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बिहार के अखबारों ने ठीक उसी तरह से क्वॉरंटीन केंद्रों की खबरों की बैरिकेडिंग यानी सीमाओं पर रोक देने का तरीका अख्यितार किया है, जैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने मजदूरों को अपने राज्य में घुसने से रोकने के लिए सारी सीमाओं को सील कर दिया है. बिहार में जब विभिन्न राज्यों के मजदूरों के आने का सिलसिला शुरू हुआ तो राज्य सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उन मजदूरों को क्वारंटीन केंद्रों में भेजने की थी. और उससे भी बड़ी चुनौती उन महिलाओं, पुरूष मजदूरों और उनके बच्चों के लिए मानवीय स्तर के खाने पीने, नहाने-धोने, शौचालय, साफ सफाई जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की रही है.
हालात ये हैं कि पूरे राज्य में बनाए गए 6209 क्वारंटीन केंद्रों में शायद ही किसी केंद्र में मजदूरों का परिवार वहां के इंतजामों को लेकर संतुष्ट है. राज्य भर के क्वारंटीन केंद्र अखबारों के लिए खबरों का भी केंद्र बने हुए हैं. क्वारंटीन केंद्रों की खबरों से अखबारों के पन्ने भरे रहते हैं.
बिहार में दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, दैनिक भास्कर जैसे अखबारों के 35-35 जिला संस्करण छप रहे हैं. हिन्दुस्तान के एक जिला ब्यूरो के प्रमुख ने बताया कि उनके जिला संस्करण में रोजाना क्वारंटीन केंद्रों की खबरों से पूरा एक पन्ना भर जाता है. लगभग इतनी ही संख्या में क्वारंटीन केंद्रों की खबरें सभी प्रमुख अखबारों में होती है. लेकिन बिहार की राजधानी पटना से निकलने वाले इन अखबारों के मुख्य संस्करणों को देखें तो पूरे राज्य में क्वारंटीन केंद्रों को लेकर उल्टी गंगा बहती दिखाई देती है।. नमूने के तौर पर निम्न समाचार को देखा जा सकता है.
पटना से निकलने वाले इन अखबारों को देखकर लगता है कि क्वारंटीन केंद्रों में अराजकता, बदइंतजामी, भ्रष्टाचार जैसी शिकायतें नहीं है. और ना ही ये जानकारी मिल सकती है कि क्वारंटीन केंद्रों पर मजदूर परिवारों के भीतर असंतोष और विरोध जैसी घटनाएं रोजाना बड़ी तादाद में घटित हो रही है.
बिहार में मीडिया ने यह एक नया तरीका निकाला है कि खबरें उन्हें ही दी जाएं जो कि खबरों के किरदार हैं. खबरों को नीति निर्माताओं तक पहुंचाने की जिम्मेदारी से बिहार में मीडिया ने पल्ला झाड़ लिया है. बिहार के अखबारों में जिन जिलों के क्वारंटीन केंद्रों में शिकायतों और बदइंतजामी को लेकर मजदूरों के विरोध की खबरें होती है, उन्हें उसी जिले की सीमाओं में रोक लिया जाता है.
यूएनआई से सेवानिवृत हुए पार्थिव कुमार ने बताया कि समाचार एजेंसियों में यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है. लेकिन दो तरह की स्थितियां इस प्रथा को रोकती है.
पाठकों को नुकसान यह हुआ है कि उनकी परेशानियां नीति निर्धारकों तक नहीं पहुंच पाती है और एक जिले के पाठकों की परेशानियों से दूसरे जिलों के पाठक नहीं जुड़ पाते हैं. अखबार एक जिले को छोड़कर पूरे राज्य भर के पाठकों के लिए उस खबर को गुमा देते हैं.
क्वारंटीन केंद्रों की खबरों को एक जगह एकत्रित किया जाता हैं तो जिला, प्रखंड और पंचायत स्तर के क्वारंटीन केंद्रों में बदइंतजामी और अव्यवस्था के साथ उसके विरुद्ध लोगों के आक्रोश की हर दिन बड़ी खबर राजधानी के मुख्य संस्करणों के लिए तैयार हो सकती है. क्वारंटीन केंद्रों के लिए जो नीतियां बनाई गई हैं उन नीतियों को बदलने के लिए सरकार पर एक दबाव बन सकता है.
राज्य के क्वारंटीन केंद्रों में गर्मी के दिनों में हजारों लोगों के लिए पानी, बिजली, तीनों वक्त का खाना, महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था के अलावा मास्क , सेनेटाइजेशन आदि की व्यवस्था भी करनी है. और इन सबके लिए प्रत्येक मजदूर पर खर्च करने का बजट लगभग सौ रुपये हैं. उनमें साठ रुपये तीनों वक्त के लिए खाने का इंतजाम करने के लिए हैं.
क्वारंटीन केंद्रों पर एक दूसरे से शारीरिक रुप से दूरी बरतने का इंतजाम संभव नहीं हो पा रहा है क्योंकि रोजाना हजारों की तादाद में मजदूर बिहार पहुंच रहे हैं. जहां एक हजार लोगों के रहने की व्यवस्था है, वहां चार हजार की संख्या में लोग रह रहे हैं.
बिहार के क्वारंटीन केंद्रों में खाने पीने के इंतजाम को लेकर सबसे ज्यादा शिकायतें आ रही हैं. यह शिकायतें सभी अखबारों के जिला संस्करणों में खबरों के रुप में प्रकाशित भी हो रही है लेकिन अखबार के वे मुख्य संस्करण इन खबरों से दूरी बनाए हुए हैं जो कि नीति निर्धारकों की टेबल तक पहुंचते हैं और उन नीति निर्धारकों के आसपास रहने वालों के पास पहुंचते हैं. उनमें राज्य के विरोधी दलों के नेताओं के मुख्यालय भी शामिल हैं.
वरिष्ठ पत्रकार पार्थिव कुमार ने बताया कि विभिन्न जगहों पर होने वाली एक तरह की घटनाओं को एकत्रित करने की यह प्रथा सभी तरह की खबरों के साथ लागू नहीं होती है. सामाजिक और आर्थिक रुप से कमजोर वर्गों के साथ जगह जगह होने वाली घटनाओं को एकत्रित कर एक प्रभावशाली खबर के रुप में प्रस्तुत करने से अक्सर बचा जाता हैं.
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