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‘कोरोनावायरस चीन में बना जैविक हथियार है’-समझिए ये झूठ क्यों है 

वैज्ञानिक सच्चाई ये है कि आज तक मनुष्य अपनी प्रयोगशालाओं में किसी भी नये जन्तु का निर्माण नहीं कर पाया है.

मुकेश कुमार सिंह
नजरिया
Published:
दुनियाभर में तीन लाख से ज्यादा लोगों के कोरोनावायरस से संक्रमित होने की पुष्टि हुई है
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दुनियाभर में तीन लाख से ज्यादा लोगों के कोरोनावायरस से संक्रमित होने की पुष्टि हुई है
(फोटो: iStock)

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ये बहुत बड़ा झूठ है कि कोरोनावायरस को चीन या अमेरिका ने अपने किसी जैविक हथियार के रूप में विकसित किया था, लेकिन दुर्भाग्यवश वो प्रयोगशालाओं के तालों और दीवारों को चकमा देकर निकल भागा और अब सारी दुनिया में नरसंहार कर रहा है. जबकि वैज्ञानिक सच्चाई ये है कि आज तक मनुष्य अपनी प्रयोगशालाओं में किसी भी नये जन्तु का निर्माण नहीं कर पाया है. लिहाजा, कोरोनावायरस को किसी जैविक हथियार के रूप में पेश करना पूरी तरह से झूठ और भ्रामक है.

इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना वायरस के परिवार में COVID-19 एक नया सदस्य है. लेकिन इसकी जननी प्रकृति या कुदरत ही है. वैज्ञानिकों ने बैक्टीरिया और वायरस जैसे घातक सूक्ष्म जीवों को मारने की दवाएं तो तैयार की हैं, जेनेटिक बदलाव करके कई जीवों की प्रकृति में बदलाव करने में भी सफलता पायी है, लेकिन किसी नये जीव की रचना करने में उसे अभी तक कामयाबी नहीं मिली है. फिर चाहे ऐसे सूक्ष्म जीव इंसानों के लिए फायदेमन्द हो या नुकसानदायक.

इंसान अभी तक सिर्फ क्लोन पैदा कर सका है, टेस्ट ट्यूब में निषेचन (fertilization) करवा सका है, लेकिन वो शुक्राणु या अंडाणु को प्रयोगशाला में बना नहीं सका है. क्लोन को नया जीव नहीं माना गया है. बल्कि ये महज डुप्लीकेट है. ओरिजनल जैसे गुणों वाला डुप्लीकेट. लेकिन इस डुप्लीकेट को कभी भी ओरिजनल और स्वतंत्र नहीं माना गया.

क्या हैं जैविक और रासायनिक हथियार?

जैविक और रासायनिक अलग-अलग चीजें होती हैं. सारी दुनिया में इसके निर्माण पर इस्तेमाल पर परमाणु हथियारों से भी कहीं ज्यादा सख्त पाबंदी है. जैविक हथियार वो हैं जो ज्ञात घातक जन्तुओं या बीमारियों के संक्रमण के रूप में दुश्मनों पर फेंके जा सकते हैं. जैसे, चेचक के विषाणु. लेकिन इसकी भी कई प्रजाति हैं. जैसे small pox, chicken pox, measles... इसमें से small pox का टीका विकसित करके इसे सारी दुनिया से मिटाया जा चुका है. ऐसे ही हैजा, प्लेग, टीबी जैसी बीमारियां काबू में हैं. लेकिन यदि कोई देश प्रयोगशालों में इनके कीटाणुओं की संख्या को बढ़ाकर उससे दुश्मन देश को संक्रमित करना चाहे तो ये प्रक्रिया जैविक हथियार कहलाएगी. यहां दिलचस्प बात ये है कि small pox के वायरस दुनिया की तमाम प्रयोगशालाओं में सुरक्षित रखे गये हैं. अब अगर कोई इनका हमला दुश्मन देश पर कर दे तो इसे जैविक हथियार से हमला माना जाएगा.

दूसरी ओर रासायनिक हथियार का मतलब है युद्ध में ऐसे जहरीले कैमिकल को दुश्मन पर फेंकना जिससे उसे जान-माल का भारी नुकसान हो, जिसमें मासूम सिविलियन्स की ज्यादा मौत होने का खतरा हो. रासायनिक यौगिक (compounds) तो प्रयोगशालाओं में ही बनते हैं, फिर चाहे ये गैस हों या द्रव या ठोस. इनका निर्माण हमेशा उन प्राकृतिक पदार्थों से होता है जिन्हें कुदरत ने बनाया है. मनुष्य तो सिर्फ यौगिक बनाना जानता है. नये जीव की तरह नया तत्व बनना हमेशा इसके बूते से बाहर ही रहा है.

