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अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की दिल्ली में लगातार दूसरी जीत के लिए चुनाव प्रचार के दौरान अपनी पार्टी के नेताओं के घृणा से भरे भाषणों को जिम्मेदार ठहराने से पहले तक अमित शाह एकदम खामोश थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री को उनकी शानदार जीत के लिए बधाई दी. जबकि केंद्रीय गृह मंत्री जिन्होंने आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करने की जिम्मेदारी व्यक्तिगत रूप से ली थी, कुछ नहीं कहा.
वास्तव में जिस दिन नतीजे आए उस दिन तो वे संसद में भी नहीं दिखाई दिए, जबकि उस दिन अपने मंत्रालय से संबंधित कुछ सवालों के जवाब देने के लिए उन्हें लोकसभा में रहना था.
पता नहीं शाह के दिमाग में क्या चल रहा होगा, जब उन्हें केजरीवाल की जीत की व्यापकता का अंदाजा हुआ होगा. इससे उनका मुंह जरूर कड़वा हुआ होगा क्योंकि दिल्ली में बीजेपी की हार की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर आगे हफ्तों और महीनों तक जारी रहेगी.
इसके लिए तीन कारण हैं. पहला वह झटका है, जो शाह को लगा है. आखिरकार वे मोदी सरकार में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. जिस तरह से उन्होंने प्रचार किया था, चुनाव अभियान में खुद को झोंककर उन्होंने एक बड़े नगर पालिका चुनाव को राष्ट्रीय चुनाव में बदल दिया, खुद को फोकस में ले आए और देशभर की निगाहें उन पर टिकी हुईं थी. दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरा देश नतीजों का सांस रोककर इंतजार कर रहा था.
जिस तरह से शाह ने दो हफ्ते में राजधानी में 52 रैलियों और पदयात्राओं के माध्यम से अपना प्रचार अभियान चलाया, उससे दिल्ली की लड़ाई उनके और केजरीवाल के बीच एक प्रतिस्पर्धा बन गई. इसमें केजरीवाल जीते और शाह हार गए. दिल्ली के मतदाताओं को ईवीएम पर कमल का बटन दबाकर शाहीन बाग में “करंट” भेजने की उनकी अविवेकपूर्ण सलाह के ऊपर सोशल मीडिया में चुटकुलों और मजाकिया वीडियो की बाढ़ आ गई, इसने हास्य प्रेमियों और कार्टूनिस्टों को काफी मसाला दिया.
शाह इस झटके से उबर जाएंगे. यह एक क्षणिक धक्का है, वे मोदी के इतने करीबी हैं कि उनको शायद ही किसी भी परिणाम का सामना करना पड़े. हालांकि, चुनाव नतीजों के बाद की उनकी चुप्पी बताती है कि उन्हें गंभीर रूप से नुकसान हुआ है.
दूसरा कारण बीजेपी के लिए अधिक चिंताजनक है. दिल्ली के परिणामों ने हिंदुत्व की खेमेबंदी के उसके मुख्य चुनावी हथियार को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया है. नतीजा केवल केजरीवाल के सकारात्मक अभियान और अच्छे शासन को रिकॉर्ड समर्थन मिलना ही नहीं है. यह उस हिंसक सांप्रदायिक एजेंडे को एक तरह से खारिज करना भी है, जिसे बीजेपी ने राजधानी में उठाया था.
चुनाव अभियान खुले तौर पर सांप्रदायिक था. बयानबाजी क्रूर थी. यहां तक कि पहली बार राजधानी में चुनाव के दौरान सड़कों पर खून बहा. कुछ भगवा समर्थकों ने गोलियां चलाई और गुंडे गोलबंद हुए थे जबकि पुलिस कैंपॉसों में वीरता दिखा रही थी.
वास्तव में बीजेपी का चुनाव अभियान नियंत्रण से बाहर था. सामान्य तौर पर मिलनसार नेता जैसे केंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर और लोकसभा सांसद परवेश वर्मा तो गोली मारो जैसे नारों और शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों द्वारा बलात्कार के काल्पनिक खतरों को उठाकर मुस्लिम विरोध को स्वीकार्य सीमा से बहुत आगे ले गए.
इस तरह ये हिंदुत्व का सबसे खराब रूप था और दिल्ली ने प्रबल बहुमत से इसे खारिज कर दिया. बीजेपी के प्रवक्ताओं ने निश्चित रूप से इसका बचाव अपनी सीटों और वोट शेयर बढ़ने के तर्क से किया है. लेकिन थोड़ा इसे देखिए:
जब बीजेपी आगामी विधानसभा चुनावों (इस साल के अंत में बिहार, अगले साल असम, पश्चिम बंगाल और 2022 में उत्तर प्रदेश के बड़े चुनाव ) की तैयारी के लिए थोड़ा चतुराई अपना सकती है और अपनी हिंदुत्व की अपील को नया रूप दे सकती है. या फिर जिद में रहकर दिल्ली की अपनी दुर्गति से कोई सीख नहीं भी ले सकती है.
ये तीसरा कारण है, जिससे दिल्ली के फैसले का पूरे देश में असर होगा. मोदी सरकार के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को एक मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकाबले में खड़ा करने से अनजाने में ही केजरीवाल का कद एक राष्ट्रीय नेता में बदल गया है. जबकि उनकी एक बड़े महापौर के रूप में अनदेखी की जा सकती थी (क्योंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है).
इसके पहले से ही पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं. वह एक नई तरह की राजनीति, काम की राजनीति के जन्म की बात कर रहे हैं. उनके समर्थक दिल्ली मॉडल ऑफ गवर्नेंस की बात कह रहे हैं, जिसे दूसरे राज्यों द्वारा अपनाया और अनुसरण किया जाना चाहिए. उनकी पार्टी ने भारत के लोगों को राष्ट्र निर्माण के लिए आप में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है.
शाह और मोदी को इस बात का एहसास है या नहीं, लेकिन केजरीवाल उनके लिए एक वास्तविक सिरदर्द बन सकते हैं, खासकर तब, जब अर्थव्यवस्था लगातार गिरती है और बीजेपी दूसरे राज्यों का चुनाव भी हारती है. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रमुख कितनी चालाकी से इसे अंजाम देते हैं लेकिन उन्होंने इतना तो दिखाया ही है कि वह बीजेपी का उसके ही खेल में मुकाबला कर सकते हैं और हरा भी सकते हैं.
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