसे देखकर तो यही लगता है कि लॉकडाउन का फैसला झटके में लिया गया है. यह मानना थोड़ा अटपटा लगता है कि इसकी प्लानिंग नहीं हुई होगी. प्लानिंग जरूर हुई होगी, लेकिन प्लानिंग करने वालों ने शायद उनसे इनपुट्स नहीं लिए जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हों.

लेकिन जिस तरह से नए स्टॉक की सप्लाई बंद हो गई है, उसे देखकर तो यही लगता है कि लॉकडाउन का फैसला झटके में लिया गया है.(तस्वीर : गुओ चेंग/शीन्हुआ)
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस तरह की त्रासदी की सही प्लानिंग नहीं हो सकती है. कोरोना वायरस जैसी आपदा बहुत बड़ी है और इसकी परफेक्ट प्लानिंग काफी मुश्किल है. लेकिन जरूरी सामानों की सप्लाई-चेन को आपातकाल में भी दुरुस्त रखा जाए. यह तो एकदम से बेसिक ड्रिल है. इसपर भी प्रभाव पड़ रहा है तो इसका मतलब है कि जरूरी बॉक्स को भी टिक नहीं किया गया.

लेकिन सबसे भयावह तस्वीर वहां से आ रही हैं जहां माइग्रेंट वर्कर काम करते हैं. जब पूरे देश में इस बात पर सहमति है कि लॉकडाउन सही फैसला है, ऐसे में माइग्रेंट वर्कर क्यों अपने-अपने इलाकों में जाने की जिद पर अड़े हैं? निश्चित रुप में उन्हें कोई बड़ा अंदेशा खाए जा रहा है- शायद भूखमरी का, बेघर होने का, कमाई के मौके खत्म होने का, लोकल्स से संभावित भेदभाव का या फिर सरकारों की उदासीनता का.

देश में माइग्रेशन एक हकीकत है. हर तबके के लोग बहुत सारी वजहों से एक जगह से दूसरे जगह जाते हैं. देश में माइग्रेंट को सम्मान करने की संस्कृति अभी ठीक से विकसित नहीं हुई है. ऐसे में कमाई के मौके भी खत्म हो जाएं, या फिर खत्म होने का डर सताने लगे, तो उन लोगों के हताशा का आप अंदाजा खुद लगा सकते हैं. और यही हताशा उनके पलायन की वजह है और वो भी उस हालात में जब वापस जाना लगभग असंभव जैसा लगता हो. इस पूरी क्राइसिस को माइग्रेंट की मनोदेशा से समझने की कोशिश करनी चाहिए, तभी इसका हल निकलेगा.

इस पूरी क्राइसिस को माइग्रेंट की मनोदेशा से समझने की कोशिश करनी चाहिए, तभी इसका हल निकलेगा.(फाइल फोटो: PTI)

सरकार राहत पैकेज में दिलेरी नहीं दिखती


इस पूरे लॉकडाउन के समय में जिससे सबसे ज्यादा निराशा हुई है वो है सरकारी राहत पैकेज. जहां पूरी दुनिया की सरकारें कोरोना से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अरबों-खरबों डॉलर के पैकेज का ऐलान कर रहे हैं, हमारी सरकार के पैकेज में दिलेरी तो बिल्कुल नहीं दिखती है. अभी भी जिद है कि वित्तिय घाटा नियंत्रण में रहे. माना कि हमारा खजाना उतना समृद्ध नहीं है, जितना कि अमेरिका या जर्मनी का है. लेकिन वहां की सरकारों ने लोगों को राहत पहुंचाने के लिए 'व्हाटेवर इट टैक्स' का तरीका सच में अपनाया है. जर्मनी का ही उदाहरण ले लीजिए. वहां की सरकार हमेशा खयाल रखती है कि सरकारी कर्ज वहां की जीडीपी के 0.4 परसेंट से ज्यादा ना हो. लेकिन राहत पैकेज की वजह से वो जीडीपी का 4 परसेंट कर्ज लेकर लोगों की मदद करेगी. वहां हर तबके के लोगों को कैश ट्रांसफर किया जाएगा. लेकिन हमारी सरकार का एप्रोच रहा है कि फिलहाल लोगों को एक झुनझुना दे दो, आगे देखा जाएगा.

जहां पूरी दुनिया की सरकारें कोरोना से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अरबों-खरबों डॉलर के पैकेज का ऐलान कर रहे हैं, हमारी सरकार के पैकेज में दिलेरी तो बिल्कुल नहीं दिखती है (फोटो: PTI)
लेकिन आखिर में उन सब बातों पर गौर कीजिए जो अच्छा हो रहा है. इस त्रासदी के माहौल में रिजर्व बैंक ने दिलेरी दिखाई है और ऐसे फैसले लिए हैं, जिससे लोगों को तात्कालीन राहत मिलेगी. राज्य सरकारों, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, ने वाकई चुस्ती दिखाई है और गैप्स को भरने की कोशिश की है.

हर त्रासदी की तरह इससे भी हम निजात पा ही लेंगे. लेकिन हम कितने कम नुकसान उठाकर इस महामारी से उबर पाएंगे यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार लोगों को कितना राहत पहुंचा पाती है. यही वो समय है जब सरकारों की भूमिका अहम है. क्या ग्लोबल लीडर्स इस चैलेंज को समझ पा रहे हैं?

यह भी पढ़ें: COVID-19 लॉकडाउन: गरीबों की हालत गवाह है कि सरकार के पास विजन नहीं

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 30 Mar 2020,11:07 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT