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‘मुफ्तखोर’, ‘लालची’...गुमराह करने वाले इन जुमलों से सावधान

दिल्ली चुनाव के बीच उठने वाले सवाल अब भी मौजूं है कि आखिर ये मुफ्तखोरी किस बला का नाम है?

मुकेश कुमार सिंह
नजरिया
Updated:
अरविंद केजरीवाल और गृह मंत्री अमित शाह
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अरविंद केजरीवाल और गृह मंत्री अमित शाह
(फोटो: क्विंट)

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दिल्ली विधानसभा के चुनावों में अनेक भ्रष्ट नरेटिव्स का बोलाबाला रहा. इनमें से एक है ‘मुफ्तखोरी’. बीजेपी ने आम आदमी पार्टी पर हमला करने के लिए बिजली-पानी, महिलाओं की बस-यात्रा पर मिलने वाली रियायतों को मुफ्तखोरी बताने का रास्ता चुना. मुफ्तखोरी की बातें ही जेएनयू के आन्दोलनरत छात्रों पर भी चस्पा की गयीं, क्योंकि उन्हें भी बीजेपी ने अपने विरोधियों के रूप में ही देखा. वैसे तो बीजेपी के दुष्प्रचार को ‘आलसी, गद्दार, तंग-नजर, राष्ट्रविरोधी दिल्लीवालों’ ने खारिज कर दिया, लेकिन मुफ्तखोरी का नारा अभी मरा नहीं है, उसे सुलगाये रखने के लिए तरह-तरह से तेल डाला जा रहा है.

इसीलिए ये सवाल अब भी मौजूं है कि आखिर ये मुफ्तखोरी किस बला का नाम है?

मुफ्तखोरी, होती क्या है, किसे कहते हैं? इसका मतलब है, ‘निठल्ले या निक्कमे को मिला भोजन या इनाम’. इसके लिए एक मुहावरा भी है, ‘काम के ना काज के, दुश्मन अनाज के’.

मुफ्तखोरी में अहसान-फरामोशी का भी भाव निहित है. लेकिन ये ‘रिश्वत’ की तरह अपराध नहीं है. मुफ्तखोरी और हरामखोरी, एक-दूसरे के पर्याय हैं. लिहाजा, अगर जनता से मिले टैक्स को सरकार जनता पर ही खर्च करने का रास्ता चुनती है, तो फिर इसे ‘मुफ्तखोरी की सौदेबाजी’ के रूप में कैसे पेश किया जा सकता है?

यदि कुतर्क की खातिर ही सही, ये मान लिया जाए कि केजरीवाल के वादे मुफ्तखोरी को बढावा देने वाले हैं तो क्या अब देश को ये समझ लेना चाहिए कि वो दिन दूर नहीं जब मोदी सरकार नोटबंदी की तर्ज पर ‘मुफ्तबंदी’ का ऐलान कर देगी? केन्द्र सरकार की तमाम योजनाओं के जरिये जनता को दी जाने वाली तरह-तरह की सब्सिडी की सप्लाई का ‘मेन-स्विच ऑफ’ कर दिया जाएगा?

क्योंकि मुफ्तखोरी की जैसी परिभाषा गढी गयी है, उस हिसाब से तो हरेक सब्सिडी को मुफ्तखोरी ही समझा जाना चाहिए. तो क्या वो दिन लद जाएंगे, जब चुनाव से पहले किसानों से कर्ज माफी का वादा किया जाएगा? क्या किसानों को दो हजार रुपये की मुफ्तखोरी वाली किस्तें नहीं मिला करेंगी? खाद पर मुफ्तखोरी वाली सब्सिडी नहीं मिलेगी? किसानों को मुफ्तखोरी वाली रियायती बिजली मिलना बंद हो जाएगा?

