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पंजाब से राष्ट्रीय राजधानी को कूच करने वाले 200 से ज्यादा किसान संगठनों (Farmers Protest) की ‘दिल्ली चलो’ की मुख्य मांगों में से एक है, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की कानूनी गारंटी.
पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के किसानों की यह मांग नई नहीं है. इससे पहले के किसान आंदोलन में भी यही बात दोहराई गई थी और यह सच है कि इन दोनों राज्यों के साथ-साथ दूसरे राज्यों के किसानों को एमएसपी से काफी मदद मिली है. उनकी फसलों के पैटर्न में सुधार हुआ है, और समय के साथ अपनी उपज से उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ है.
जैसा कि हरीश दामोदरन ने एमएसपी की मांग और उसकी वजहों के बारे में लिखा है, इसके लिए हमें यह समझने की जरूरत है कि अधिकतर जगहों पर किसान अपनी फसलों को बाजार में कैसे बेचते हैं.
कृषि क्षेत्र की स्थिति और किसानों की जीविका का विश्लेषण करने पर एक और मुद्दा साफ होता है- किसान और राज्य के बीच का भरोसा, जो टूट गया है.
किसान और राज्य के बीच भरोसे का टूटना, आजाद भारत की सबसे बड़ी नाकामी है, और ग्रामीण शहरी असमानता का एक बड़ा कारण भी.
इस लेखक ने इस बारे में पहले भी लिखा है कि कैसे भारत के कृषि संकट की जड़ें 5पी से जुड़ी हैं: प्राइज (मूल्य), प्रोड्यूस (उत्पाद), पोजिशन (स्थिति), प्रॉफिटेबिलिटी (लाभ के योग्य) और प्रोटेक्शन (सुरक्षा). जैसा कि आसानी से समझा जा सकता है, ये 5पी किसी भी उद्यम के लिए (यहां तक कि खेती के लिए भी) रणनीतिक केंद्र के मूल स्तंभ हैं.
इसके अलावा, कृषि उत्पादों की खपत के हमारे शहरी पूर्वाग्रह मौसमी कीमतों में उतार-चढ़ाव लाते हैं जो कभी-कभी समाचार चैनलों पर चेतावनी के तौर पर नजर आते हैं.
सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज की पिछली स्टडी में हमने हरियाणा में औसत कृषि भूमि के आकार का अध्ययन किया था. इसमें हमने पाया कि यहां के लगभग 68-70 प्रतिशत किसानों के पास चार से पांच एकड़ से कम रकबा है (अर्थात, 16 प्रतिशत भूमि का स्वामित्व एक से ढाई एकड़ के बीच है; 24 प्रतिशत के पास ढाई से पांच एकड़ के बीच है, और 28 प्रतिशत के पास एक एकड़ से कम है). राष्ट्रीय स्तर पर 80-85 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास ढाई-तीन एकड़ से कम खेती योग्य भूमि है.
ज्यादातर राज्यों, खासकर उत्तर और मध्य भारत में, सभी सूचीबद्ध फसलों के लिए किसानों को एमएसपी नहीं दी जाती, इसके बावजूद कि इसके लिए वे कानूनन बाध्य हैं. भारत का औसतन किसान सरकारी सहयोग के बिना खुद पर निर्भर है, और इसी वजह से बदतर हालात में है. आम जिंदगी जीने के लिए भी वह कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है.
कोविड-19 महामारी के दौरान लॉकडाउन ने देश भर के (खास तौर से हरियाणा और पंजाब में) किसानों की कमर तोड़ी दी थी.
हरियाणा के भिड़नौली गांव के किसान रविंदर ने हमारी टीम को बताया था, “जो सब्जियां हम पहले 30 रुपये किलो (महामारी से पहले के समय में) बेच पाते थे, उसके लिए अब हमें ज्यादा से ज्यादा 10 रुपए ही मिलते हैं. हमारी उपज पहले ही कम से कम 25-30 प्रतिशत गिर चुकी है. जो किसान आम तौर पर लगभग 20 क्विंटल (50 मन) गेहूं उगाते थे, उनकी उपज घटकर 14 क्विंटल (35 मन) रह गई है.”
महामारी के बाद किसानों को नई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. सब्सिडी में कटौती, गेहूं की नई तदर्थ नीतियों और चावल के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे फैसलों के बाद किसानों के लिए मुनाफा कमाना और मुश्किल हो गया है.
कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि किसानों को "कीमत" की बजाय "आय" देना बेहतर है. इसका मतलब होगा कि उनके बैंक खातों में सालाना एक निश्चित राशि हस्तांतरित की जाए, चाहे प्रति किसान (केंद्र की पीएम-किसान सम्मान निधि के रूप में) या प्रति एकड़ (तेलंगाना सरकार की रायथु बंधु) के आधार पर. प्रत्यक्ष आय सहायता योजनाएं बाजार से प्रभावित नहीं होती हैं और सभी किसानों को लाभ पहुंचाती हैं, जैसा कि यहां दामोदरन तर्क देते हैं, चाहे वे कोई भी फसल कितनी भी मात्रा में उगाते हों, और किसी को भी किसी भी कीमत पर बेचते हों.
