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PM मोदी जी, अपने ‘जीडीपी’ वाले भक्तों से सावधान रहिए!

GDP शाइनिंग का मंत्र काफी फैशनेबल है. लेकिन सावधान, इतिहास को भुलाना नुकसानदायक हो सकता है...बता रहे हैं राघव बहल

राघव बहल
नजरिया
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(फोट साभार: <i>BloombergQuint</i>)&nbsp;
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(फोट साभार: BloombergQuint
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‘इंडिया शाइनिंग’ याद है? रोटी, कपड़ा, मकान और मोबाइल? 2004 में ये तय माना जा रहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन इन्हीं नारों ने उनकी उम्मीदों को डुबा दिया. लेकिन ऐसा क्यों हुआ?

अधिकतर भारतीयों के लिए मोबाइल फोन एक काम की चीज तो थी, लेकिन कुछ ऐसा नहीं, जिसका ढिंढोरा पीटा जाए. ऐसा इसलिए, क्योंकि ये मोबाइल फोन उनके घर के आसपास मौजूद गंदगी को साफ नहीं कर सकते थे, न ही उनके बच्चों के प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक ला सकते थे, न ही बच्चों को दिए जाने वाले खराब मिड डे मील में पौष्टिकता ला सकते थे, न ही खुले में शौच कर रही महिलाओं को ढक सकते थे, न ही बंद हो रहे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को दोबारा खोल सकते थे. वो बारिश या बाढ़ को काबू कर पाने में भी नाकाम थे और न ही भूख से बिलख रहे कुपोषित बच्चों का पेट भर सकते थे.

इस स्थिति को एक कवि के इन शब्दों से समझिए, ‘एक शहंशाह ने बना के हसीं ताजमहल, किया है एक गरीब की मोहब्बत का मजाक’.

क्या जीडीपी शाइनिंग दूसरा ‘इंडिया शाइनिंग’ है?

मैं जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नौकरशाहों के मुंह से ‘शानदार’ जीडीपी विकास और ‘दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज’ जैसी बातें सुनता हूं, तो कुछ पुरानी चीजें याद आने लगती हैं. खुद की पीठ थपथपाने की ये कला हम हर तरफ देख सकते हैं- लालकिले की प्राचीर से, टीवी चैनलों पर चुने हुए या फिर चुप्पी साधे हुए एंकरों को दिए इंटरव्यू में, जीडीपी शाइनिंग का मंत्र काफी फैशनेबल है. लेकिन सावधान, इतिहास को भुलाना नुकसानदायक हो सकता है.

(फोटो: iStock)

लीलावती और शंभू भारत की जीडीपी में हैं ही नहीं

इस शोरगुल से बहुत दूर, एक लीलावती है. वो कोई अस्पताल या होटल नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की एक गरीब महिला है. वो अपने पति शंभू के साथ आधा एकड़ जमीन पर पिछले 20 वर्षों से रह रही है, जो उसे अपने माता-पिता से मिली थी.

शंभू और लीलावती के छह बच्चे हैं- हेमा, देव, आशा, राज, बिपाशा और ऋषि. इस परिवार ने अपने हाथों से इसी जमीन पर मिट्टी का घर बनाया, जिसके लिए उन्होंने किसी तरह की बाहरी मदद नहीं ली. वो जो भी खाना खाते हैं, उसे अपनी ही जमीन पर उगाते हैं. उन्होंने न कभी कुछ खरीदा न कभी कुछ बेचा. उन्हें कभी कैश की जरूरत ही नहीं पड़ी.

इस वजह से भारत की जीडीपी में उनका योगदान है शून्य, जीरो, कुछ भी नहीं. बिल्कुल ऐसा, जैसे कि वो है ही नहीं. और अगर सच पूछिए, तो अगर आप आईफोन पर सीरी से कहें कि इन दो लोगों को जीडीपी मैट्रिक्स में ढूंढो, तो सीरी कहेगी कि उनका कोई वजूद ही नहीं है.

