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पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग ने क्यों नहीं निभाई ‘आचार संहिता’?

चुनाव रैलियों के दौरान तमाम संवैधानिक संस्थाएं चुप रहीं

प्रेम कुमार
नजरिया
Published:
पश्चिम बंगाल में अमित शाह की रैली (20 दिसंबर)
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पश्चिम बंगाल में अमित शाह की रैली (20 दिसंबर)
(फोटो: ट्विटर/BJP)

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19 अप्रैल को बीजेपी ने कहा कि वो बंगाल में अब छोटी रैलियां ही करेगी. पीएम की रैली में भी 500 से ज्यादा लोग नहीं होंगे. 22 अप्रैल को कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना संकट में अपनी व्यस्तता के चलते पश्चिम बंगाल में 23 अप्रैल को चुनावी रैली को नहीं करेंगे. शाम पांच बजकर 24 मिनट पर पीएम मोदी ट्वीट कर यह जानकारी देते हैं. करीब साढ़े चार घंटे बाद रात 10 बजे चुनाव आयोग एक आदेश अपलोड करता है जिसमें रोड शो, पद यात्रा, साइकिल/बाइक/वाहन रैली, 500 लोगों से अधिक की रैली पर रोक लगाने का आदेश होता है. इस किस्म के आयोजनों के लिए पहले से ली गयी अनुमतियां भी रद्द कर दी जाती है. क्या दोनों घोषणाओंके बीच कोई संबंध है? या फिर यह महज इत्तेफाक है?

चुनाव अभियानों के दौरान चुप क्यों रहीं संवैधानिक संस्थाएं?

पश्चिम बंगाल में पीएम नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, शिवराज सिंह चौहान और योगी आदित्यनाथ की दर्जनों रैलियां होती रहीं, सोशल डिस्टेंसिंग का मजाक उड़ता रहा, कोविड प्रोटोकॉल तोड़े जाते रहे. मगर, किसी संवैधानिक संस्था ने कोई पहल नहीं की. कोलकाता हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वत: संज्ञान नहीं लिया. इन संवैधानिक संस्थाओं की वर्तमान में सक्रियता और पूर्व में निष्क्रियता के मायने खोजे जाने चाहिए कि नहीं? उनके आचरण से राजनीतिक रूप से किसे नुकसान हुआ या फायदा अथवा किसे नुकसान या फायदा होने वाला है- इस प्रश्न की क्या अनदेखी हो सकती है?

केंद्र सरकार के तमाम मंत्री, सांसद ताबड़तोड़ रैलियां करते हुए ममता बनर्जी पर राजनीतिक हमला बोलते रहे. ममता को मियां, बानो, दीदी ओ दीदी, मुस्लिम परस्त, तोलाबाज, ड्रामेबाज, पैर टूटने का बहाना करने वाली कहा गया. बरमुडा पहनने की सलाह दी गई. ममता ने भी भाषा की मर्यादा तोड़ी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद धर्म के आधार पर वोट मांगने की अपील कर डाली. हालांकि अपील करने का ढंग कुछ अलग था. यहां तक कि बांग्लादेश जाकर मतदान के दिन मतुआ समुदाय को रिझाने के लिए वहां मंदिर का दौरा कर डाला जिसका लाइव प्रसारण पूरे देश में हुआ. मगर, कार्रवाई किस पर हुई? ममता बनर्जी पर. बाद में निष्पक्ष दिखने की कोशिश करते हुए दिलीप घोष और शुभेंदु अधिकारी पर भी कार्रवाई हुई.
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सीईसी के आखिरी फैसले में ममता पर ‘निर्ममता’ क्यों?

ममता बनर्जी पर चुनाव आयोग ने कब कार्रवाई की? याद कीजिए वह दिन 12 अप्रैल था. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा की सेवानिवृत्ति से पहले कामकाज का आखिरी दिन. प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और वो तमाम लोग जिन्होंने चुनाव आचारसंहिताएं तोड़ीं, उन पर उन्होंने कार्रवाई करने का दम नहीं दिखलाया. असम में बीजेपी नेता हेमंत बिस्वा शर्मा पर चुनाव आयोग ने कार्रवाई की थी लेकिन 48 घंटे के चुनाव प्रचार पर रोक के दंड को आधा करने की घोषणा उन्हें क्यों करनी पड़ी यह समझ से परे है. ऐसा ही दंड तमिलनाडु में ए राजा को चुनाव आयोग ने दिया था. उनकी सज़ा तो कम नहीं की गयी?

