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एससी एसटी अत्याचार निरोधक कानून के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों निरस्त कर दिया है. इसे लेकर राजनीतिक सामाजिक हलके में भारी बवाल मचा हुआ है. मामला इतना गंभीर है कि सत्ताधारी एनडीए के कुछ सहयोगी दलों और दो केंद्रीय मंत्रियों ने भी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने के लिए केंद्र सरकार से मांग की है.
केंद्रीय मंत्रियों रामदास अठावले और रामविलास पासवान के अलावा थावर चंद गहलोत भी चाहते हैं कि सरकार इस मामले में कुछ करे. संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने कानून को कमजोर बनाने का विरोध किया है. बीजेपी के कई सांसदों ने सरकार से हस्तक्षेप करने की मांग की है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद 2015 में संशोधन लाकर इस कानून को सख्त बनाया था. इसके तहत विशेष कोर्ट बनाने और तय समय सीमा के अंदर सुनवाई पूरी करने जैसे प्रावधान जोड़े गए हैं. 2016 को गणतंत्र दिवस के दिन से संशोधित एससी-एसटी कानून लागू हुआ और अब न्यायपालिका ने विपरीत यात्रा करते हुए उस कानून के नाखून और दांत तोड़ दिए.
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने दुरुपयोग के आंकड़ों के बिना मान लिया कि इस कानून का दुरुपयोग होता है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुरुपयोग के कुछ मामले हुए होंगे. लेकिन दुरुपयोग का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है. और फिर यह किसी भी कानून के लिए सच है कि उसका दुरुपयोग हो सकता है.
यह जांच एजेंसियों और न्यायपालिका पर है कि किसी कानून का दुरुपयोग न हो. सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में तर्क आश्चर्यजनक है. कोर्ट ने 2015 के आंकडों के हवाले से कहा है कि 15 से 16 फीसदी मामलों में पुलिस क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर देती है और 75 फीसदी मामलों में अभियुक्त छूट जाते हैं.
लेकिन इन आंकड़ों का यह भी मतलब है कि कानून का सही ढंग से अमल नहीं होता और जांच एजेंसियां सही ढंग से अपना काम नहीं करतीं. भारत की विशिष्ट सामाजिक स्थितियों में ऐसा होना बिल्कुल संभव है क्योंकि संस्थाओं में उच्च पदों पर दलितों और आदिवासियों का न के बराबर प्रतिनिधित्व है. न्याय पाना उनके लिए आसान नहीं है.
इसी लिए एससी-एसटी एक्ट जैसे कानून की जरूरत पड़ी. ज्यादातर मामलों में अभियुक्तों से छूटने के आंकड़ों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट यह भी कह सकती थी कि जांच एजेंसियां और न्यायिक संस्थाएं सही तरीके से काम करें. सुप्रीम कोर्ट सरकार को निर्देश दे सकती थी कि इस कानून के सही अमल का बंदोबस्त करे. लेकिन इसके बदले कोर्ट ने कानून को ही कमजोर बनाने का निर्णय दिया.
यह फैसला लागू हुआ तो एससी-एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी लगभग असंभव हो जाएगी. सरकारी कर्मचारी या अफसर की गिरफ्तारी के लिए उसके नियोक्ता अफसर की मंजूरी चाहिए. अगर व्यक्ति सरकारी कर्मचारी नहीं है तो एसएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी की सहमति से ही गिरफ्तारी हो पाएगी.
किसी कर्मचारी का बॉस सामान्य स्थितियों में अपने जूनियर की गिरफ्तारी के लिए सहमत क्यों होगा. अगर वह स्वजातीय हुआ तो गिरफ्तारी के लिए मंजूरी मिलना और मुश्किल हो जाएगा. गैर-सरकारी कर्मचारी के मामले में एसएसपी से मंजूरी मिलना भी एक जटिल प्रक्रिया है. यहां भी जाति और जान-पहचान का तर्क काम कर सकता है.
