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प्रचंड जनादेश के बाद भी यूपी सीएम चुनने में पेच कहां फंसा है?

पीएम ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में बड़ी जाति समूह के नेता की उपेक्षाकर अपनी पसंद के हिसाब से नेता चुना

शंकर अर्निमेष
नजरिया
Updated:
(फोटो: द क्विंट)
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(फोटो: द क्विंट)
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राजनीति में अपार जनसमर्थन जिम्मेदारियां लाता है और कई बार बहकाता भी है. चुनाव खुद करना होता है कि किस रास्ते को चुनना है. यूपी में मिले प्रचंड जनादेश के बाद जनाकांक्षाओं के रथ पर सवार बीजेपी की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. इन्हीं दबाव के तले बीजेपी को मुख्यमंत्री का नाम चुनने में खासा माथापच्ची करनी पड़ रही है.

नतीजा घोषित हुए हफ्ता पूरा होने को है, लेकिन घोषित पर्यवेक्षक लखनऊ जाने का नाम नहीं ले रहे. पहले 15 मार्च को विधायक दल का नेता चुनने के लिए वेंकैया नायडू और भूपेन्द्र यादव को लखनऊ जाना था, लेकिन जब दिल्ली में ही नाम पर सहमति नहीं बनी, तो अंतिम समय में पर्यवेक्षकों को दौरा टालना पड़ा.

जहां बीजेपी के पास साफ बहुमत नहीं था, वहां एक घंटे में मनोहर पर्रिकर रक्षामंत्री के पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बन गए. जहां संख्याबल की कमी नहीं, वहां योग्य उम्मीदवार के टोटे पड़ गए हैं.

यूपी ने जनादेश तो मोदी के नाम पर दे दिया, पर जनादेश के हिसाब से नेता भी हो, इस सवाल का उलझन ही देरी की वजह है, क्योंकि यूपी हरियाणा नहीं है.

यूपी मिनी हिन्दुस्तान है, जहां से लोकसभा की 80 सीटें हैं. बिहार, मध्य प्रदेश व हरियाणा मिल जाएं, तब यूपी बनता है. बीजेपी वहां कोई गफलत नहीं करना चाहती, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में दो साल ही बचे हैं.

ताज किसे पहनाएं, पिछड़े को या सवर्ण को?

पहली उलझन ये है कि 2019 के लोकसभा चुनाव को साधने के लिए समाजिक समीकरण के हिसाब से पिछड़े वर्ग का चेहरा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सूट करता है. इस चुनाव में बीजेपी को गैर यादव ओबीसी, एमबीसी और ईबीसी जातियों ने छप्पर फाड़कर वोट दिया है. पिछड़े-अगड़ों का गठबंधन बनाकर बीजेपी ने यूपी की राजनीति के पोस्टर बॉय कल्याण सिंह को भी मात दे दी. बीजेपी को संख्या तो मिल गया, पर अगले 20-25 साल की राजनीति में टिके रहने वाला कल्याण सिंह जैसा चेहरा नहीं.

उत्तर प्रदेश के BJP के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य (फाइल फोटो: पीटीआई)
अब दुविधा यह है कि बीजेपी भविष्य की राजनीति के मुताबिक केशव प्रसाद पर दांव चल उन्हें कल्याण सिंह की लीजेंडरी इमेज में फिट करे या अपने पारंपरिक वोटबैंक ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार को तुष्ट करे.

इस उलझन में से निकलते हैं मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदार- गृहमंत्री राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ, ब्राह्मण दिनेश शर्मा और भूमिहार मनोज सिन्हा. पर बीजेपी में एक चिंतन ये भी है कि सवर्णों का सशक्तिकरण तो केन्द्र में बैठे मोदी ब्रांड से हो जा रहा है, तो फिर राज्य में सवर्ण नेतृत्व देने की क्या जरूरत है? वहां विधानसभा में अपार जनमत के आंकड़े तक पहुंचाने वाले जाति समूह को और सशक्त करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए. यह गणित पिछड़े वर्ग के दावेदारों की लॉटरी खोलता है, पर पेच और भी है.

जाति समीकरण बि‍ठाने में प्रशासनिक अनुभव को नजरअंदाज कर देगी BJP?

बीजेपी हाईकमान जाति पर सहमत तो दो दिनों में हो गया, पर अनुभव का उलझन सामने आकर खड़ा हो गया. यूपी जैसे बड़े राज्य को चलाने के लिए बिना प्रशासनिक अनुभव वाले शख्‍स को ताज पहनाना कितना कारगर होना? या कहें आत्मघाती होगा?