लेकिन अचानक उनकी शांत-सी जिंदगी में खलबली मचती है. रेलवे उनकी जमीन के ऊपर से बुलेट ट्रेन का ट्रैक बनाना चाहता है. उन्हें पांच लाख का मुआवजा देकर जमीन से बेदखल कर दिया जाता है. जैसा कि उनकी किस्मत में लिखा था, बिजली की तेजी से उन्होंने देश की जीडीपी में 10 हजार रुपये का योगदान दिया. सरकार ने उन्हें जमीन के जो पैसे दिए, आखिर उसकी स्टैंप ड्यूटी के रूप में 10 हजार तो उन्हें ही देने थे.

(फोटो: iStock)

हमला नंबर 1: भारत की जीडीपी में 10 हजार रुपये जुड़ गया. उसके आठ नागरिक – शंभू, लीलावती, हेमा, देव, आशा, राज, बिपाशा और छोटा सा प्यारा-सा चिंटू उर्फ ऋषि अब भूमिहीन और बेघर हो चुके हैं. निराशा से घिरा और भविष्य से अनभिज्ञ ये परिवार अपने बचे हुए 4.90 लाख रुपये एक थैली में डालता है और मुंबई वाली ट्रेन में चढ़ जाता है. लेकिन उससे पहले उन्हें पांच वयस्‍क, दो बच्चों और एक शिशु का टिकट खरीदना पड़ा, जिसकी कुल कीमत थी 13 हजार रुपये. इस यात्रा के दौरान उन्हें तेल में डूबे समोसे, चिंटू के दूध, चाय, केले, दाल-चावल और साबुन जैसी चीजों पर 2 हजार और खर्च करने पड़े.

हमला नंबर 2: भारत की जीडीपी में 15 हजार रुपये और आ गए, लेकिन लीलावती की थैली में अब 4.75 लाख रुपये बचे हैं.

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भारत की जीडीपी को बढ़ाते हैं बेसहारा प्रवासी

जब वो मुंबई के ग्रैंड विक्टोरिया टर्मिनस पहुंचते हैं, तो समझ ही नहीं पाते कि क्या करें. लेकिन फिर भी मानवता के इस कुचलने वाले सैलाब का हिस्सा बन जाते हैं. उन्हें नहीं पता कि किसका विश्वास करें, कहां जाएं और किससे पूछें. वो रमेश टैक्सी वाले को 10 हजार देते हैं, यही टैक्सी वाला उन्हें छग्गन नाम के व्यक्ति को 15 हजार और देने को कहता है, जो उनके रहने का इंतजाम कुछ दिनों के लिए चॉल में कर सकता है. इससे पहले की वो समझ पाते आमची भाई ने उनसे शंभू को नौकरी दिलाने की बात कहकर 25 हजार और ले लिए.

हमला नंबर 3: भारत की जीडीपी में 50 हजार और आ गए, लेकिन लीलावती की थैली में 4.25 लाख रुपये बचे हैं.

दुर्भाग्य से बुरे वक्त ने इस बेघर परिवार की तरफ अब और थोड़ा तेजी से बढ़ना शुरू कर दिया. शराब पीकर कार चला रहे एक फिल्म स्टार ने छोटे चिंटू को अपनी बीएमडब्ल्यू के नीचे कुचल दिया.

इस दुर्घटना में इस स्टार की गाड़ी को जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई इंश्योरेंस कंपनी ने उन्हें 50 लाख रुपये देकर कर दी, जिसके चलते जीडीपी थोड़ा और ऊपर चली गई. लेकिन बेचारे चिंटू ने एक नामी अस्पताल के आईसीयू में दो विफल सर्जरी के बाद दम तोड़ दिया. इस परिवार के लिए अस्पताल का खर्च 8 लाख रुपये के करीब था, जो भारत के स्वास्थ्य सेक्टर के लिए बहुत ही अच्छा है और जाहिर है अपनी जीडीपी के लिए भी. इस गरीब बच्चे के अंतिम संस्कार में भी 10 हजार रुपये का खर्च आया, जिससे अंतिम संस्कार सेवा प्रदाताओं की जेबों में तो पैसा गया ही, साथ ही अपनी जीडीपी भी आगे की तरफ बढ़ी.

