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महामारी चली जाएगी-आह रह जाएगी,क्या होगा जो हम ये दर्द भुला न पाए  

इतिहास खुद को दोहरा रहा है, कई तरीकों से. कुछ मौतें दूसरों के मुकाबले सस्ती पड़ रही हैं

निष्ठा गौतम
नजरिया
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(फोटो: क्विंट)
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आज मैं सबसे विषाद ग्रस्त पंक्तियां लिख सकती हूं

महाकवि पाब्लो नेरूदा ने हर परिस्थिति में मेरे लिए काम किया है. लेकिन आजकल ऐसा नहीं हो रहा और इस पर हैरत नहीं होनी चाहिए. आजकल वैसे भी कुछ काम नहीं कर रहा. सरकारी पोर्टल, अस्पतालों के नंबर, मंत्री साहब की सिफारिश, कालाबाजारियों से खरीदी गईं महंगी दवाएं, खराब ऑक्सीजन कॉन्सेनट्रेटर्स.

शहरों पर सामूहिक दुख का साया मंडरा रहा है, वह मातम का आदी होता जा रहा है, ऐसा लगता है, सभी शोक में हैं, लेकिन कोई शोक नहीं मना रहा. चूंकि शोक मनाने की बजाय कुछ और करने की जरूरत है, कोई दूसरी जिंदगी बचानी है, या किसी दूसरे प्रियजन का अंतिम संस्कार करना है.

हमें दुख के बारे में बात करने की जरूरत है

हममें से बहुत से लोग, देश के आला दर्जे का राजनैतिक नेतृत्व भी, तब बहुत खफा हुआ था, जब हमारी तकलीफों से अंतरराष्ट्रीय अखबार रंगे हुए थे. जब ‘गिद्धों’ ने हमारी तकलीफों को नोंचा-खसोटा था, तो हमें लघुता का एहसास हुआ था, लेकिन आज वही लोग दम साधे बैठे हैं, जब भूखे परिंदे और पशु मृत शरीरों की चीर फाड़ कर रहे हैं- क्योंकि उन शरीरों का अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता.

दरिद्र परिवारों के पास अपने सगे संबंधियों को सम्मानजनक तरीके से विदाई देने के लिए न तो संसाधन हैं और न ही सामाजिक संपर्क. यह दायित्व उस गंगा नदी को सौंपा गया है, जो सबके पाप धो देती है, क्या इन हालात में दुख मनाया जा सकता है?

लेकिन फिर भी हमें दुख और तकलीफों के बारे में बात करनी चाहिए. हममें से कई ऐसा कर भी रहे हैं. मौत की आहट सुनकर कई मरीजों ने अपनी आखिरी जंग को तस्वीरों, वीडियो क्लिप और शब्दों में दर्ज किया है. उनके जाने के बाद परिवार वाले उन ‘कृतियों’ को वायरल कर रहे हैं. उन्हें व्यक्तिगत, परंपरागत तरीके से अफसोस जताने की इजाजत नहीं, तो विदाई देने के इस नए तरीके ने शोक संतप्त परिवारों के बीच एक पुल का काम किया है. सोशल मीडिया पर दबे-घुटे स्वरों में दुआएं मांगी जा रही है, जो लोग अभी सांसें भर रहे हैं, उनकी खैरियत के लिए पैगाम भेजे जा रहे हैं.

जैसे सब कुछ रंगमंच पर घट रहा है

दुख को नापा-तौला नहीं जा सकता, लेकिन दूसरी कुछ चीजों को गिना जा सकता है. 1918-19 में स्पैनिश फ्लू को याद कीजिए जिसने देश की एक बड़ी आबादी को लील लिया था, पर सरकारी आंकड़ों में प्रभावित लोगों की संख्या का सही-सही जिक्र नहीं मिलता.

इतिहास खुद को दोहरा रहा है, कई तरीकों से. कुछ मौतें दूसरों के मुकाबले सस्ती पड़ रही हैं. उत्तर प्रदेश के एक गांव में दस दिनों में 15 मौतें हुईं. सरकारी आंकड़ों में इनके लिए दिल के दौरे को जिम्मेदार बताया जा रहा है. यानी, इन आंकड़ों की मानें, तो एक और महामारी ने पैर पसार लिया है.

यह भी दिलचस्प है कि किस तरह शोकाकुल परिवार यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि त्रासदी ने उनके दरवाजे पर भी दस्तक दी है. जैसे, विपदा का मंचन नाट्यशाला में हो रहा है, और हम सिर्फ उसके दर्शक भर हैं.