केशव मौर्य जाति के समीकरण में फिट बैठते हैं, पर अनुभव में मार खा जाते हैं. अनुभव की कसौटी पर संतोष गंगवार पिछड़ों से और मनोज सिन्हा, राजनाथ सिंह सवर्णों में सबसे फिट बैठते हैं.

यूपी में ऐतिहासिक जीत के बाद प्रधानमंत्री के बीजेपी दफ्तर में दिए गए संबोधन से इशारा मिला था कि वो किसी ज्यादा एक्सपोज्‍ड चेहरों से इतर के विकल्पों पर सोच रहे हैं. प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा था कि बहुत से ऐसे लोग भी चुनकर आए हैं, जिन्हें कैमरे पर आपने नहीं देखा होगा, पर वो भी सीख जाएंगे. पर नेता चुनने में देरी से प्रधानमंत्री का संकेत भी पार्टी के नेता डीकोड नहीं कर पा रहे.

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जाति-निरपेक्ष चेहरा भी एक मजबूत विकल्प है?

कानपुर से सातवीं बार विधायक चुने गए वित्तमंत्री जेटली के करीबी सतीश महाना को जैसे ही बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने दिल्ली बुलाया, सीएम दावेदारों ने समझ लिया कि महाना यूपी के अगले मुख्यमंत्री होंगे. महाना मंत्री रह चुके हैं और लोकप्रिय छवि के नेता हैं, पर जातियों में बंटे यूपी में वो नगण्य खत्री समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं.

बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो: Reuters)

कहानी में और टि्वस्ट तब आया, जब सहारनपुर से आठ बार जीत का परचम लहराने वाले और कांग्रेस के जतिन प्रसाद को हराने वाले सुरेन्द्र खन्ना को भी बुला लिया गया. सुरेन्द्र खन्ना भी यूपी के हिसाब से जाति-निरपेक्ष हैं पंजाबी खत्री हैं.

मोदी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में बड़ी जाति समूह के नेता की उपेक्षाकर अपनी पसंद के हिसाब से नेता का चुनाव किया. इस थ्योरी के मुताबिक, जाति-निरपेक्ष चेहरे के चुनने से बाकी जातियों में प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य नहीं फैलता है और वो समान भाव से उस पार्टी के साथ जुड़े रहते हैं.

न जाति तुष्‍ट‍िकरण का आरोप लगता है, न बाकी जातियों के विद्रोह से नुकसान होने की चिंता. इस रणनीति के मुताबिक, महाना और खन्ना गंभीर दावेदार हैं, पर इसमें भी पेच है. सहमति बन गई होती और अमित शाह व प्रधानमंत्री मोदी रिस्क उठाने को लेकर इतने आश्वस्त होते, तो विधायक दल की बैठक टलती नहीं.

राजनाथ सिंह फैक्टर भी देरी की वजह है

नाम चुनने में देरी की वजह गृहमंत्री राजनाथ सिंह फैक्टर भी है. यूपी में बीजेपी के 325 के इतने बड़े जनादेश के हिसाब से सर्वमान्य चेहरा गृहमंत्री राजनाथ सिंह हो सकते हैं, पर इसमें दिक्‍कत दोतरफा है.

एक तो राजनाथ उन गलियों में वापस नहीं जाना चाहते, जिन्हें छोड़कर वो आगे बढ़ चुके हैं. कद के हिसाब से उन्हें गृहमंत्री का पद छोड़कर मुख्यमंत्री पद पर लौटना सही नहीं लगता. दूसरी वजह विश्वास का संकट भी है. बीजेपी अध्यक्ष को लगता है कि ठाकुर नेता को 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य का तोहफा देकर वो कहीं गलती तो नहीं कर बैठेंगे? राजनीति में बाजी पलटने में कितनी देर लगती है.

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह (फाइल फोटोः IANS)

बीजेपी बाकी जाति समूह को संतुष्ट करने के लिए मुख्यमंत्री के अलावा उपमुख्यमंत्री बनाने का विकल्प आजमा सकती है.

मुख्यमंत्री के साथ-साथ यूपी मंत्रिमंडल के सदस्यों का चुनाव भी बीजेपी के लिए एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. पर चेहरा जो भी हो, उसके सामने जनता की बड़ी आकांक्षाओं को पूरा करने के साथ-साथ अमित शाह-नरेंद्र मोदी की आंकाक्षाओं पर भी खरा उतरने का जबरदस्‍त दबाब होगा. बीजेपी के 312 विधायक उन्हें सोने नहीं देंगे और 73 सांसद लाने का आंकड़ा उन्हें जगने नहीं देगा.

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(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 17 Mar 2017,12:04 PM IST

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