लेकिन दामोदरन यह भी कहते हैं:
जैसा कि हरीश दामोदरन बताते हैं, ऐसे दो तरीके हैं जिनसे एमएसपी को सरकार के लिए कानूनी तौर से बाध्यकारी बनाया जा सकता है.
पहला तो यह कि प्राइवेट खरीदारों को एमएसपी चुकाने के लिए मजबूर किया जाए. इस स्थिति में कोई भी फसल एमएसपी से नीचे नहीं खरीदी जा सकती है. यह मंडी नीलामी में बोली के न्यूनतम मूल्य के तौर पर काम करेगा.
जैसा कि यहां सुझाव दिया गया है, “प्राइवेट कंपनियां कैसे एमएसपी चुका सकती हैं, उसकी मिसाल पहले से मौजूद है: कानून के तहत मिलों को गन्ने की खरीद के लिए केंद्र की “उचित और लाभकारी कीमत” का भुगतान करना होता है- उत्तर प्रदेश और हरियाणा में राज्य की तरफ से ऊंची कीमतें तय की गई हैं, वह भी आपूर्ति के 14 दिनों के भीतर चुकानी होती हैं. लेकिन निजी व्यापारियों और उद्योगों को किसी भी दूसरी फसल के लिए सरकार की तरफ से तय की गई एमएसपी का भुगतान करने की अनिवार्यता नहीं है."
किसान आंदोलन से पहले, 2019-20 में भारतीय खाद्य निगम, भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन महासंघ और भारतीय कपास निगम (सीसीआई) जैसी सरकारी एजेंसियों ने 77.34 मिलियन टन धान और 38.99 मिलियन टन गेहूं की खरीद की थी. तब एमएसपी पर उनकी कीमत क्रमशः लगभग 140,834 करोड़ रुपये और 75,060 करोड़ रुपये थी. इसके अलावा उन्होंने 105.23 लाख गांठ कपास (कच्चे बिना-गिने कपास के लिहाज से एमएसपी मूल्य 28,202 करोड़ रुपये), 2.1 मिलियन टन चना (10,238 करोड़ रुपये), 0.7 मिलियन टन अरहर (4,176 करोड़ रुपये) और मूंगफली (3,614 करोड़ रुपये), 0.8 मिलियन टन रेपसीड-सरसों (3,540 करोड़ रुपये) और 0.1 मिलियन टन मूंग (987 करोड़ रुपये) खरीदे थे.
दामोदरन समझाते हैं कि, 23 फसलों (जिनके लिए इस समय एमएसपी दी जाती है) के कुल उत्पादन का एमएसपी मूल्य 2019-20 में लगभग 10.78 लाख करोड़ रुपये था. हालांकि, उनके अनुसार, यह सारी उपज मार्केटिंग योग्य नहीं है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार को इसके लिए कोई अतिरिक्त राजकोषीय व्यय करना होगा, यह देखते हुए कि वह पहले से ही एमएसपी पर धान, गेहूं, कपास, दालें, तिलहन आदि (23 फसलों की सूची से) खरीद रही है. इसके अलावा, जैसा कि गन्ने के लिए किया गया है, (जैसा कि हमने ऊपर बताया है), केंद्र और राज्य सरकारें उन निजी फर्मों/खरीदारों से एमएसपी के तहत भुगतान करने को कह सकती हैं, जो वे किसानों से सीधे खरीदते/सोर्स करते हैं.
कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए कुल आवंटन में, 2022-23 में वास्तविक व्यय की तुलना में 22.3 प्रतिशत की गिरावट और 2023-24 के संशोधित बजट की तुलना में 6 प्रतिशत की गिरावट आई है.
2024-25 में उर्वरक सबसिडी के लिए आवंटन 2022-23 में वास्तविक व्यय से 87339 करोड़ रुपये कम है. 2022-23 में खाद्य सबसिडी के लिए आवंटन वास्तविक व्यय से 67552 करोड़ रुपए कम है. इसके साथ ग्रामीण विकास योजनाओं, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, सहयोग, खाद्य भंडारण और वेयहाउसिंग, वृक्षारोपण, फसल पालन, बाढ़ नियंत्रण और जल निकासी, भूमि सुधार, उर्वरक सबसिडी, खाद्य सबसिडी, डेयरी विकास, मिट्टी और जल संरक्षण, सिंचाई, पोषण, ग्रामीण सड़कों, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि के बजटीय आवंटन में कटौती की गई.
इन आंकड़ों को देखकर यह साफ पता चलता है कि मोदी सरकार किसानों और ग्रामीण भारत को प्राथमिकता देने की बजाय निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है. वह खेती के निगमीकरण की कोशिश में है, और इसी के लिहाज से रणनीतियां तैयार कर रही है. वह भी किसानों के कल्याण और आर्थिक खुशहाली की कीमत पर.
(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (सीएनईएस), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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