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फिर घुटने लगा दिल्ली का दम, पराली की समस्या की जड़ और समाधान

पराली जलाना कितना बड़ा मुद्दा है?

अमान बाली
नजरिया
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पराली जलाना कितना बड़ा मुद्दा है?
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पराली जलाना कितना बड़ा मुद्दा है?
(फाइल फोटो: PTI)

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत की हवा को गंदी कहा है. इससे आहत होने बजाय अपने आसपास देखना चाहिए. यह साल का वो समय होता है, जब दिल्ली एक गैस चैंबर में बदल जाती है. पंजाब से निकलने वाला धुआं तेजी से दिल्ली पहुंच जाता है.

यही वो समय होता है, जब दिल्ली और पंजाब के मुख्यमंत्री एक-दूसरे पर दोष मढ़ने का खेल शुरू करते हैं.

किसान पराली क्यों जलाते हैं?

पंजाब और हरियाणा में अक्टूबर के पहले और आखिरी सप्ताह के बीच में धान की कटाई होती है. इसके बाद नवंबर के पहले हफ्ते में गेंहू बोने का समय आता है. कृषि विशेषज्ञ संकेत देते हैं और रिसर्च भी बताता है कि गेंहू को बोने में जरा सी भी देरी उसकी उपज को कम कर सकती है. इस काम के लिए किसानों के पास सिर्फ 15 दिन का समय होता है. किसान लगातार धान के भूसे को लेकर सही कृषि उत्पाद की शिकायत करते रहे हैं, इसके अलावा समय की कमी और मजदूरों की कमी के कारण वह पराली जलाने पर मजबूर हैं.

जब हार्वेस्टर और थ्रेशर के जरिए धान की कटाई हो जाती है तो खेत में बहुत मात्रा में भूसा रह जाता है. यही चीज अन्य मशीनों को गेंहू बोने से रोकती है.

धान की कटाई में सिर्फ 10-15 दिन का समय और फिर गेंहू बोने के समय नजदीक आने की वजह से किसान अक्सर इस भूसे यानी पराली को जला देते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, 11 मिलियन टन पराली जलाई जाती है. अगर हम किसानों की सुनें तो वे इसके पीछे मोनसेंटो जैसी कंपनियों की साजिश और पंजाब के भूजल संरक्षण कानून को दोष देते हैं. इसी के नतीजे में वह भारी मात्रा में पराली जला देते हैं.

  • जब हार्वेस्टर और थ्रेशर के जरिए धान की कटाई हो जाती है तो खेत में बहुत मात्रा में भूसा रह जाता है. यही चीज अन्य मशीनों को गेंहू बोने से रोकती है.
  • धान की कटाई और गेहूं की बुआई में सिर्फ 10-15 दिन का अंतराल होता है, इसलिए किसान समय बचाने के लिए भूसे यानी पराली को जला देते हैं.
  • कई किसानों को पराली प्रबंधन के लिए केंद्र की ओर से दिया जाने वाला पैसा नहीं मिला है.
  • कोविड-19 की वजह से पंजाब सरकार ने पैसे की कमी होने की शिकायत की लेकिन केंद्र भी किसी तरह की मदद करने को तैयार नहीं है.
  • कृषि बिलों के खिलाफ किसान विरोध के कारण उनके और सरकार के बीच दुश्मनी बढ़ गई है.
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए सुझाव से किसानों को प्रोत्साहित करना और उनकी समस्याओं को हल करना होगा.

जुर्माना, किसान बिल और पैसा न मिलने से नाराज हैं किसान

इन सब घटनाओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है. दिल्ली ने पंजाब के मुख्यमंत्री पर निशाना साधा है और कैप्टन अमरिंदर सिंह से पराली जलाने की जांच करने को कहा है. इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई लोकुर समिति पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मामले को देख रही है. वहीं, पंजाब ने खुद से संज्ञान लेते हुए पराली जलाने वाले किसानों पर कार्रवाई करते हुए उन पर जुर्माना लगाया है.

जबकि समस्या काफी छोटी दिखाई दे सकती है, जिसके लिए पंजाब सरकार और केंद्र सरकार दोनों को दोषी ठहराया जा सकता है. पिछले साल, सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा सरकार से छोटे किसानों को पराली के प्रबंधन के लिए प्रति क्विंटल 100 रुपए देने को कहा था. पंजाब में प्रति एकड़ 25.6 क्विंटल की उत्पादकता को देखते हुए किसानों को प्रत्येक एकड़ के लिए 2,560 रुपए मिल सकते हैं.

कई किसानों को राशि नहीं मिली होगी, फिर चाहे सरकार ने इसके लिए 8000 नोडल अफसरों को भुगतान के देखरेख में लगा दिया हो. इसके अलावा पराली जलाने से रोकने की जगह अन्य तकनीक के इस्तेमाल को लेकर किसानों को जागरुक किया गया.

कोविड-19 की वजह से पंजाब सरकार ने पैसे की कमी होने की शिकायत की और केंद्र भी किसी तरह की मदद करने को तैयार नहीं है.

किसानों पर जुर्माना लगाने से बात नहीं बनती है. पंजाब सरकार ने 2019 में किसानों पर 6.1 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया, जिसमें से सिर्फ एक लाख रुपए ही जमा हुए हैं. किसानों से जुर्माना वसूल करना मुश्किल है, लेकिन इससे भी जरूरी बात यह है कि स्थानीय कृषि विकास अफसरों के साथ दुश्मनों जैसा बर्ताव होता है.

