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मैंने पिछले हफ्ते वैक्सीन ले ली! मुझे वो एंटीबॉडीज मिली हैं जो मुझे और इस दुनिया को कोरोना के डर से जल्द ही छुटकारा दिला सकती है. मैं आपको जोर देकर बताना चाहता हूं कि कैसे मैं परिपक्व निराशा से बचकानी आशा की ओर बढ़ गया हूं.
नए साल के 16वें दिन भारत में वैक्सीनेशन शुरू हो गया. बावजूद इसके मेरा उत्साह जल्द ही ठंडा पड़ गया. हमारी सर्वशक्तिशाली सरकार ने पूरी तरह से इस कार्यक्रम पर एकाधिकार जमाया हुआ था.
45 दिनों तक हमारा वैक्सीनेशन प्रोग्राम, औसतन हर दिन करीब साढ़े तीन लाख डोज की सुस्त रफ्तार से चलता रहा. इस दर से तीन करोड़ फ्रंटलाइन और हेल्थ केयर वर्कर्स को वैक्सीन की छह करोड़ डोज देने में पांच साल लग जाते.
मैं आशाहीनता की ओर और बढ़ने ही वाला था.. जब अचानक सरकार ने एक बड़ा यू टर्न (आत्मसमपर्ण) लेते हुए हार मान ली. “नहीं, तुम नहीं कर सकते” की सख्ती के बाद सरकार ने 48 घंटे के अंदर निजी क्षेत्र के लिए सब कुछ खोल दिया! मैं मजाक नहीं कर रहा. शुक्रवार की रात तक हम एक ऐसे शासन के तहत थे जिसमें हर चीज पर रोक थी और सोमवार को खुल जा सिमसिम हो गया, सब कुछ एक छोटे वीकेंड के दौरान.
अब सबसे ज्यादा खतरे में आने वाले श्रेणी का कोई भी व्यक्ति अपने फोटो पहचान पत्र का इस्तेमाल करते हुए कहीं भी टीका ले सकता था- कोई पाबंदी नहीं, अफसरशाही वाला कोई अगर-मगर नहीं, सिर्फ जाकर वैक्सीन लेने की इच्छा होनी चाहिए थी. अधिकतम कीमत भी आश्चर्यजनक रूप से 250 रुपये प्रति डोज तय की गई, जिससे लाभार्थियों की आंखों में कृतज्ञता के आंसू आ गए और वैक्सीन बनाने वाले गुस्से में आ गए (चलिए, मानवता के लिए न चाहते हुए भी इसे स्वीकार कर लीजिए).
वैक्सीनेशन के दिन की शुरुआत ताजगी भरी हुई. वैक्सीन के बारे में सोचते हुए मेरी रात बेकरारी में बीती. इसकी जरूरत नहीं थी. सब कुछ बिना किसी रुकावट के हो गया (स्वीकारोक्ति-कई खास “दक्षिणी दिल्ली वालों की तरह” हमने एक रेकी करने और हमारा काम आसान करने के लिए पहले एक व्यक्ति को भेजा था.)
हमने अपना टोकन नंबर कलेक्ट किया और वेटिंग रूम पहुंच गए जहां एक दर्जन दूसरे लोग भी टीका लेने का इंतजार कर रहे थे. नर्स ने एक-एक कर सबको बाहर बुलाया, हमारा टेंपरेचर, ऑक्सीजन लेवल और ब्लड प्रेशर चेक किया. सब कुछ एक क्रम के मुताबिक हो रहा था. इसके बाद हमें “जैब रूम” में बुलाया गया जहां एक खुशदिल महिला ने हमारा आधार पहचान पत्र मांगा (उस सुबह तीसरी बार), अपने कंप्यूटर में कई जानकारी नोट की और वैक्सीन लेने के लिए जाने दिया.
वहां से हमें एक दूसरे डेस्क पर ले जाया गया, जहां एक और बार आधार की जरूरत थी. उस नर्स ने हमसे कहा “अगर आपकी सांस फूलती है, मिचली आती है, बुखार होता है या पेट खराब होता है तो 500 मिलीग्राम का क्रोसिन टैबलेट लें. अगर इसके बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो यहां आने की जरूरत नहीं है, लेकिन करीब के किसी भी अस्पताल में जाएं तो आज के टीका लेने की बात बताएं. वो आपकी समस्या दूर करेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है. ”
बाद में उस रात मुझे थोड़ा बुखार और शरीर में दर्द हुआ, लेकिन 48 घंटे के अंदर मैं पूरी तरह फिट था.
अब जब मैं वैक्सीन की दूसरी डोज के लिए चार हफ्ते का इंतजार कर रहा हूं, मैं एक अस्तित्व से जुड़ा सवाल पूछ रहा हूं जो ढाई करोड़ (और तेजी से बढ़ता हुआ) भारतीय और दुनिया के कुछ करोड़ लोग कुछ दिन में पूछेंगे: तो, अब जब हमें एंटीबॉडीज मिल गई है, क्या हम सामान्य जीवन की ओर लौट सकते हैं, प्लीज? नहीं तो इन सब का क्या फायदा? अगर हम ऐसा नहीं करें तो ये एक बड़ा मौका गंवाना होगा, ठीक?
हम सिर्फ सुरक्षित होना नहीं चाहते. हम सामान्य महसूस भी करना चाहते हैं, जैसा कि हम पहले थे.
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