क्या उज्ज्वला योजना का गैस कनेक्शन और सिलेंडर क्या अब पूरे दाम पर ही मिलेगा? आयुष्मान योजना के तहत मिलने वाली पांच लाख रुपये की मुफ्तखोरी का सिलसिला बंद हो जाएगी? क्या रेल किराया अब पूरी तरह व्यावसायिक बन जाएगा? क्या प्राइमरी से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक में मिलने वाली रियायतें खत्म हो जाएंगी? सरकारी अस्पतालों में भी नर्सिंग होम्स की तरह महंगा इलाज करवाना पड़ेगा? सस्ता राशन वाली मुफ्तखोरी बंद हो जाएगी? क्या हरेक सड़क अब टोल रोड होगी? क्या प्रधानमंत्री आवास योजना से घर बनाने के लिए मिलने वाली सब्सिडी खत्म हो जाएगी? मुफ्तखोरों के लिए क्या शौलाचय बनना बंद हो जाएंगे? क्या मजदूरों को पेंशन देने की योजना बंद हो जाएगी?

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बीजेपी के वादे में नहीं है मुफ्तखोरी?

दिल्ली का चुनाव जीतने और अपने राजनीतिक विरोधी को ठिकाने लगाने के मंशा से ‘मुफ्तखोरी’ की जैसी परिभाषा बीजेपी ने गढी है, उसके मुताबिक तो सरकार की ओर से जन-कल्याण के लिए किया जाने वाला हरेक काम अनैतिक और पतित आचरण के दायरे में आ जाएगा. खुद बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में ऐसे दावों की भरमार है, जिनसे ‘मुफ्तखोरी’ का बढ़ावा मिलेगा. तो क्या ये मान लिया जाए कि बीजेपी करे तो रासलीला, केजरीवाल करे तो करेक्टर ढीला? बेशक, मुफ्तखोरी एक घटिया और अनैतिक आचरण है. लेकिन मुफ्तखोरी को सही ढंग से परिभाषित करना भी जरूरी है.

एक सरकारी कर्मचारी को जिस काम के लिए नौकरी मिली है, उस काम को वो करता नहीं और बैठे-ठाले तनख्वाह पाता है तो ये है मुफ्तखोरी. असली मुफ्तखोरी. अगर वो कर्मचारी अपना काम करने के लिए लोगों से सुविधा शुल्क ऐंठता है तो ये है रिश्वतखोरी. जबकि अगर वो सरकारी खर्चों पर कमीशन खाता है, तो ये है भ्रष्टाचार. इसमें रिश्वतखोरी के अलावा अमानत में खयानत का गुनाह भी शामिल होता है.

लेकिन लोकतंत्र में चुनावी वादों को मुफ्तखोरी, लालच या रिश्वतखोरी की तरह नहीं देखा जा सकता. इसीलिए ‘हरेक खाते में 15-15 लाख रुपये’ वाली बात भले ही नामुमकिन चुनावी वादा लगे, लेकिन ये आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन नहीं है. भारत को पेरिस बना देने का वादा भले ही अविश्वनीय हो, काशी को क्योटो बनाने का वादा भले ही ख्याली पुलाव हो, सड़क को हेमामालिनी के गाल जैसा बनाने की बात भले ही लंतरानी लगे, लेकिन ये अनैतिक या वर्जित नहीं हो सकती. इसे झांसा जरूर कह सकते हैं.

‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा लालच के दायरे में नहीं रखा जा सकता. मुझे वोट देंगे तो मैं मन्दिर बनवा दूंगा, 370 खत्म कर दूंगा, तीन तलाक खत्म कर दूंगा, सीएए लागू करके दिखाऊंगा. क्या इन नारों को पूरा करने में टैक्स भरने वाली की खून-पसीने की रकम वैसे ही खर्च नहीं होती, जिसे मुफ्त बिजली-पानी, राशन-दवाई वगैरह देने पर होती है? तो क्या ये सब बातें भी मुफ्तखोरी के दायरे में आ जाएंगी?