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अब जरा कोरोना से जुड़े सबसे बड़े झूठ की सच्चाई समझते चलें. कोरोना एक अति-सूक्ष्म जन्तु है.

जीव विज्ञान की परिभाषाओं के मुताबिक, वायरस (विषाणु) और बैक्टीरिया दोनों ही सूक्ष्म जीव हैं. प्रकृति या कुदरत ही दोनों की जननी है. दोनों संक्रामक हैं. दोनों परजीवी हैं. यानी इन्हें पनपने के लिए अन्य प्राणियों के सम्पर्क में आना पड़ता है. दोनों में सबसे बड़ा फर्क ये है कि बैक्टीरिया जन्मजात तौर पर सजीव होते हैं. इनका प्रसार भी सजीव के रूप में ही होता है. जबकि वायरस बुनियादी तौर पर स्वतंत्र और निर्जीव होता है. लेकिन किसी सजीव प्राणी के सम्पर्क में आने पर थोड़े समय में ही इसमें सजीवों वाले गुण पनप जाते हैं.

एक बार सजीव बनने के बाद वायरस का भी जैविक विभाजन और विस्तार होने लगता है. लेकिन नवजात वायरस भी अपने पैतृक स्वभाव की वजह से तब तक निर्जीव ही बना रहता है जब तक कि वो किसी सजीव प्राणी में प्रवेश करके वहाँ फलने-फूलने ना लगे. सजीव के सम्पर्क के आने के बाद जल्द ही ये भी सजीव बन जाता है.

मानव शरीर में एक ही तरह के लक्षण दिखाने वाले फ्लू और इन्फ्लूएंजा के वायरसों की 200 से भी अधिक ज्ञात किस्में हैं. इनके गुण-धर्म एक जैसे नहीं होते इसीलिए वैज्ञानिक मनुष्यों में फ्लू पैदा करने वाले वायरसों का आज तक कोई ऐसा टीका नहीं विकसित कर पा सके जो हरेक तरह के वायरस पर प्रभावी हो.

वायरस की उम्र 4-6 दिन से ज्यादा नहीं होती है

रोचक बात ये भी है कि चाहे जिस तरह का वायरस हो उसकी जिन्दगी यानी उम्र चार-छह दिन से ज्यादा की नहीं होती है. इसीलिए इससे पैदा होने वाली तकलीफें भी हफ्ते-दस दिन बाद दूर होने लगती हैं. इस दौरान शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वायरसों के लक्षणों से ख़ुद को उबार ही लेती है. इसीलिए वायरसों को तब तक जानलेवा नहीं माना जाता जब तक कि वो अन्य बीमारियों से पीड़ित मरीजों की दशा में और बेकाबू ना बना दे. इसीलिए, डॉक्टरों को बस वायरस के पीड़ित मरीजों को कष्टकारी लक्षणों को काबू में रखना होता है और वो इसके लिए ही दवाइयां देते हैं.

दूसरी चुनौती होती है, वायरस को फैलने से रोकना. इसके लिए ही अत्यधिक साफ-सफाई और सम्पर्क-विहीनता पर ज़ोर दिया जाता है. अगर वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलेगा नहीं तो अपनी अल्प-आयु की वजह से भी खुद ही बेअसर बन जाएगा. दूसरी ओर, बैक्टीरिया अपनी वृद्धि स्वतंत्र रूप से करता है. इसीलिए इसके संक्रमण और दुष्प्रभाव की रोकथाम के लिए डॉक्टर को एंटी बायोटिक दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है. कमजोर शरीर पर बैक्टीरिया से पीड़ित होने की आशंका ज़्यादा रहती है. कोई मरीज बैक्टीरिया और वायरस दोनों से पीड़ित हो सकता है. इसीलिए डॉक्टरों को एंटी बायोटिक दवाओं की निर्धारित खुराक यानी कोर्स के जरिये बैक्टीरिया का सफाया करना पड़ता है. ये दवाएं शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं. बैक्टीरिया के गुण-धर्मों की वजह से उनके टीके बना पाना सम्भव हुआ है जबकि यही काम वायरस के लिए कर पाना हमेशा से बेहद कठिन साबित हुआ है.

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