कोरोना को देखते हुए आखिरी तीन चरणों के चुनाव एक साथ कराने की मांग टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने की थी. मगर, चुनाव आयोग ने इसे कानूनी रूप से अव्यावहारिक बताते हुए खारिज कर दिया. इसका मतलब यह भी हुआ कि चुनाव आयोग ने ममता की मांग को सही माना लेकिन उस पर अमल करना कानूनी नजरिए से उसके लिए संभव नहीं था.

यह एक तरह से पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में चुनाव कराने के फैसले की गलती को भी स्वीकारना है. मगर, चुनाव आयोग यही गलती खुलकर स्वीकार करने को सामने नहीं आया.

करोना काल में ही तय हुए थे चुनावी कार्यक्रम और महाकुंभ

जब चुनाव कार्यक्रम तय हुए तब भी देश में कोरोना का संक्रमण था. यह लगातार गंभीर होता चला गया. कुंभ के आयोजन में केंद्र और उत्तराखण्ड सरकार थी. स्पेशल ट्रेन चलाई गयीं. सरकारी विज्ञापन दिए गये. हरिद्वार में एक दिन में 30 लाख से ज्यादा लोगों के स्नान करने का रिकॉर्ड बना. जब खुद महामंडलेश्वर की मौत हुई, सैकड़ों की तादाद में साधु कोरोना संक्रमित होने लगे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘प्रतीकात्मक कुंभ’ का सुझाव देकर इस महाकुंभ को समय से पहले खत्म कराया. यहां भी देश के संवैधानिक संस्थानों की कोई भूमिका नजर नहीं आयी.

महाकुंभ के प्रतीकात्मक होने के बाद से ही यह लगने लगा था कि चूंकि पश्चिम बंगाल में आखिरी के तीन चरणों में बीजेपी के लिए राजनीतिक रूप से बहुत कुछ दांव पर नहीं होगा, इसलिए वहां भी कोविड प्रोटोकॉल पर जोर देने की रणनीति ही ‘सियासत’ होगी. चुनाव आयोग के फैसले को क्यों नहीं इसी नजरिए से देखा जाए? इस फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान तो ममता बनर्जी को ही होना है. सबसे ज्यादा जीती हुईं सीटें इन चरणों में टीएमसी के ही पास हैं.

राहुल-ममता ने पहल की, बीजेपी दूर रही

कोविड के हालात को देखते हुए कांग्रेस के राहुल गांधी ने सबसे पहले पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार नहीं करने का फैसला किया. बीजेपी ने इसका मजाक उड़ाया था और आधार यही था कि सियासी रूप से उनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है. इसलिए वो ऐसा कह रहे हैं. फिर ममता बनर्जी ने खुद अपनी रैलियों का समय कम करने की घोषणा की. बीजेपी ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की कि वो पश्चिम बंगाल में चुनावी रैलियां रोकने जा रही है. वो रणनीतिक रूप से चली. ऐन वक्त पर तकनीकी कारणों से गृहमंत्री अमित शाह की रैली रद् हुई. पीएम मोदी ने भी कोरोना की मीटिंग को देखते हुए अपने कार्यक्रम रद्द करने की घोषणा की. मगर, चुनाव आयोग ने तो मानो उनकी मन की मुराद ही पूरी कर दी. हालांकि रैलियों में लोगों की संख्या करने को लेकर बाद में फैसला जरूर लिया गया.

अब बीजेपी को अपने चुनावी कार्यक्रम रद्द करने की घोषणा नहीं करनी होगी. जिन्हें चुनाव में हार का डर सता रहा होगा वही कोरोना के बहाने चुनाव मैदान से भाग रहे होंगे. बीजेपी चुनाव मैदान में डटी रही. संवैधनिक संस्थाएं उनकी ज़ुबान बोलती दिखी. पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे जो भी हों वह तो याद रखे जाएंगे लेकिन चुनाव अभियान खास तौर से याद रखा जाएगा.

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