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चेतन भगत को इस बात का पूरा श्रेय जाता है कि वो ऐसी चीजें ढूंढ लाए हैं, जिन्हें हम जैसे आम लोग कभी नहीं ढूंढ सकते. एक स्टीफेनियन, चूंकि एक बिहारी है, इसलिए वह मुश्किल से ही कोई भी भाषा बोल पाता है, यहां तक कि हिंदी भी.
क्या खोज की है आपने! बिहारी होने और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस कॉलेज के आसपास कई साल गुजारने के बावजूद मुझे ऐसा कोई नहीं मिला. उन्होंने ऐसी बिहारी अंग्रेजी कहां सुनी- “आई फीलिंग, यू गोइंग या फिर अगर यू रनिंग, यू पक्का लूजिंग?”
चेतन भगत के बिहारियों में कई और विचित्र खासियत हैं. वह ( जैसा कि आप जानते हैं घटिया आदतों वाला शख्स) फूहड़ भोजपुरी गाने सुन कर पागलपन भरा डांस करने लगता है. इस मोटिभेसन से कि एक सुंदर लड़की उसकी सहपाठी हो सकती है, (एक असभ्य बिहारी के लिए क्या यह ज्यादा बड़ा मोटिवेशन नहीं है?) वह स्टीफेंस कॉलेज में दाखिला लेता है, एक तरह का मोनोमैनियाक या एकोन्मादी है और ऐसे वाक्य बोलने में महारत रखता है, जिन्हें समझना मुश्किल है (ऐसी निरर्थक हरकतें कम बौद्धिक क्षमता वाले लोग करते हैं.)
एक ऐसा बिहारी खोजना जो कहता हो- ‘हाऊ यू राइटिंग, आई थिंकिंग’ (हाफ गर्लफ्रेंड फिल्म का एक डायलॉग) खोजना काफी मुश्किल है. इसकी एक वजह है. दरअसल हम किताबें (क्लासिक्स से और चेतन भगत की हाफ गर्लफ्रेंड से तो बिल्कुल नहीं ) पढ़ कर और सही अंग्रेजी व्याकरण के साथ अंग्रेजी सीखते हैं.
तब फोनेटिक्स या ध्वनि-शास्त्र पर (कम से कम जब 1980 के दशक में एक बिहार के दूर दराज इलाके में मैं बड़ा हुआ) कभी जोर नहीं दिया जाता था. लिखना और बोलना दोनों अलग विषय समझे जाते थे. अच्छा लिख पाने वाले को पूरी शाबाशी के लायक समझा जाता था और बाकी मजाक के पात्र. अंग्रेजी बोलना एक अतिरिक्त योग्यता होती थी.
कह सकते हैं सोने पर सुहागा जैसी. अगर आप जानते हैं तो बहुत अच्छी बात है. अगर नहीं, तो कोई बात नहीं, राइटिंग तो आती है ना? इस तरह वाक्य विन्यास कभी समस्या नहीं था. लेकिन बातचीत थी. बोलने का लहजा भी एक समस्या थी.लेकिन क्या यह इकलौते बिहार की समस्या है?
और जहां तक बिहारियों की फूहड़ पसंद का सवाल है तो इसके बारे में, मुझे चेतन जी से कहना है कि हम बाकी लोगों की तरह ही अपने मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां और किशोरी अमोणकर को भी जानते हैं. फूहड़ भोजपुरी गाने और बेसिर पैर की सी ग्रेड फिल्में बिहार की संस्कृति का निर्माण करने वाली कई परतों में से एक हैं.
यह निश्चित रूप से प्रेरणादायक होता है. लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय या अन्य प्रमुख संस्थान में दाखिला लेते समय बिहारी के लिए यह कोई फैक्टर नहीं होता. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे भी लड़के हैं जिनका इकलौता मकसद होता है, जिसे बिहारी कहते हैं- टाइम पास. लेकिन मकसद से भटकने वाले तो हर जगह हैं- आपके राज्य में, हमारे राज्य में और साथ ही दूसरे राज्यों में भी.
चेतन भगत ने एक मैथिल ब्राह्णण माधव झा का चरित्र गढ़ने में निश्चित रूप से गलती की है, लेकिन फिल्म में गढ़े गए महिला चरित्र (वह लड़की फिल्म में बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की प्रतिनिधि है) का एक डायलॉग के लिए उन्हें शाबासी मिलना चाहिए.
फिर भी भगत जी हमें अपनी नवीनतम फिल्म से वह अहसास कराने के लिए जो हम नहीं हैं, आपका शुक्रिया. अगर आप भविष्य में दोबारा बिहारी पृष्ठभूमि पर कोई रचना करना चाहें तो मैं आपको बिहार की सैर में गाइड की अपनी सेवाएं पेश करता हूं. आप अचंभित रह जाएंगे की बिहार के बारे में आपकी धारणा कितनी गलत हैं.
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