मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019 पूरे देश में लॉकडाउन, क्या पुख्ता है कोरोना से लड़ने का प्लान?  

पूरे देश में लॉकडाउन, क्या पुख्ता है कोरोना से लड़ने का प्लान?  

कुछ बड़े सवालों का जवाब देना बाकी है

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
कुछ बड़े सवालों का जवाब देना बाकी है
i
कुछ बड़े सवालों का जवाब देना बाकी है
(फोटोः Altered By Quint)

advertisement

मोदी@8 के नये एपिसोड के प्रसारण की जानकारी के बाद से ही यह साफ था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से उठाए गये कदमों और घोषित मानदंडों पर आगे बढ़ेंगे ताकि कोरोना की महामारी से मुकाबला किया जा सके.

जल्द ही मैं परचून और दूसरी आवश्यक चीजों की कमी दूर कर लेने और ईंधन की टंकी फुल करने के दोहरे मकसद के साथ घर से बाहर निकल गया. दूरदर्शिता होती तो दूसरे काम (टंकी फुल करने) को नहीं भी किया जा सकता था- लॉकडाउन के समय कोई कहां जा सकेगा? लेकिन इंसान का दिमाग, अगर वह प्रधानमंत्री का या फिर उनके सहायकों का नहीं है तो वह तर्कहीन बातों का बहाना भी ढूंढ़ लेता है.

एक पत्रकार की तरह जिज्ञासु होकर लौटते समय मैंने मेन रोड पकड़ ली. यह सड़क राजधानी से जुड़ती और धमनी समझे जाने वाली दो बड़ी हाईवेज को जोड़ती है. यह दिल्ली के पूर्वी हिस्से में स्थित अंतरराज्यीय बस अड्डे पर खत्म होती है.

पांच या छह की कतार में सैकड़ों लोग घूम रहे थे. 20 और 30 साल से ऊपर के जवान जिनमें कुछ के साथ महिलाएं और बच्चे भी थे, जो एक-दूसरे को थामे हुए थे. ज्यादातर के हाथों में टांगने वाले थैले थे जबकि कई के पास सस्ते थैले, बिना ब्रांड वाली स्ट्रॉली (सामान ढोने के लिए पहिए वाला कैरियर) या सस्ते लटकाने वाले थैले थे. वे थके हुए थे, धूप में पसीने बह रहे थे क्योंकि इन दिनों सूर्य प्रचंड होने लगा है.

वे उस जगह से गुजरे जहां सामान्य तौर पर शेयर ऑटो की सांसें रोक देने वाली ट्रैफिक होती हैं. मंगलवार को वहां कोई नहीं था. भारत में बड़े स्तर पर पलायन का हिस्सा यही लोग हैं. जरूर उन लोगों से आखिरी बस छूट गयी थी और अब उनके पास पैदल चलने के सिवा कोई चारा नहीं था. उनकी चाहत थी कि कोई खाली ट्रक मिल जाता जो उन्हें उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड के सुदूर इलाकों में अवस्थित उनके घरों तक पहुंचा देता.

इन लोगों को देखकर दिमाग में बात आयी जब मोदी ने गुरुवार को विस्तार से बताया था और उन्होंने नागरिकों से उनके जीवन के कुछ हफ्ते मांगे थे, तो उनके कहने के मायने क्या थे. प्रधानमंत्री के भाषण का हर पहलू भावनाएं जगा रहा था.

मोदी ने जबकि 1.3 अरब लोगों के लिए या फिर ज्यादातर भारतीयों के लिए अपनी चिंता जतायी, एक वाजिब चिंता भी जग उठी. क्या ऐसे लोगों के बारे में सोचा गया था जो लम्बे समय तक पीड़ित रहने को अभिशप्त रहने, व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था के ढह जाने या बच्चों की शिक्षा तबाह हो जाने के प्रतीक हैं? क्या राष्ट्रव्यापी लॉकडॉन की योजना बनाने और उसकी घोषणा करते समय प्रधानमंत्री के दिमाग से ये लोग निकल गये? या फिर सोच समझकर शासन ने इसका आकलन कर लिया है कि संकट से इस लड़ाई में, जो निस्संदेह आजादी के बाद की सबसे राक्षसी चुनौतियां हैं, समान रूप से सबका नुकसान होगा?