(फोटो: iStock)

हमला नंबर 4: सामान्य से गणित से ये समझ में आता है कि अब ये परिवार 3.85 लाख रुपये जितनी बड़ी राशि के कर्ज में डूब चुका है. शंभू ने छग्गन के लिए काम करना शुरू कर दिया है. देव और राज ने बांद्रा-वर्ली सी लिंक पर छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए हैं और लीलावती ने एक वेश्यालय को अपनी कमाई का जरिया बना लिया है. वहीं हेमा, आशा और बिपाशा का छोटा और फुर्तीला शरीर मुंबई के डांस बार का पसंदीदा बन गया है. अब पूरा परिवार मिलकर एक लाख रुपये महीना कमा रहा है. अब ये सभी भारत की जीडीपी में सम्मानजनक योगदानकर्ता बन गए हैं. 30 दर्दनाक दिनों के भीतर उन्होंने अपनी प्यारी मातृभूमि की कमाई में 58.10 लाख रुपये का इजाफा किया है. इन पैसों में एक मशहूर फिल्म स्टार की नई चमचमाती कार भी शामिल है, जो उसने इंश्योरेंस के पैसे से खरीदी है. अब अगर आप सीरी से इस परिवार के बारे में जानकारी मांगेंगे तो वो कहेगी: वो 20 करोड़ मध्यम वर्गीय परिवारों में से एक हैं.

विकास/समृद्धि का भ्रम

ये तो जाहिर है कि लीलावती की दुखभरी कहानी काल्पनिक थी. लेकिन इससे एक बात ये जरूर समझ आती है कि जैसे-जैसे एक अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे ऐसे सैकड़ों गरीब परिवार राष्ट्रीय आय की चक्की में पिस जाते हैं और उससे विकास और समृद्धि का भ्रम बड़ा होता चला जाता है.

मुझे गलत मत समझिए. मैं जीडीपी विकास का विरोध नहीं कर रहा – असल में इसका अधिकतर आंकड़ा इस बात को दर्शाता है कि वाकई लोगों के जीने का स्तर बेहतर हुआ है. मैं खुद तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का समर्थन करता हूं. लेकिन मैं बस ये साबित करने की कोशिश कर रहा हूं कि कहीं इसे हमारे मुखर प्रधानमंत्री और नौकरशाह इसे समृद्धि का सिद्धांत न बना दें. जो लोग शीर्ष पर बैठे हैं वो बढ़ती हुई जीडीपी के नाम पर अपना सीना न ठोकें, क्योंकि इसका कुछ हिस्सा बढ़ते जुर्म, बीमारियों, निर्वासन और पलायन की भी उपज है.

(फोटो: iStock)

2004 में ऐसी ही लाखों लीलावती और शंभू थे, जिन्हें ये नहीं समझ आ रहा था कि उनके सेकेंड हैंड नोकिया मोबाइल किस तरह से इंडिया शाइन करा रहे हैं. अब 2016 में भी लीलावती और शंभू जैसे लोग ‘7 प्रतिशत से ज्यादा का जीडीपी विकास’ का ये जो हल्ला है समझ नहीं पा रहे हैं. क्यों उनके राजनीतिक आका उनसे भारत के ‘सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था’ का जश्न मनाने को कहते हैं?

हां, वो इसका जश्न तब मनाएंगे, जब उनकी झुग्गियों के आसपास से गंदगी हट जाएगी, जब उनके बच्चे दोबारा स्कूल जाएंगे, अगर चिंटू जिंदा बच जाता, अगर उनकी जमीन उनसे नहीं छीनी जाती, अगर उन्हें अथाह गरीबी और शहरों के अपराध में नहीं धकेला जाता. लेकिन वो आखिर क्यों और कैसे एक रहस्यमय और ‘पौराणिक’ (कम से कम उनके लिए) 7 प्रतिशत से ज्यादा के जीडीपी विकास का जश्न मनाएं?

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