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिम जमानत का भी प्रावधान कर दिया है, जिसकी व्यवस्था मूल कानून में नहीं है. साथ ही, एफआईआर दर्ज करने से पहले शुरुआती जांच को भी अनिवार्य बना दिया गया है. यानी कुल मिलाकर स्थिति यह है कि इस कानून के तहत गंभीर से गंभीर मामले में न तो तत्काल मुकदमा कायम होगा और न ही तत्काल गिरफ्तारी होगी. जबकि यही दो बातें इस कानून को विशेष बनाती हैं.
1989 में इस कानून को एक खास जरूरत के कारण बनाया गया था. 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही दलितों पर अत्याचार रुके. यह एक तरह से एससी और एसटी के साथ भारतीय राष्ट्र द्वारा किए गए समानता और स्वतंत्रता के वादे का उल्लंघन हुआ. देश की चौथाई आबादी इन समुदायों से बनती है और आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद खराब है.
इस एक्ट के तहत सरकार के कुछ कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं. इस एक्ट को कमजोर करने या इसकी आलोचना करने से पहले यह देखना चाहिए कि पिछले 28 साल में इन प्रावधानों का सरकारों ने क्या किया. ये प्रावधान इस तरह हैं-
अत्याचार से पीड़ित व्यक्तियों को पर्याप्त सुविधाएं और कानूनी मदद दी जाए, ताकि वे न्याय प्राप्त कर सकें.
इस धारा के तहत मामलों में जांच और सुनवाई के दौरान पीड़ितों और गवाहों की यात्रा और जरूरतों का खर्च उठाया जाए.
अत्याचार के पीड़ितों के आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था की जाए.
इस एक्ट के तहत प्रोसिक्यूशन की प्रक्रिया शुरू करने और उसकी निगरानी करने के लिए अफसर नियुक्त किए जाएंगे.
इन उपायों के अमल के लिए राज्य सरकार जैसा उचित समझेगी, उस स्तर पर कमेटियां बनाई जाएंगी.
इस एक्ट के प्रावधानों की बीच-बीच में समीक्षा की जाए, ताकि उनका सही तरीके से इस्तेमाल हो सके.
उन क्षेत्रों और पता लगाना जहां एससी और एसटी पर अत्याचार हो सकते हैं और उसे रोकने के उपाय करना.
ये सारे प्रावधान एक्ट में ही किए गए हैं. अगर एसी-एसटी एक्ट को लागू करने की इन कसौटियों को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है. एससी-एसटी एक्ट के छिटपुट गलत इस्तेमाल की तुलना में बहुत बड़ी समस्या यह है कि यह एक्ट सही मायने में कभी लागू ही नहीं किया जाए. जरूरत इस बात की है कि एससी-एसटी एक्ट को लागू किया जाए. अगर इस क्रम में कुछ निर्दोष लोगों को सजा हो जाती है, तो इसे उस ऐतिहासिक अपराध का प्रायश्चित्त माना जाए जो उसके पूर्वजों ने किए हैं.
इस फैसले में एक और गंभीर समस्या है, जिसकी ओर बीजेपी के ही एक दलित सांसद ने इशारा किया है. उनका कहना है कि यह कानून संसद ने पारित किया है. देश में कानून बनाने की यही प्रक्रिया है. कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता है. वहीं, न्यायपालिका को कानून की समीक्षा करने का हक है, कानून बनाने का नहीं.
संसद द्वारा पारित एससी-एसटी एक्ट में संशोधन करने का अधिकार भी संसद का ही है. न्यायपालिका ने इस एक्ट को कमजोर करने के लिए हस्तक्षेप करके अपनी भूमिका से आगे बढ़कर काम किया है. सरकार को अपने सांसदों और मंत्रियों की मांग मानकर सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन फाइल करना चाहिए.
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Published: 24 Mar 2018,12:58 PM IST