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मेडिकल लापरवाही और मेडिकल चूक भारत में कोई नई बात नहीं. 2017 की हार्वर्ड की एक स्टडी में कहा गया है कि भारत में हर साल मेडिकल लापरवाही के कारण पचास लाख लोगों की मौत होती है, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा पांच लाख से भी कम है.
कोई इन आंकड़ों पर बहस कर सकता है, लेकिन जिन्होंने डॉक्टरों की बेरुखी और पैरामेडिक्स की बेदर्दी देखी है, वे जानते हैं कि मेडिकल लापरवाही और चूक हमारे देश में बहुत आम और काबू से बाहर की बात है.
जेकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य (2005) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने डॉक्टरों के क्रिमिनल प्रॉसीक्यूशन को बहुत मुश्किल बना दिया है.
लापरवाही की यह कथित घटना चार साल पहले घटी थी.
प्रशासनिक कार्रवाई के किसी भी मानदंड के हिसाब से कोई भी जांच चार साल नहीं चलनी चाहिए और फिर उस पर फैसला लिया जाना चाहिए.
फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने सस्पेंशन के लिए 90 दिनों की सीमा तय की थी.
2019 में उसे दूसरे मामले में सस्पेंड कर दिया गया. उस पर बहराइच जिला अस्पताल में मरीजों का जबरन इलाज करने और सरकारी नीतियों की आलोचना करने का आरोप लगाया गया. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सितंबर 2021 में उसके सस्पेंशन पर स्टे लगा दिया.
प्रशासनिक दुर्व्यवहार का यह मुद्दा अहम है क्योंकि यहां विचाराधीन डॉक्टर एक ऐसा व्यक्ति है जिसे बाद में झूठे आपराधिक आरोपों के तहत गलत तरीके से कैद किया गया था.
इस डॉक्टर का नाम है कफील अहम खान और उन्हें अस्पताल में ट्रैजेडी के सिलसिले में पहले करीब आठ महीने (सितंबर 2017 से अप्रैल 2018) के लिए जेल भेजा गया था और फिर दिसंबर 2019 में अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान कथित रूप से भड़काऊ भाषण देने के लिए.
राज्य सरकार इसके लिए सुप्रीम कोर्ट गई और दिसंबर 2020 में उसकी याचिका खारिज कर दी गई!
अगस्त 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने डॉ. कफील के खिलाफ सारी आपराधिक कार्रवाइयां रद्द कर दी.
सरकारी मेडिकल कॉलेज में ऐसा मानने की कोई वजह नहीं कि वॉर्ड का इनचार्ज पीडियाट्रीशियन ही मुख्य रूप से अस्पताल में ऑक्सीजन की उपलब्धता के लिए जिम्मेदार होता है. यह मुख्यतया एक प्रशासनिक काम है.
अगर बिल क्लियर करने में देरी होती है तो उसके लिए प्रशासनिक स्टाफ जिम्मेदार है- यह अलग बात है कि अक्सर संस्थाएं बिल्स पर कई लोगों से दस्तखतों को अनिवार्य बनाती हैं और इस तरह जिम्मेदारियां बांट देती हैं.
इस तरह वही लोग यह बता सकते हैं कि क्या बजट समय पर उपलब्ध था या उसे तब मुहैय्या कराया गया जब वित्तीय वर्ष खत्म होने वाला था. यह सप्लायर बता सकता है और पुलिस जांच कर सकती है कि क्या बिल क्लियर करने के लिए रिश्वत मांगी गई थी और बिल्स को सिर्फ इसलिए रोककर रखा गया था क्योंकि रिश्वत नहीं दी गई थी.
जब कोई मरीज अस्पताल में भर्ती होता है तो उसे यह नहीं बताया जाता कि सिर्फ डॉ. एक्स और पैरामेडिक्स ए, बी, सी वगैरह उसकी देखभाल के लिए जिम्मेदार होंगे. अगर कोई मरीज इस बात का अनुरोध करे और यह लिखकर दे कि फलां सर्जन उसकी सर्जरी करेगा, तो भी वह सर्जन उसके साथ चौबीसों घंटे मौजूद नहीं होता.
