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जो विधेयक आपको एकदम सीधा-सादा लगता है, सच यह है कि वह एनसीटी दिल्ली (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के शासन का पूरा नक्शा बदल देने की कोशिश करता है. दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन (संशोधन) विधेयक, 2021 को हाल ही में संसद में पेश किया गया है. खास बात यह है कि इस विधेयक में बहुत कुछ ऐसा है जोकि दबा-छिपा है.
चूंकि इसकी मूल कॉपी में इसके मकसद का कोई जिक्र नहीं है. बल्कि उसके उद्देश्यों और कारणों के कथन में असल मुद्दे को जैसे औंधा कर दिया गया है.यह विधेयक न सिर्फ 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को, लेकिन संविधान के कुछ प्रावधानों को भी कमजोर करता है, खास तौर से अनुच्छेद 239एए को.
विधेयक के उद्देश्यों के कथन में कहा गया है कि विधेयक सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने का इरादा रखता है. लेकिन यह करता एकदम उलटा है.
इसके उद्देश्यों और कारणों के कथन का अनुच्छेद 3 कहता है-
“माननीय उच्चतम न्यायालय के पूर्वोक्त निर्णयों की व्याख्या को प्रभावी करने के लिए एक विधेयक, अर्थात् दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन विधेयक, 2021, अन्य बातों के साथ, “सरकार” शब्द को स्पष्ट करने के लिए पेश किया गया है, जिसका अर्थ दिल्ली विधान सभा द्वारा पारित विधान के संदर्भ में, राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली का लेफ्टिनेंट गवर्नर होगा, जिसमें दिल्ली का दर्जा केंद्र शासित प्रदेश का होगा ताकि विधायी प्रावधानों की व्याख्या में अस्पष्टताओं को दूर किया जा सके. इसके अतिरिक्त, विधेयक यह सुनिश्चित करने का भी प्रयास करता है कि लेफ्टिनेंट गवर्नर को आवश्यक रूप से संविधान के अनुच्छेद 239एए के खंड (4) के नियम के अंतर्गत सौंपी गई शक्ति का प्रयोग करने का अवसर कुछ मामलों में दिया जाए और ऐसे विषयों में नियम बनाने का अवसर दिया जाए जो विधानसभा के क्षेत्राधिकार से बाहर के मामलों में आकस्मिक रूप से अतिक्रमण करते हैं. यह विधानसभा द्वारा बनाए गए नियमों के लोकसभा द्वारा बनाए गए नियमों के संगत होने का भी प्रावधान करता है.”
विधेयक की धारा 2 (3) कहती भी है, “विधानसभा द्वारा बनाए गए किसी भी कानून में निर्दिष्ट “सरकार” का अर्थ लेफ्टिनेंट गवर्नर होगा.”
एनसीटी दिल्ली का लेफ्टिनेंट गवर्नर निर्वाचित नहीं होता, बल्कि भारत के राष्ट्रपति विशुद्ध तरीके से उसे राजनैतिक प्रक्रिया के जरिए मनोनीत करते हैं. वह केंद्रीय मंत्रिपरिषद की मदद और सलाह से काम करता है. इसलिए वह पूरी तरह से राजनैतिक नियुक्ति होता है.
एनसीटी दिल्ली को हमारे देश की संघीय प्रणाली में खास दर्जा मिला हुआ है. यह देश की राजधानी है लेकिन यहां निर्वाचित विधानसभा है जिसके लिए दिल्ली के सभी रजिस्टर्ड वोटर्स वोट करते हैं. 2020 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की आंधी चली थी और उसने दिल्ली में सरकार बनाई थी. इसे ही दिल्ली की ‘सरकार’ कहा जा सकता है.
संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच कानून बनाने की शक्तियों का बंटवारा किया गया है और उसकी समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर राज्य और केंद्र, दोनों कानून बना सकते हैं. विधायी शक्तियों के बाद कार्यकारी शक्तियां आती हैं.
दूसरे शब्दों में हर उस मामले में जिस पर दिल्ली सरकार को कानून बनाने का अधिकार है, उस कानून को लागू करने की कार्यकारी शक्ति भी उसके पास है.
किसी भी शासन प्रणाली का मूल होता है, कानून को लागू करने की प्रक्रिया और अगर कानूनों को लागू करने की शक्ति न हो, तो कोई भी शासन प्रणाली सिर्फ कागजी शेर बनकर रह जाती है.
यही वजह है कि कानून में यह साफ तौर से स्थापित किया जाता है कि जहां विधायी शक्ति होती है, वहां कार्यकारी शक्ति भी होती है. दिल्ली की विधायी शक्तियों में दो मुख्य अपवाद हैं- पुलिस और जमीन. इस बारे में कोई संशय नहीं है. इन दोनों पर केंद्र का नियंत्रण है.
फिर इन संस्थानों की संप्रभुता और सुरक्षा के लिए जरूरी है कि पुलिस सेवा केंद्र सरकार में निहित हो. इसी तरह भूमि हस्तांतरण पर भी एनसीटी दिल्ली की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. उसकेनियंत्रण में सिर्फ वही जमीन आती है, जो एनसीटी दिल्ली सरकार में निहित है.
दिल्ली की ज्यादातर जमीन दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी (डीडीए) के पास है जिसका काम शहर के विकास के लिए मास्टर प्लान बनाना है.
तो, विवाद दिल्ली सरकार की विधायी और कार्यकारी शक्तियों और एलजी की शक्तियों के बीच है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 239एए के प्रावधानों की पक्की व्याख्या नहीं की थी. बस, एनसीटी दिल्ली और भारत संघ के बीच के रिश्तों को स्पष्ट किया था.
