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देश की चरमराई अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के इरादे से घोषित वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का ताजा पैकैज भी वैसा फायदेमंद साबित नहीं हो सकता, जैसा मेनस्ट्रीम मीडिया में इसे लेकर हवा बनाई गई है. केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए फेस्टिव एडवांस से लेकर एलटीसी कैश वाउचर और राज्य सरकारों को पूंजीगत खर्च के लिए लोन, इन सबको बारीकी से देखेंगे तो ये ऐलान ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ जैसे लग सकते हैं.
वित्तमंत्री ने केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों के लिए स्पेशल फेस्टिवल एडवांस स्कीम के तहत 10 हजार रुपये तक ब्याज-रहित कर्ज लेने की सुविधा का ऐलान किया है. कर्मचारी इस कर्ज को 31 मार्च 2021 तक ले सकते हैं. इसकी किस्तें 10 महीने तक वेतन से काटी जाएगी. जनवरी 2016 में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने से पहले तक कर्मचारियों को साल में एक बार 7,500 रुपये तक का ‘फेस्टिवल एडवांस’जो सुविधा मिलती थी उसे ही 10,000 रुपये करके सिर्फ मौजूदा वर्ष के लिए पुनर्जीवित किया गया है.
जाहिर है, ‘फेस्टिवल एडवांस रूपी ब्याज-मुक्त कर्ज’और ‘एलटीसी कैश वाउचर स्कीम’ के लाभार्थी पेंशनर्स नहीं हो सकते, क्योंकि वो न तो एलटीसी पाते हैं और न ही सैलरी एडवांस की तरह पेंशन-एडवांस के हकदार होते हैं. इसका मतलब ये हुआ कि कटौती तो सबकी की गयी, लेकिन राहत सिर्फ छोटे वर्ग यानी 48 लाख कर्मचारियों को ही मिलेगी. अब समझते हैं कि 10,000 रुपये की सौगात से कर्मचारी आखिर पाएंगे क्या?
कल्पना कीजिए कि अगर सरकार ने इसी रकम को 10 महीने के लिए 6 प्रतिशत ब्याज पर देने की पेशकश बनायी होती तो कर्मचारियों को कितना ब्याज देना पड़ता? ईएमआई की गणना के मुताबिक, 10 हजार रुपये के बदले अगर कर्मचारी 10 महीने तक 1028 रुपये की किस्त भरेगा तो कर्ज उतर जाएगा. यानी, 10,000 रुपये के कर्ज पर दस महीने में 10,280 रुपये चुकाने पड़ेंगे.
यहा 6 प्रतिशत ब्याज इसलिए है, क्योंकि किसान क्रेडिट कार्ड की ब्याज दर 4 प्रतिशत होती है और अगर इसे समय से चुकाये तो कुछ और राहत भी मिलती है. साफ है कि लुभावने ऐलान से कर्मचारियों की ज्यादा से ज्यादा 280 रुपये की लाटरी लग सकती है.
यहां रोचक ये भी होगा कि 28 रुपये महीने की ब्याज-माफी वाला तोहफा रोजाना एक रुपये से भी कम बैठेगा. अब अगर हम ये मान लें कि केन्द्र सरकार के सभी 48 लाख कर्मचारी फौरन बहती गंगा में हाथ धोने के रास्ते पर चल पड़ेंगे तो भी इनकी बदौलत अर्थव्यवस्ता में रोजाना 48 लाख रुपये से ज्यादा खर्च नहीं होंगे.
सरकार से इस साल 200 लाख करोड़ रुपये की जीडीपी का अनुमान लगाया था, हालांकि लॉकडाउन के बाद आये आंकड़ों को देखते हुए लगता है कि साल के अंत तक भारत की जीडीपी 100-110 लाख करोड़ रुपये के आसपास रहेगी. जरा सोचिए कि इसमें 4,800 करोड़ रुपये यानी करीब 0.04 प्रतिशत का पैकेज क्या धमाका पैदा कर पाएगा? जाहिर है, अर्थव्यवस्था हो या सरकारी कर्मचारी दोनों को झुनझुना ही दिखाया जा रहा है.
LTC (लीव ट्रैवल कंसेशन) की कैश वाउचर स्कीम को लेकर भी आंकड़ों की बाजीगरी की गयी है. वित्तमंत्री ने बताया कि सरकार को लगता है कि कोराना प्रतिबंधों के दौर में सरकारी कर्मचारियों ने काफी बचत कर ली है. लिहाजा, अगर बचत को खर्च करने के लिए 48 लाख सरकारी कर्मचारी आगे आ जाएं तो अर्थव्यवस्था को संजीवनी मिल सकती है. इसीलिए LTC कैश वाउचर का सब्जबाग दिखाया गया है, ताकि ये धारणा बनायी जा सके कि अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता वस्तुओं की जबरदस्त मांग पैदा कर दी गयी है.
इसकी बारीकी पर गौर करें तो पता चलता है कि LTC स्कीम की बदौलत ज्यादा से ज्यादा 7,575 करोड़ रुपये ही सरकारी खजाने से निकलकर कर्मचारियों के पास पहुंच सकते हैं. इसमें केन्द्रीय कर्मचारियों का हिस्सा 5,675 करोड़ रुपये होगा तो सरकारी बैंकों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (पीएसयू) के कर्मचारियों के लिए 1900 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है.आंकड़ों को वजनदार बनाने के लिए वित्त मंत्री ने बताया कि इस स्कीम पर मिलने वाले टैक्स की छूट राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को भी मिलेगी, बशर्ते वो केन्द्र सरकार की गाइडलाइंस का पालन करें.
सरकार ने बताया नहीं है कि टैक्स में कितनी छूट पाकर 7,575 करोड़ रुपये के खर्च होने पर अर्थव्यवस्था में करीब 19,000 करोड़ रुपये की मांग पैदा हो जाएगी? इसी तरह, ये ख्याली पुलाव ही है कि भारी वित्तीय तंगी झेल रही राज्य सरकारें भले ही अपने कर्मचारियों को नियमित वेतन नहीं दे पाए, लेकिन केन्द्र की गाइडलाइन्स का पालन करके वो कर्मचारियों को एलटीसी का भुगतान जरूर करेंगी.
ताकि अर्थव्यवस्था में 9,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त मांग पैदा हो जाए और चुटकी बजाकर 28,000 करोड़ रुपये का ‘डिमांड इंफ्जयूजन’ यानी मांग पैदा करने वाले पैकेज का सब्जबाग तैयार हो जाए. यहा वित्त मंत्री ये मानें बैठी हैं कि सभी सरकारी कर्मचारी उनके ‘तोहफे पर टूट पड़ेंगे.हालाकि, ऐसा कभी होता नहीं.
केंद्र सरकार के नियमित कर्मचारियों को चार साल में एक-एक बार ‘एलटीसी’ और ‘होम टाउन’ जाने-आने का किराया मिलता है. एलटीसी के तहत सपरिवार देश भर में कहीं भी घूमने जाने पर खर्च हुए किराये की भरपाई होती है तो ‘होम टाउन’ में पैतृक स्थान आने-जाने का किराया मिलता है. अफसर लोग जहां हवाई किराया पाते हैं, वहीं बाकी तबका राजधानी एक्सप्रेस के एसी-3 का किराया ले सकता है. कर्मचारी चाहें तो एलटीसी के बदले ‘होम टाउन’ ले सकते हैं. दोनों के लिए मौजूदा ब्लॉक इयर 2018 से 2021 तक है.
अभी सरकार को दिख रहा है कि कोरोना प्रतिबंधो को देखते हुए कर्मचारी शायद ही एलटीसी या होम-टाउन का लाभ लें. इसीलिए उन्हें भ्रमण पर गये बगैर तीन स्लैब में एलटीसी वाली रकम देने की नीति बनी, बशर्ते वो इस रकम को ऐसे सामान खरीदने पर खर्च करें जिस पर 12 फीसदी या अधिक जीएसटी लागू हो. ताकि ऐसा न हो कि कर्मचारी फर्जी बिल लगाकर सरकार से रकम तो ले लें लेकिन उसे खर्च नहीं करें. जाहिर है, वित्त मंत्री का पैकेज अगर घूमता हुआ बाजार में नहीं पहुंचेगा तो अर्थव्यवस्था में ‘डिमांड इंफ्जयूजन’ पैदा होने से रहा.
एलटीसी स्कीम का लाभ उठाने की अगली शर्त बहुत पेंचीदा है, क्योंकि इसमें कर्मचारियों को एलटीसी की रकम के मुकाबले तीन गुना ज्यादा रकम का सामान खरीदना होगा. इसका मतलब ये हुआ कि अगर कोई कर्मचारी 50 हजार रुपये की एलटीसी पाने का हकदार है तो उसे स्कीम का फायदा लेने के लिए 1.5 लाख रुपये खर्च करने होंगे. इससे सरकार को कम से कम 18 हजार रुपये की जीएसटी मिल जाएगी.
दरअसल, सरकार ने हिसाब लगाया कि घूमने जाने के लिए मिलने वाली एलटीसी पर कर्मचारियों को होटल का किराया, घूमने-फिरने और खाने-पीने का खर्च तो खुद ही उठाना पड़ता है. बचत के ऐसे खर्च से अर्थव्यवस्था में जो मांग पैदा होती है वही 1.5 लाख रुपये की खरीदारी से पैदा होगी. खर्च बढ़ाने के लिए ही एलटीसी लेते वक्त कर्मचारी को अपने दस दिन तक के अर्जित अवकाश यानी अर्न लीव को भुनाने की छूट दी जाती है. ये रकम ‘कर-योग्य’ होती है, लेकिन वित्तमंत्री के ‘तोहफे’ ने अभी इसे ‘कर-मुक्त’ बना दिया है.
ये ‘कर-मुक्ति’ भी झुनझुना ही है. इसे उदाहरण से समझिए. अगर किसी कर्मचारी का दस दिन का वेतन 25 हजार रुपये है तो 31 मार्च 2021 तक एलटीसी स्कीम का लाभ लेने वाले के लिए ये रकम ‘नॉन टैक्सेबल’ होगी. आमतौर पर ‘लीव इनकैशमेंट’ वही कर्मचारी लेते हैं, जो इसके टैक्स की देनदारी को ‘मैनेज’ करने में सक्षम हों. अन्यथा, इससे परहेज करते हैं.
वित्त मंत्री ने कहा तो सही है कि ढांचागत खर्च से न सिर्फ अल्पकाल में बल्कि भविष्य में भी जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में बेहतरी होती है. लेकिन अगले 50 वर्षों में राज्यों के पूंजीगत खर्च (कैपिटल एक्सपेंडीचर) की खातिर ‘ब्याज-मुक्त स्पेशल लोन ऑफ़र’ के रूप में फिलहाल, वो सिर्फ 12,000 करोड़ रुपये का ही इन्तजाम कर सकीं. इसकी ‘विशालता’भी खासी रोचक है.
इसमें 2,500 करोड़ रुपये का पहला हिस्सा पूर्वोत्तर के 8 राज्यों के अलावा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के लिए आरक्षित हैं, तो राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के बीच दूसरे हिस्से के रूप में 7,500 करोड़ रुपये का बंटवारा होगा. ये काम वित्त आयोग के उस फॉर्मूले के मुताबिक होगा जिससे राज्यों को केन्द्रीय राजस्व मिलता है.
तीसरे हिस्से के रूप में 2,000 करोड़ रुपये उन राज्यों के लिए होंगे जो आत्मनिर्भर वित्तीय पैकेज में तय चार में से तीन सुधारों को अमल में लाएगें. अभी ये सुधार बोझिल हैं, लिहाजा जब तस्वीर साफ होगी तभी तो 2,000 रुपये का बंटवारा होगा. इसीलिए साफ दिख रहा है कि 21 लाख करोड़ रुपये वाले आत्मनिर्भर पैकेज की तरह वित्त मंत्री की ताजा घोषणाएं भी ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ साबित हो सकती हैं.
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