चाणक्य के नीति वाक्य की ढाल

दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद चाणक्य के एक नीति-वाक्य को सोशल मीडिया पर दौड़ाया जा रहा है कि ‘जहां जनता लालची हो वहां ठगों का राज होता है.’ यहां चाणक्य को ढाल बनाकर लोगों के बीच लालच की भ्रष्ट परिभाषा ठेली जा रही है, क्योंकि कम समझ रखने वालों पर भ्रष्ट परिभाषाएं तेजी से और भरपूर असर दिखाती हैं. इसीलिए, मुफ्तखोरी के बाद लगे हाथ ये भी समझते चलें कि आखिर, लालच क्या है? क्यों इसे बुरी बला कहते हैं?

क्या किसी स्पर्धा में स्वर्ण पदक पाने की ख्वाहिश रखना लालच है? क्या दाम्पत्य में पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील होना लालच है? जी नहीं. लेकिन दूसरों की चीज छलपूर्वक हथियाने की कामना रखना लालच है. दूसरे के बाग में लगे फलों को चुराकर खाना लालच-प्रेरित अपराध है. साफ है कि लालच एक प्रवृत्ति है, जो गलत काम की वजह बनती है. इसीलिए अगर बुरे काम से बचना तो लालच से बचें, क्योंकि यही वो बुरी बला है, जो अपराध की ओर ढकेलती है.

लेकिन लेन-देन लालच नहीं है. सेल भी लालच नहीं है. लालच, उकसावा और प्रोत्साहन, तीनों प्रवृत्तियों में फर्क है. लालच, नकारात्मक है तो प्रोत्साहन या प्रलोभन सकारात्मक. जबकि उकसावा, उभयनिष्ठ है यानी ये सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकती है.

इसीलिए लोकतंत्र में चुनावी वादों को लालच या मुफ्तखोरी की तरह पेश नहीं किया जा सकता. अलबत्ता, इन्हें प्रलोभन अवश्य कहा जा सकता है. लुभाना, अशोभनीय आचरण नहीं है. ये मार्केटिंग का अस्त्र है.

मां-बाप अगर अपने बच्चे से कहें कि परीक्षा में अव्वल आये तो तुम्हें साइकिल खरीदकर देंगे. ये व्यवहार लालच नहीं है, बल्कि प्रोत्साहन और पुरुस्कार है. इसी तरह चुनावी वादों को पूरा करने के लिए वोट मांगना, किसी दुकान से रुपये के बदले सामान खरीदने जैसी सौदेबाजी नहीं है. वोट सौदा नहीं है. ये समर्थन है, सहयोग है. इसीलिए इसे मांगा जाता है. जनता इसे दान देती है, इसीलिए इसे मतदान यानी मत या ‘मौन-सहयोग का’ दान कहा गया है. चुनावी वादों का पूरा होना दान का फलित है. जैसे कर्मों का फल मिलता है.

इसीलिए मुफ्तखोरी और लालच जैसे शब्दों को लेकर गुमराह करने वालों से पूछिए कि सबको सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य, राशन, बिजली, पानी वगैरह देने की बात करना लालच कैसे है? क्या सरकार का काम जिससे टैक्स ले, उसी पर खर्च करना होना चाहिए या फिर उसका ये दायित्व सही है कि वो जिनसे ज्यादा ले सकती है, उनसे ज्यादा ले, लेकिन जब देने की बारी आये तो उन्हें सबसे अधिक प्राथमिकता दे, जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत हो? अरे, यदि कोई स्कूटी, साइकल, टीवी, प्रेशर कूकर, लैपटॉप, स्कूल-बैग और किताबें बाँटे तो वो लालच नहीं है लेकिन यदि कोई आपके कान में आकर मुफ्तखोरी की भ्रष्ट परिभाषा का मन्त्र फूँक दे तो वो लालच हो गया! अफसोस है कि हमने अपने दिमाग से सोचना-समझना बन्द कर दिया है. मुफ्तखोरी का नगाडा बजाने वालों से सवाल जरूर पूछिए.

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Published: 12 Feb 2020,11:00 AM IST

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