कोई कहता है, फ्रिज का ठंडा पानी पी लिया था, क्या वह कोई रहस्यमय हत्यारा हो सकता है? सिर्फ गले में खराश, बुखार, छाती में भारीपन, सांस घुटना, कमजोरी, और फिर मौत.

शायद, किसी ने आफत से मुकाबले करने का यही तरीका अख्तियार कर लिया है. सच्चाई सवाल खड़े कर सकती है- इनसानों से और व्यवस्था से भी, अगर हम सच्चाई को स्वीकार न करें, तो वह हम पर असर नहीं करेगी. पर क्या ऐसा सचमुच है? उसने असर तो किया है.

हमें इस दुख से पार पाने के लिए उस खुमारी की जरूरत है, जिसमें हमें सब भला चंगा लगने लगे. कौन जाने, सरकार को भी ऐसी ही मदहोशी की जरूरत है!
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यादें और तकलीफें

यादें दिल्लगीबाज होती हैं, देश के इतिहास की दरारों को व्यक्तिगत स्मृतियों के गारे से भरने की कोशिश की जाती है. जब सत्ता नहीं चाहती कि इन दरारों को भरा जाए तो वह इन व्यक्तिगत स्मृतियों को झूठा साबित करना चाहती है. फिलहाल वह नहीं चाहती कि देश के जेहन में नए संसद भवन के निर्माण की यादें जिंदा रहें. खासकर उस वक्त, जब राजधानी दिल्ली ऑक्सीजन के लिए तड़प रही है. इसी से सेंट्रल विस्टा कंस्ट्रक्शन साइट की फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी पर पाबंदी लगा दी गई है.

यादें सुविधानुसार. जब भारत में कोविड के मामलों और मौतों की संख्या आसमान छू रही है, हमें ‘पॉजिटिविटी’ की याद दिलाई जा रही है. यह कोशिश की जा रही है कि हम अपने दुखों को भूल जाएं. शासकों ने हालात से मुकाबला करने का यही नायाब तरीका खोजा है. चूंकि वे हर पैमाने पर फिसड्डी साबित हुए हैं. हमें बताया जा रहा है कि सिर्फ पॉजिटिविटी को याद रखें- पॉजिटिव मामलों को नहीं.

यादें विचित्र होती हैं. हर बार जब नया मर्सिया पढ़ा जाता है, तो पुराने को भुला दिया जाता है. हर जगह भीड़ है- अस्पतालों, वैक्सीनेशन सेंटर्स में, मुफ्त खाने के स्टॉल पर, और गमगीन दिलों के भीतर भी. हम वादा करते हैं कि सब कुछ याद रखा जाएगा. हम वादा करते हैं कि जब ‘सब कुछ खत्म हो जाएगा’ तो हम बाकायदा दुख मनाएंगे. तब तक के लिए मन के किसी कोने में यादों को सहेजे रखना है- मौजूदा वक्त की हर छवि के साथ.

यह व्यवस्था इसी मातम से घबराई हुई है

“क्या मैं सरकार हूं? मुझे उसका काम क्यों करना पड़ रहा है?”
“क्या हम जो कर रहे हैं, वह काफी है?”
“इस सबका क्या मतलब है? हम कोई फर्क पैदा नहीं कर सकते?”
“हम एक जिंदगी नहीं बचा पाए और यह हमेशा हमारी अंतरात्मा को कचोटता रहेगा.”

मातम के हर एहसास को खामोश होने में बरसों लगेंगे- शायद पूरी जिंदगी.

शासन, सरकार, या ‘व्यवस्था’ दरअसल इसी बात से डरी हुई है. हर बार की तरह, शायद लोग भूल न पाएं कि उन्होंने कब और कितना दुख झेला है. इसीलिए शायद लोगों को बरगलाने के लिए रात दिन ऐलान किए जाते हैं- बेढंगे इलाज बताए जाते हैं, बेहूदी घोषणाएं की जाती हैं.

क्या होगा, अगर लोग अपनी तकलीफ भूल न पाएं?

क्या होगा, अगर लोग भूल न पाएं कि उन्हें मातम मनाने के हक से भी महरूम रखा गया?

चेक लेखक मिलान कुंदेरा ने कहा है- “सत्ता के खिलाफ इनसान का संघर्ष, विस्मृतियों के खिलाफ स्मृतियों का संघर्ष है.”

आखिर कोविड जैसी महामारी की परिणति दुख और तकलीफ ही है, जोकि आंसुओं, खून और पसीने के रूप में नजर आ रही है, साथ ही इस तकलीफ की यादों में भी.

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