ऑपरेशन के बाद उसकी देखभाल का जिम्मा रेज़िडेंट ड्यूटी डॉक्टर्स और पैरामेडिक्स का होता है जो रोटेशन के हिसाब से आते हैं. मरीज को पहले से उनके नाम नहीं पता होते. इसलिए वह अस्पताल के साथ कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं कर सकता कि सिर्फ फलां-फलां डॉक्टर और नर्से ऑपरेशन के बाद उसकी देखभाल करेंगे.
अगर ऑपरेशन के बाद कोई मेडिकल लापरवाही होती है तो मरीज सबसे पहले अस्पताल प्रबंधन पर मुकदमा करेगा, फिर अगर वह ड्यूटी डॉक्टर और पैरामेडिक्स की पहचान कर पाता है तो बाद में उसमें उनके नाम भी शामिल किए जा सकते हैं.
राज्य सरकार यह कहकर इस जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उसने जांच की है और जिन लोगों ने अपराध किया है, उन्हें सजा दे दी गई है.
अगर इस तर्क को मान लिया जाए तो राज्य सरकार के ऐसे मेडिकल संस्थान हमेशा चलते रहेंगे जहां कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार का बोलबाला है.
जैसे पुलिसिया उत्पीड़न या बुरे इरादे से आरोप लगाने के मामले में, अदालतें मुआवजे का आदेश देती हैं. लेकिन यह मुआवजा सरकार देती है, शायद ही कोई पुलिस अधिकारी को यह चुकाना पड़ता हो.
राजनीतिक दल और मुख्य रूप से कांग्रेस के नेता डॉ. कफील के ट्रायल और दिक्कतों को तुरंत उनकी मुसलिम पहचान और “हेट एजेंडा” से जोड़ रहे हैं. सच्चाई यह है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आपराधिक आरोपों से मुक्त किया है और यह सरकार के मुंह पर तमाचे जैसा है. यह भी सच्चाई है कि विधानसभा चुनाव सिर पर हैं.
बेशक, मैं फिलहाल ऐसा अनुमान नहीं लगाऊंगा क्योंकि इस समय हमारे पास इस संबंध में पर्याप्त सबूत नहीं हैं.
डॉ. कफील ने कथित तौर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को भी लिखा है कि भारत में "असहमति के स्वरों को दबाने" के लिए बड़े पैमाने पर अधिकारों का 'उल्लंघन' और कड़े कानूनों के 'दुरुपयोग' किया जा रहा है. लेकिन यह यहां अप्रासंगिक है.
मैं इस बात की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं करता लेकिन डॉ. कफील का कहना है कि आठ डॉक्टर और दूसरे कर्मचारियों को सस्पेंड किया गया था, लेकिन सिर्फ उन्हें सजा दी गई और बाकी के सब बहाल कर दिए गए.
उन्होंने यह भी कहा है कि पहली जांच में उन्हें क्लीन चिट मिलने के बाद अक्टूबर 2019 में सरकार ने फिर से जांच के आदेश दिए. सरकार का दावा था कि पहली जांच में कुछ तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया गया था. उनका कहना है कि उन्होंने हाई कोर्ट में दूसरी जांच को चुनौती दी है और सुनवाई की अगली तारीख 7 दिसंबर है.
हालांकि, सरकार ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. प्रिंसिपल सेक्रेटरी (मेडिकल एजुकेशन) ने कहा है कि खान की बर्खास्तगी का पूरा ब्यौरा अदालत में दिया जाएगा. जाहिर सी बात है, उनकी कथित प्राइवेट प्रैक्टिस को भी ध्यान में रखा जाएगा.
सरकार की मंशा पर शक होने की भी वजहें हैं. चूंकि पहले भी उन्हें झूठे आपराधिक मामलों में फंसाकर परेशान किया जा चुका है. अगर ऐसा दागदार इतिहास न होता तो शायद सरकार पर संशय करने में हिचकिचाहट होती.
तब से उन्होंने हाई कोर्ट में इंसाफ की लंबी कानूनी जंग लड़ी है. अब वह अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ लंबी और थकाऊ लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं. यह बहुत तकलीफदेह बात है.
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और केरल के डीजीपी रह चुके हैं. ‘स्टेट परसिक्यूशन ऑफ मायनॉरिटीज़ और अंडरप्रिविलेज्ड इन इंडिया’ और ‘वाई रेप्स: इंडियाज़ न्यू एपिडेमिक’ सहित उन्होंने 49 किताबें लिखी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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