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(ये एक टू पार्ट आर्टिकल है. एनएफएसए के तहत सरकार द्वारा मुफ्त अनाज योजना को आगे बढ़ाने के मुद्दे पर काउंटर व्यू पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
भारत के विदेशमंत्री जयशंकर (S Jaishankar) ने मोदी सरकार की एक महत्वपूर्ण कैबिनेट घोषणा को ट्वीट किया था, जिसका भारत की विदेश नीति से शायद ही कुछ लेना देना था. यह घरेलू मामलों और भाजपा के 2024 के लोकसभा चुनाव अभियान से ज्यादा जुड़ा हुआ था.
सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत दिसंबर 2023 तक 800 मिलियन से अधिक लाभार्थियों को मुफ्त अनाज देने का फैसला लिया है. सरकार योजना पर दो ट्रिलियन रुपये (24.2 बिलियन अमरीकी डालर) अधिक खर्च करेगी.
NFSA के हिस्से के रूप में मुफ्त राशन देने का केंद्र सरकार का निर्णय पहली बार 2020 के अंत में कोविड की वजह से लगे लॉकडाउन में लिया गया था. गरीब, कमजोर और अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर के लोग खाने और अनाज के लिए जद्दोजहद कर रहे थे. देशभर में कर्फ्यू जैसा लॉकडाउन से (एक गलत कल्पना) से हो रही दिक्कतों की वजह से, मुख्य रूप से एक दिन में दो वक्त का खाना पूरा करना भी गरीबों के लिए मुश्किल हो गया था.
राशन वितरण की कई समय सीमा समाप्त होने के बावजूद, मोदी सरकार ने महामारी के दौरान गरीबों और जरूरतमंदों की 'देखभाल' करने के अपने लक्ष्य को प्रोजेक्ट करने के लिए योजना को लगातार जारी रखा.
ये जो कदम उठाए गए इनका देश के खजाने पर कितना भार बढ़ा, इस पर विचार विमर्श करना यहां ज्यादा प्रासंगिक नहीं है. खासकर जब नीतिगत वजहों से गरीबी की स्थिति ठीक नहीं हुई और कोविड में इसका उनपर और ज्यादा असर दिखा. नतीजा यह हुआ कि गरीबों को भोजन और बुनियादी पोषण मुश्किल हो गया है.
उत्तर प्रदेश (यूपी) और दूसरे राज्यों में भाजपा के चुनावी अभियानों के संदर्भ में इस उपाय का विश्लेषण करना भी उचित है, जहां वह अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़ रही थी.
हमारी अपनी शोध टीम ने ग्रामीण और सेमी-अर्बन यूपी में किए गए हमारे एथिनोग्राफिकल सर्वे में भी इसका विश्लेषण है (यहां वीडियो देखें).
फिर भी, अधिकांश पॉलिसी इकोनॉमिस्ट ने साल के अंत तक 'मुफ्त राशन वितरण योजना' को समाप्त किए जाने का अनुमान दिया था. ऐसे में इस योजना को एक और साल के लिए बढ़ाने की घोषणा, अब एक और सरप्राइज कदम है. हालांकि इसे मोदी सरकार यानि सत्ता रूढ़ पार्टी के 2024 के चुनावी कैंपेन से जोडकर देखा जा रहा है.
2020 से 2023 तक '800 मिलियन से अधिक गरीब लाभार्थियों के लिए मुफ्त राशन' योजना को मौजूदा सरकार एक महत्वकांक्षी अचीवमेंट के तौर पर चुनाव में ले जा सकती है. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में ‘लोक कल्याण’ को केंद्र में रखकर काम करने वाली सरकार बता सकती है. इससे मौजूदा सरकार को पहले से भी ज्यादा वोट मिलने की संभावना बढ़ जाती है.
यूपी और MP सहित भाजपा शासित दूसरे राज्यों ने भी इस योजना को बेहतर तरीके से लागू किया है ( चुनाव और वोट की वजह से ).
इसका एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह जो इस नीतिगत कदम उठाए गए हैं वो दरअसल देश में 'पोषण के संकट' और 'बढ़ी हुई गरीबी' के बड़े संदर्भ से जुड़ा हुआ है जिसे सरकार भी महसूस कर रही है भले ही वो इसे एक मुददे के तौर पर चर्चा करने में दिलचस्पी नहीं रखती हो.
पिछले कुछ वर्षों में भारत की मैक्रो-ग्रोथ प्रक्रियाएं कमजोर हुई हैं. घरेलू निजी निवेश कम होना, कुल मांग और रोजगार के मौके में निराशाजनक स्थिति रही है. कोविड काल में गांवों के साथ साथ शहरी गरीबी भी बढ़ी (और जैसा कि हम ड्रेज और सेन के गरीबी पर अध्ययन से जानते हैं: पोषण और गरीबी के स्तर बारीकी से जुड़े हुए हैं).
ध्यान दें, ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) 2022 में भारत का खराब प्रदर्शन रहा है. अगर कोई GHI की कार्यप्रणाली पर संदेह करते हैं (जैसा कि सरकार करती है), तो संदर्भ के लिए निम्नलिखित तथ्य से कुछ बातें पता चलती हैं :
2020 के संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों का अनुमान है कि लगभग एक अरब भारतीय पौष्टिक भोजन खरीदने में असमर्थ थे. एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि भारत की दो-तिहाई से अधिक ग्रामीण आबादी ऐसा आहार नहीं ले सकती जो भारत के अपने आहार संबंधी दिशानिर्देशों को पूरा करता हो. दिसंबर 2021-जनवरी 2022 के सर्वेक्षण में आधे से अधिक हिस्सा लेने वालों ने कहा कि उन्होंने महीने में दो या तीन बार से कम फल, ताजा खाद्य पदार्थ, अंडे या दूध खाया, जबकि पांच में से चार ने कहा कि महामारी के बाद से ही उनके भोजन में पोषण गुणवत्ता खराब हो गई थी. ”
एक ऐसे देश के लिए जो अपने बढ़ते युवा वर्क फोर्स का आर्थिक फायदा उठाना चाहता है, उनमें कुपोषण के आर्थिक प्रभाव उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता .
इसके अलावा, भारत में हर पांच में से एक बच्चा बहुत दुबला-पतला है. यह आंकड़ा जो 1990 के दशक की शुरुआत से मुश्किल से बढ़ा है. यह विश्व स्तर पर उच्चतम दरों में से एक है और बाल मृत्यु दर के लिए एक प्रमुख रिस्क है. यह सब खराब पोषण पहुंच की पुरानी स्थिति और भारत के खराब विकास और विकासात्मक प्रदर्शन के साथ इसके संयुक्त प्रभाव को उजागर करता है. यह भारत के गरीब और निम्न-आय वाले समूहों के लिए मैक्रो और माइक्रो सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को और भी निराशाजनक बनाता है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इक्नॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वे कार्लटन यूनिवर्सिटी में इक्नॉमिक्स डिपार्टमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Deepanshu_1810 है. यहां एक ओपिनियन पीस है. इसमें उल्लेखित विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है और ना ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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