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मुंबई हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने रेप के आरोपी जिस शख्स की अग्रिम जमानत को ठुकरा दिया था, उससे चीफ जस्टिस यानी सीजेआई ने जो सवाल किया, उसकी हर तरफ आलोचना हुई. उस शख्स ने औरंगाबाद बेंच के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो मामले की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने उससे पूछा कि क्या वह रेप सर्वाइवर से शादी करने को तैयार है. अगर वह ऐसा करता है तो उसे जमानत मिल जाएगी और उसकी सरकारी नौकरी भी. रेप के वक्त सर्वाइवर नाबालिग थी. इस सवाल पर कई सवाल उठे. तीखी टिप्पणियां की गईं.
सीजेआई की आलोचना इसलिए नहीं की गई थी, क्योंकि उन्होंने आरोपी और सर्वाइवर की शादी का आइडिया दिया था.
मुद्दा कुछ और था. चूंकि रिकॉर्ड्स में साफ लिखा था कि ऐसा सेटलमेंट पहले किया गया था. नाबालिग सर्वाइवर और उसकी मां को ऐसे कागज पर साइन करने के लिए मजबूर किया गया था जिसमें कहा गया था कि दोनों के बीच रजामंदी का रिश्ता था. इसके बावजूद सीजेआई को वही रास्ता अख्तियार करना मुनासिब लगा.
आरोपी सर्वाइवर से शादी कर ले, इस आधार पर रेप के मामलों में जमानत देना या एफआईआर को रद्द करना, खुद सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ है.
इसकी वजह यह है कि रेप जैसा अपराध सिर्फ किसी महिला के खिलाफ ही नहीं, पूरे समाज के खिलाफ है. इसीलिए इसे दो पक्षों के बीच सेटल नहीं किया जा सकता. इसके अलावा, सर्वाइवर की रजामंद थी या नहीं, इस सच्चाई का पता लगाना बहुत मुश्किल होता है.
इससे सर्वाइवर पर भी अतिरिक्त दबाव पड़ता है, क्योंकि हो सकता है, यह दबाव आरोपी या उसके परिवार वाले उस पर डाल रहे हों. इस तरह के अभ्यास की आलोचना दिल्ली हाई कोर्ट और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट्स भी कर चुके हैं. उन्होंने कहा है कि अगर इसकी मंजूरी दी जाएगी तो आगे भी आरोपी सर्वाइवर पर सेटेलमेंट करने के लिए दबाव डाल सकते हैं या उनके साथ जबरदस्ती कर सकते हैं.
सुप्रीम पहले के कई फैसलों में कह चुका है कि रेप जैसे जघन्य अपराधों में, जिन्हें राज्य के खिलाफ अपराध माना जाता है, दो पक्षों के बीच सुलह होने के बावजूद क्रिमिनल प्रॉसीक्यूशन पर कोई असर नहीं होता. इसके बाद भी गुजरात हाई कोर्ट ने नाबालिग लड़कियों के रेप और फिर उनसे शादी करने के दो मामलों में एफआईआर को रद्द कर दिया.
ऐसे मामलों को अक्सर इस लिहाज से देखा जाता है कि सर्वाइवर को हिफाजत की जरूरत है- समाज की इज्जत को औरत की ‘सेक्सुअल इंटिग्रिटी’ यानी उसकी ‘पवित्रता’ से जोड़कर देखा जाता है. चूंकि पित्तृ सत्ता कहीं गहरे तक पैठी हुई है. इसी से अदालतों में न्यायधीशों को महसूस होता है कि वे लोग उस औरत की फिक्र कर रहे हैं जिसकी रेप के बाद शादी नहीं हुई और उसकी जिंदगी को बेहतर बनाने का एक ही तरीका है- उसे उस शख्स से ब्याह दिया जाए जिसने उसका रेप किया (क्योंकि वह शादी नहीं करेगा, तो कौन करेगा?) ज्यादातर मामलों में न्यायधीशों ने आदमियों से यही पूछा है कि क्या वे उस औरत से शादी करना चाहेंगे जिसका रेप हुआ है (जैसा कि सीजेआई ने भी पूछा).