प्रधानमंत्री का राष्ट्र को संबोधन, इससे पहले या फिर बाद में भी तीनों महत्वपूर्ण अवसरों पर घबराहट दिखीं. यह दूसरा अवसर है जबकि ‘आज रात 12 बजे से’ या फिर आज आधी रात से जसे मुहावरों ने लोगों को कंपकंपा दिया है. अपने भाषण के मध्य तक वे बमुश्किल पहुंचे थे कि परिवारों ने अपने-अपने सदस्यों को जो कुछ बन पड़े समेट लेने के लिए रवाना कर दिया ताकि घर में अधिक से अधिक समय तक स्टॉक बना रहे.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

लोगों की नब्ज पकड़ने में मोदी नाकाम रहे

भारत की जनता को और भी अधिक स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए था जब मोदी ने एकसमान रूप से तीन हफ्ते के लिए पूरी तरह लॉकडॉन पर जोर दिया और लोगों को आश्वस्त किया कि सभी आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति जारी रहेगी.

इसका कोई मतलब नहीं होता कि लॉकडॉन के दौरान उठाए जाने वाले कदमों पर दिशा निर्देश अलग से जारी किए जाएंगे और प्रधानमंत्री अपने भाषण में बस हल्के में इसका उल्लेख भर कर दें.

जब पिछले आह्वान पर जनता ने जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दिखलायी हो तो ऐसे में एक अच्छा नेता इनकार के भाव में नहीं हो सकता. मोदी ने जनता कर्फ्यू के दौरान ‘थाली बजाओ’ के कदम पर जनता के सहयोग का किस तरह इस्तेमाल किया, जबकि भीड़ में इकट्ठा होने पर वे लोगों को डांटने पर भी विवश हुए थे.

लेकिन, एक व्यक्ति के तौर पर जिसके पास जनता की नब्ज पढ़ने का दशकों का अनुभव है, मोदी ने अपने कार्यालय को यह समझने में नाकाम कर दिया कि जनता की कार्रवाई कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के तौर पर सीमित नहीं रहेगी. इसके बजाए यह मोदी में विश्वास और अंधविश्वास का प्रकटीकरण बना जाएगा.

वर्षों बाद जब भविष्य के इतिहासकार इन कठिन समय की तस्वीरों की तुलना करेंगे, तो इस बात का उल्लेख होगा कि एक नेता के संयम और निषेध के आह्वान पर बेवजह भीड़ उमड़ पड़ी और फिर उसे ही कुचल दिया गया, वास्तव में जो एक ‘इवेंट’ साबित हुआ. अब भी, मोदी ने कहा है कि जिन लोगों ने उनके आग्रह को माना और निषेध पर अमल किया, वे प्रशंसा के पात्र हैं.

कम से कम उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि डॉक्टरों, नर्सों और महामारी से लड़ने वाले दूसरे लोगों लोगों का आभार जताते हुए कई लोगों ने सीमाएं लांघीं और न सिर्फ खुद के लिए, बल्कि औरों के लिए जोखिम पैदा किया.

कुछ बड़े सवालों का जवाब देना बाकी है

यह देखते हुए कि भारत जोखिम के भंवर में डुबा हुआ है पूरी तरह लॉकडॉन के फैसले को गलत नहीं ठहराया जा सकता. कोविड-19 के संक्रमण को रोकना होगा और इसमें अब तक चिकित्सीय रूप में कोई कामयाबी नहीं मिली है. ऐसे में सोशल डिस्टेन्सिंग यानी सामाजिक दूरी एक मात्र रास्ता है जिस पर चलना होगा. लेकिन इसके अलावा भी मुद्दे हैं जिन पर साथ-साथ ध्यान देना होगा.