कृषि बिलों के खिलाफ किसान के विरोध के कारण उनके और सरकार के बीच दुश्मनी बढ़ गई है. किसानों द्वारा कृषि और नोडल अफसरों को बंधक बनाने और उनका पीछा करने के कई उदाहरण देखने को मिले हैं.

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कम्बाइन मालिक भी नीतियों से नाखुश

पंजाब सरकार कम्बाइन मालिकों के गुस्से का सामना भी कर रही है. तकरीबन 400 कम्बाइन मालिक बीज बोने वाली और पराली उखाड़ने वाली मशीन लगाने का विरोध कर रहे हैं. इस मशीन की कीमत डेढ़ लाख रुपए है, जिस पर पंजाब सरकार ने सब्सिडी दी है. लेकिन किसी भी कम्बाइन मालिक को इस सब्सिडी का फायदा नहीं मिला, जिसने उनके गुस्से और अविश्वास को और ज्यादा बढ़ा दिया.

किसानों और कम्बाइन मालिकों ने एक और जरूरी बात की तरफ ध्यान दिलाया है कि ये मशीन एक निश्चित लंबाई तक कटाई करती है, जिसके मजदूरों की लागत बढ़ जाती है.

किसान को मजदूरों से भूसा कटवाने के लिए अनुमानित प्रति एकड़ 6000 रुपए की जरूरत है, जबकि सरकार का दावा है कि यह कम्बाइन और सीडर्स के मदद से हल हो सकता है. कम्बाइन के इस्तेमाल की लागत प्रति एकड़ 2500 रुपए है, लेकिन इस तथ्य को सरकार ने नजरअदंाज कर दिया कि कम्बाइन और सीडर्स के महंगे इस्तेमाल के बाद भी किसानों को मजदूरों की जरूरत पड़ेगी. मशीन लगाने के आदेश को न मानने पर कम्बाइन मालिकों पर 50 हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाता है.

पराली जलाना कितना बड़ा मुद्दा है?

किसान हर साल बिना किसी की मदद के रह जाते हैं और देश के पर्यावरणविद, नीति निर्माता और सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे कीचड़ उछालते रह जाते हैं.

प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि पराली जलाने से दिल्ली में प्रदूषण का योगदान सिर्फ 4% है. इस बयान से ऐसा लगा कि केंद्र सरकार पंजाब सरकार की ओर से लगाए आरोप से मुक्त हो गई हो, लेकिन निश्चित रूप ये समस्या इस तरह हल नहीं हुई. इस मुद्दे को बीते सालों में नजरअंदाज ही किया गया और अब भी किया जा रहा है.

पंजाब के किसान और पर्यावरणविद को विश्वास है कि पराली से प्रदूषण का मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं है.

पंजाब में पर्यावरणविद ओमिंदर दत्त के मुताबिक, “पराली से होने वाले प्रदूषण का मुद्दा 11 महीने के लिए नहीं है. लेकिन लुधियाना का औद्योगिक प्रदूषण सबसे ज्यादा चिंता का विषय है, यहां शहर के पानी में जहर है, लेकिन इन मुद्दों पर कोई भी इन बड़े उद्योगपतियों से सवाल नहीं करना चाहता.” दत्त के मुताबिक, बठिंडा, गोइंदवाल के थर्मल प्लांट का कचरा और लुधियाना की इंडस्ट्रीज के कारण पंजाब का पानी काफी दूषित हुआ है. उन्होंने पर्यावरणविदों और राजनेताआंे के धोखा देने पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि कोई भी प्रदूषण के असल मुद्दे को हल नहीं कर रहा है.

पराली जलाने की समस्या से कैसे निपटें

दत्त का सुझाव है कि पंजाब में किसानों को पोषक फसल की खेती करने की जरूरत है. यह ऐसी चीज है, जिसके बारे में प्रधानमंत्री ने बात की थी और 17 प्रकार के बीजों की घोषणा की थी. हालांकि, दत्त मानते हैं कि यह छोटे खेतों वाले किसानों द्वारा अपनाया गया है और जब तक सरकार पोषक फसलों पर एमएसपी का कानून नहीं लाती, तब तक यह व्यापक रूप नहीं लेगा.

यह दोनों ही असंभव है (किसानों की बड़ी संख्या को देखते हुए, जो कई लाख है) और पराली जलाने के लिए किसानों को दोष देना भी ठीक नहीं है. हमारा ध्यान कम्बाइन हार्वेस्टर के डिजाइन को विकसित करने और बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए, जिससे वह अपने पीछे कोई पराली छोड़कर न जाए. मोडिफाइड कटर वाली मशीनें, जो नीचे से फसल काटती हैं और पराली छूटने का झंझट भी नहीं होता. सरकार को सिर्फ ऐसे खास कम्बाइन हार्वेस्टर के इस्तेमाल की अनुमति देनी चाहिए, जाे पराली के आकार के मानकों के हिसाब से हो.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए सुझाव से किसानों को प्रोत्साहित करना और उनकी समस्याओं को हल करना होगा. वो इंडस्ट्री जो कृिष और फसलों से निकलने वाले अवशेषों से पशुओं का चारा बनाती हैं या ईंधन के स्रोत में बदलती हैं, उन्हें भी सब्सिडी देकर प्रोत्साहित किया जा सकता है.

(अमान बाली सोलर स्टेट्स एनर्जी इंडिया के फाउंडर हैं. उनका टि्वटर हैंडल @amaanbali है. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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