पिछले कई सालों के दौरान, और 1991 के बाद से एनसीटी दिल्ली और केंद्र में सत्ता संभालने वाली एक की पार्टी की सरकार रही. इसलिए दोनों के बीच ज्यादा टकराव नहीं हुआ.
लेकिन जब स्पष्ट सामाजिक और आर्थिक एजेंडा, और उन्हें लागू करने के इरादे के साथ आम आदमी पार्टी की सरकार बनी, तो हमने देखा कि केंद्र सरकार ने इस एजेंडा को पटरी से उतारने में अपनी पूरी ताकत झोंकी और हर तरह से रोड़े अटकाती रही. इसके लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर की शक्तियां दी गईं जोकि दिल्ली सरकार के हिसाब से, उसके पास होती ही नहीं.
दिल्ली में सीमित प्रतिनिधि वाली सरकार का प्रावधान करने के लिए दिल्ली प्रशासन कानून, 1966 को लागू किया गया.
लेकिन 1991 में, पूर्ण राज्य की मांग के आधार पर संविधान में 69वां संशोधन हुआ और फिर अनुच्छेद 239एए को इसमें जोड़ा गया.
सुप्रीम कोर्ट में इसी अनुच्छेद पर विवाद खड़ा हुआ. एनसीटी सरकार का तर्क था कि दिल्ली 1991 में पूर्ण राज्य बन गई है, जबकि केंद्र सरकार ने इसके जवाब में कहा था कि उसकी शक्तियां लेफ्टिनेंट गवर्नर के जरिए सीमित थीं जोकि किसी भी फैसले पर वीटो कर सकता है.
एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के संघीय ढांचे के हिसाब से इस प्रावधान की व्याख्या की. उसने कहा कि पुलिस और भूमि के अलावा बाकी सभी मामलों में दिल्ली की निर्वाचित सरकार को, किसी भी दूसरे राज्य की सरकार की ही तरह कानून बनाने और उसे लागू करने का अधिकार है. हां, एलजी को इन फैसलों की जानकारी देते रहना होगा.
लोकतंत्र और प्रतिनिधि सरकार को लेकर हमारी जो समझदारी है, यह उसके मुताबिक ही था. इसके अलावा प्रजातंत्र पर आधारित संवैधानिक नैतिकता भी यही कहती है जो संविधान का मूल है.
2018 के बाद दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच खास झड़प नहीं हुई. इसकी वजह शायद यह थी कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बहुत से मसलों को साफ कर दिया था. एक बात और साफ थी, यह उम्मीद की गई थी कि एनसीटी दिल्ली और केंद्र सरकार सहयोगी संघवाद के सिद्धांतों के आधार पर काम करेंगे- दोनों अपने अपने अधिकार क्षेत्र में अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करेंगे.
ऐसे में यह सवाल करना लाजिमी है कि कोई चुनावी प्रक्रिया वोटिंग पर क्यों और कैसे आधारित होती है.
विधेयक की धारा 33 में प्रस्तावित संशोधन के तहत रोजमर्रा के प्रशासनिक काम को भी दिल्ली सरकार से ले लिया गया है.संशोधित धारा 33 कहती है-
इसके अलावा धारा 44 में एक नया नियम जोड़ा गया है जोकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटता है. इसे संविधान के अनुच्छेद 239एए में अप्रत्यक्ष संशोधन भी माना जा सकता है. यह संशोधित प्रावधान इस प्रकार है-
इस कानून के पीछे की राजनीति बहुत साफ है. दिल्ली सरकार का सामाजिक और आर्थिक एजेंडा दिल्ली के लोगों की उम्मीदों को खरा उतरा है. शिक्षा के क्षेत्र में उसके सुधारों की दुनिया भर में तारीफ हुई है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोहल्ला क्लिनिक योजना ने लोगों की सेहत को सुधारा है.
डोरस्टेप डिलिवरी योजनाओं की तरफ सबका ध्यान आकर्षित हुआ है. लेकिन अब इन सभी योजनाओं के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर की सहमति की जरूरत होगी और लेफ्टिनेंट गवर्नर केंद्र सरकार की तरफ से काम करते हैं.
हो सकता है कि पास होने के बाद इस कानून को इस आधार पर चुनौती दी जाए कि इसके जरिए अप्रत्यक्ष रूप से संविधान के अनुच्छेद 239एए में ही संशोधन कर दिया गया है और यह प्रजातंत्र की आत्मा का हनन करता है. इसके अलावा यह इस सरकार को वोट देने वाले दिल्ली के नागरिकों के साथ भी एक तरह का धोखा है, क्योंकि अब वे लोग केंद्र सरकार की रहमत के हवाले हैं.
पुलिस और भूमि संबंधी मामलों पर पहले ही दिल्ली सरकार का नियंत्रण नहीं है. ये दो ऐसे विषय हैं जिनका जन कल्याण पर बहुत असर होता है. अब इन शक्तियों को और कमजोर किया जा रहा है. अब अगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की निर्वाचित सरकार के फैसलों पर लेफ्टिनेंट गवर्नर की मंजूरी नहीं मिलती, तो स्वास्थ्य, शिक्षा और अनिवार्य सेवाएं देने के मामलों पर भी दिल्ली सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा.
तो, इस खेल में असली हार तो दिल्ली के आम लोगों की ही होगी.
(डिस्क्लोजर: लेखक 2018 में सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार की लीगल टीम का हिस्सा रही हैं.)
(इंदिरा जयसिंह एक मशहूर मानवाधिकार वकील और सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @JJaising है.यह एक ओपनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं.
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