यह उलझन पैदा करता है, और मर्दवादी सोच का ही नतीजा है. आपको लगता है कि औरत (या बच्ची) को अपनी पूरी जिंदगी उस शख्स के साथ बितानी चाहिए, उसके लिए बच्चे पैदा करने चाहिए जिसने उसका पीछा किया, चार साल तक उसके साथ हिंसा की, उसे और उसके परिवार को इस बात के लिए धमकाया कि वह उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है, उन पर एसिड फेंक सकता है, जिसकी वजह से लड़की ने खुदकुशी की कोशिश की. जैसा कि इस मामले में हुआ.
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर इस मामले में अपराध के वक्त सर्वाइवर की उम्र दो साल कम होती तो आरोपी को मौत की सजा मिल सकती थी. इसीलिए थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है. खासकर छोटी बच्चियों के रेप के मामले में हमारी अदालतें शादी की बात करके, आरोपियों को आसानी से छोड़ रही हैं. जबकि यह जुर्म इतना संगीन है कि कानून निर्माताओं ने इसके लिए मौत की सजा मुकर्रर की है.
लेकिन अदालतों को औरतों की सरपरस्ती की बात सोचते समय, यह भी सोचना चाहिए कि इस तरह के दस्तूर को अमल में लाने का क्या नुकसान हो सकता है.
इस लेनदेन में वह बेबस मजलूम बन सकती है. इससे समाज में उसकी इज्जत नहीं बढ़ेगी. बल्कि देश में औरतों के सामने यही बात पुख्ता होगी कि अगर उनका रेप होता है तो शादी से ही उनकी मान-मर्यादा बचाई जा सकती है.
इसी वजह से जब आरोपी शादी की पेशकश करता है तो उसे इस मामले को रफा-दफा करना होगा, जैसा कि इस मामले में कहा गया. या मुकदमा चलने पर पहले के बयान से पलटना पड़ जाएगा. कई मामलों में प्रेग्नेंट होने पर औरतों को शादी के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
जैसा कि ज्यादातर मामलों में होता है कि सेटलमेंट करते समय सर्वाइवर की राय नहीं पूछी जाती. अदालतें सिर्फ आदमी से पूछती हैं कि क्या वह उस औरत से शादी को तैयार है. अगर सर्वाइवर से भी पूछा जाएगा तो सिक्के का दूसरा पहलू भी दिखाई देगा. इससे यह मुद्दा उठता है कि जमानत पर सुनवाई के दौरान सर्वाइवर को भी वहां मौजूद होना चाहिए. ताकि अदालत में वह अपना ऐतराज जता सके.
क्रिमिनल कानून संशोधन 2018 में सर्वाइवर की मौजूदगी जरूरी है लेकिन इसे अमल में नहीं लाया जाता. दिल्ली हाई कोर्ट ने यह गौर किया था कि इस संशोधन से संबंधित दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा. तब उसने यह दिशानिर्देश दिए थे कि सर्वाइवर या उसका प्रतिनिधि जमानत की सुनवाई के दौरान जरूर मौजूद होना चाहिए.
हाल ही में केरल हाई कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में बेंच को ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए और सर्वाइवर को अग्रिम जमानत के समय भी मौजूद होना चाहिए.
इसका सबका मतलब यह नहीं कि हम सबको मिलकर यौन हिंसा के आरोपियों के लिए और कड़ी सजा की मांग करनी चाहिए या फिर उन्हें शैतान का तमगा देना चाहिए. सामूहिक तौर पर हमारा फर्ज यह है कि हम यौन हिंसा की शिकार औरतें को सांस लेने के लिए खुली हवा मुहैय्या कराएं. उन्हें पर्सनहुड यानी एक व्यक्ति के रूप में इज्जत मिलनी चाहिए. हां, हमारी न्यायिक प्रणाली इतनी मजबूत होनी चाहिए कि उनका बचाव कर सके.
(निनी सुजन थॉमस नई दिल्ली में एक प्रैक्टिसिंग वकील हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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