सबसे बड़ी चिंता आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता है जिसे एक शासकीय अधिकारी के नोट में बताया गया है. इसके बाद जो बड़ी चिंता रह जाती है वह है कि कितने प्रतिशत भारतीयों के पास तीन हफ्ते तक खुद को बचाए रखने के लिए रकम जमा है (या फिर बैंक खातों में है) और इनमें से कितनों के पास अपने परिवार के लिए यह बचत है? एक बार जब यह खतरा खत्म हो जाता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था को दोबारा शुरू करने के लिए कौन सी योजना बनायी जा रही है?

बीते 10 दिनों में लगातार इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि ज्यादातर भारतीय श्रमिक वर्ग असंगठित क्षेत्र में हैं और एक मजदूरी छोड़कर वे दूसरी मजदूरी करते हैं. यह दौर बेशर्म कारोबारियों और साहूकारों के हाथों ऐसे लोगों के शोषण के लिए एक बार फिर तैयार है.

जब व्यक्ति तनाव में होता है तो भूख खत्म हो जाती है. अगले कुछ दिनों के भीतर अधिसंख्य भारतीयों के चेहरों पर कुछ निश्चित भाव आएंगे. कोई नहीं जानता कि उथल-पुथल कितनी दूर तक होगी और देश किस तरह के संघर्ष का इंतजार कर रहा है.

दिल्ली या फिर कुछ अन्य महानगर भारत नहीं हैं जो दिन की ही तरह रात में जीते हैं. इसके अलावा क्या राज्य में उस बाध्यता को लागू करने की आवश्यकता है जिसे मोदी ने ‘कर्फ्यू जैसा’ प्रतिबंध बताया है और उनकी असफलता के बाद पुलिस को कैसे कदम उठाने के निर्देश दिए गये हैं? क्या उल्लंघन करने वालों को गिरफ्तार किया जाएगा, उन्हें तंग हाजत में डाल दिया जाएगा क्योंकि उन्होंने सोशल डिस्टेन्सिंग का मजाक उड़ाया है?

क्या COVID-19 से निपटने में सरकार सफल हो पाएगी ?

चिंता यह है कि राष्ट्र के नाम संबोधन में 21 दिनों के सम्पूर्ण लॉकडॉन के बाद संभावना यही है कि नोटबंदी की राह पर चीजें आगे बढ़ेंगी. नवंबर 2016 में पहली बार इसकी घोषणा के बाद यह बात सामने आयी थी कि पूरी प्रक्रिया और इससे उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में पूरी तरह सोचा नहीं गया था. लगातार मकसद बदले जाते रहे.

कोरोना की महामारी को झेलते हुए राष्ट्र इसे शायद ही सहन कर सके.

देश को राजनीतिक नेतृत्व से अलग-अलग मोर्चों पर आश्वस्ति प्रदान करने वाले हस्तक्षेप और नेतृत्व की आवश्यकता है. 1918-19 में जब भारत में सबसे बड़ी महामारी स्पैनिश फ्लू की वजह से तकरीबन 6 प्रतिशत भारतीय आबादी खत्म हो गयी थी, लेकिन उसमें महत्वपूर्ण बात यह थी कि 94 फीसदी बच गये थे और उनमें महात्मा गांधी जैसे महानायक भी थे.

इस सरकार की निश्चित रूप से सराहना होनी चाहिए कि इसने मौत के आंकड़े को चिंताजनक स्तर तक नहीं पहुंचने दिया है. लेकिन यह भी लगातार याद दिलाते रहने की जरूरत है कि सरकार ऐसे कदम उठाए जिससे अधिक से अधिक लोग जिन्दा रहें और महामारी के अंत तक बचे रहने के लिए उनमें घोड़े जैसी ताकत आ सके. इसके लिए उनका बेहतर ख्यान रखना जरूरी होगा.

आधी रात के करीब जब मैं यह लेख पूरा करने जा रहा हूं पुलिस जीप हुटर बजा रही है और मेरी बहुमंजिली इमारत के नीचे कुत्ते भौंक रहे हैं. मेरी बालकनी से दृश्य डरावना मगर सुरक्षित है. मैं नहीं चाहता मगर आंखें भींचने लगती हैं जब सोचता हूं कि अगर सैकड़ों लोग आएं तो उन्हें आश्रय मिलेगा या नहीं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 25 Mar 2020,06:01 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT