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पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान सुरक्षा में कथित चूक पर राजनीति थमने का नाम नहीं ले रही. आरोप और प्रत्यारोप जारी हैं. हालांकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने राजनीतिक पूर्वाग्रहों से परे जाकर इस पूरे प्रकरण में पेशेवर कमियों पर ध्यान दिया है.
ऐसे कई अहम सवाल हैं जिन पर अधिकारियों की जांच समितियों को सोचना चाहिए. पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दो मुख्य एजेंसियां जिम्मेदार हैं- स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप यानी एसपीजी और पंजाब पुलिस. इन दोनों को कमियों का विश्लेषण करना चाहिए और कुछ सुधार करने चाहिए.
पहली बात, पुलिस को कब यह पता चला कि प्रधानमंत्री सड़क से यात्रा करने की योजना बना रहे हैं? क्योंकि इसी से तय होगा कि राज्य पुलिस के पास सड़क को खाली करने के लिए कितना समय था. यह सड़क करीब 150 किलोमीटर लंबी है. अगर पुलिस को दिल्ली से प्रधानमंत्री के निकलने से पहले उनके सड़क के सफर का पता चलता तो उनके पास सड़क खाली कराने के लिए पर्याप्त समय होता. लेकिन अगर उनके भटिंडा पहुंचने के बाद इस सफर का फैसला किया गया तो एसपीजी के अधिकारी उन्हें सलाह दे सकते थे कि वे कुछ समय के लिए भटिंडा एयरपोर्ट पर रुक जाएं ताकि पूरी सड़क खाली कराई जा सके. और अच्छा होता कि यह सलाह मानी जाती. हां, यह जरूर है कि इतने कम समय में बहुत भारी काम था.
इसके अलावा खराब मौसम की जानकारी एसपीजी और दूसरी एजेंसियों के पास जरूर मौजूद होगी. तो, पुलिस को पहले ही यह जानकारी क्यों नहीं दी गई कि सड़क मार्ग का इस्तेमाल किया जाने वाला है. अगर ऐसा किया गया था तो पुलिस ने सड़क को साफ न करके बेहद लापरवाही का सबूत दिया है. वैसे भी हेलीकॉप्टर्स सभी मौसमों में चलने वाली मशीनें हैं और अगर कोई बाधाएं मौजूद नहीं हैं तो इन्हें इस्तेमाल करना मुफीद है, इसके बावजूद कि पिछले महीने वेलिंगटन में हुए बदकिस्मत हादसे के चलते एक किस्म का डर भी पैदा हुआ है.
अंतिम आदेश आने के बाद ही एडवांस सिक्योरिटी लायसन (एएसएल) के दौरान किसी वैकल्पिक रास्ते पर विचार किया जाता है.
पुलिस ने शायद दबाव में आकर सड़क को आंशिक रूप खाली कराया और फिर काफिले को जाने की इजाजत दी, जबकि उन्हें यह मंजूरी तब देनी चाहिए थी, जब सड़क पूरी तरह से खाली हो जाती.
इन सबके के बावजूद हर मोबाइल पर गूगल मैप नैविगेशन ऐप होता है और जिन जगहों पर ट्रैफिक फंसा होता है, उसका आसानी से पता चल जाता है और उसी के हिसाब से काफिले की रफ्तार को काबू में किया जा सकता है. इससे पुलिस को उन रुकावटों को साफ करने के लिए और समय मिल जाता है.
बेशक, इस चूक की सबसे बड़ी वजह यह है कि मामले से जुड़ी सुरक्षा एजेंसियों में आपस में समन्वय और संवाद नहीं था, खासकर एसपीजी और पंजाब पुलिस के बीच.
दूसरा, इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि एसपीजी ने फ्लाईओवर पर 20 मिनट से ज्यादा समय तक रुकने और तुरंत वापस न आने का फैसला क्यों किया? इस फैसले में देर की गई जिससे प्रधानमंत्री का काफिला कथित खतरे में पड़ा, और यह एसपीजी की बेपरवाही के बराबर है.
तीसरा सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी के झंडे लहराते हुए लोग प्रधानमंत्री की गाड़ी के पास कैसे पहुंचे? यह पंजाब पुलिस की तरफ से एक बड़ी चूक है, इसके बावजूद कि ये लोग प्रधानमंत्री के समर्थक थे. जाहिरा तौर पर किसानों से कोई खतरा नहीं था क्योंकि वायरल वीडियो और तस्वीरें इशारा करती हैं कि प्रदर्शनकारी किसान काफिले से बहुत दूर थे- कुछ का कहना है कि करीब एक किलोमीटर दूर थे.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में एसपीजी को प्रधानमंत्री और उनके परिवार वालों की सुरक्षा के लिए खास तौर से तैयार किया गया था. फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके परिवारों को भी इसके दायरे में लाया गया. यह एक इलीट संगठन माना जाता है जिसमें भर्ती के लिए अधिकारियों का काफी जबरदस्त मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाता है. फिर एक लंबा चौड़ा, विकट प्रशिक्षण दिया जाता है, और इसके बाद जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं.
जिन लोगों में खुद सोचने की काबलियित होती है वे भी पहल करने से हिचकिचाते हैं, ताकि किसी भी हादसे की स्थिति में वे किसी आला अधिकारी के गुस्से का शिकार न हो जाएं. इसके चलते लोग गलती कम करते हैं, चूक ज्यादा होती है. यह प्रवृति पहले भी कई बार देखी गई है.
इस हादसे में एसपीजी अधिकारियों को फैसला लेने और यह तय करने की जरूरत थी ताकि पंजाब पुलिस को रास्ता साफ करने के लिए काफी समय मिलता. प्रधानमंत्री को भी उसी हिसाब से सलाह दी जा सकती थी. फिर प्रधानमंत्री भी एसपीजी की सलाह मानते और एयरपोर्ट पर रुक जाते, जब तक कि पुलिस यह न कह देती कि रास्ता साफ है. एसपीजी भी सलाह को मानती, क्योंकि वह बाकी की एजेंसियों के संपर्क में थी और उसके सामने पूरी तस्वीर साफ थी.
2 अक्टूबर 1986 को राजघाट पर राजीव गांधी की हत्या की कोशिश में भी ऐसे ही पेशेवराना गलतियां देखी गई थीं. जैसा कि इंडिया टुडे की रिपोर्ट बताती है, हमलावर गांधी जयंती से एक हफ्ता पहले से वहां छिपा हुआ था. यानी एएसएल और उसके बाद इलाके की तलाशी से पहले से, और यह दोनों काम एसपीजी, खुफिया ब्यूरो और दिल्ली पुलिस के नुमाइंदों को साझा तरीके से करना था. वहां तैनात एसपीजी और अन्य सुरक्षा बल गोलियों की आवाज को भी नहीं पहचान पाए. उन्हें लगा, कि जैसे यह टायर के फटने की आवाज है.
हत्यारे ने तीन बार गोलियां चलाईं और राजीव गांधी को मानो ऊपर वाले ने ही बचाया. न तो उनकी हिफाजत को कोई था, न कोई साथी, न कोई हथियार. खास खूफिया सूचना होने के बावजूद यह घटना घटी.
फिर 29 जुलाई 1987 को कोलंबो में राजीव गांधी पर फिर एक बार हमला हुआ. उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया जा रहा था. घटना के वीडियो फुटेज से पता चलता है कि उन पर एक सैनिक ने बंदूक के बट से हमला किया. उनके साथ चलने वाले अधिकारी ने बंदूक के वार को रोका था. इसके बाद उस सैनिक को पकड़ लिया गया था.
इसके बाद एसपीजी वाले पांच सेंकेड के लिए तो घबरा गए लेकिन फिर उन्होंने राजीव गांधी को घेर लिया. हां, अगर हमलावर का कोई साथी होता तो वे पांच सेकेंड कितने घातक हो सकते थे.
हमारे यहां ढेर सारे सुरक्षा संगठन हैं. हरेक की वर्दी और साजो-सामान तामझाम से भरे हुए हैं. पूरी तरह आभिजात्य के घमंड से चूर.
आम लोगों को यह प्रभावशाली महसूस होते हैं लेकिन इससे इनका पेशेवर होना पक्का नहीं होता. यथास्थिति को बदलने और आमूल चूल परिवर्तन के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत होती है.
एसपीजी को अपने प्रशिक्षण के तौर तरीकों पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि उसके कर्मचारी बदलती परिस्थितियों के हिसाब से पहल करें. इसी तरह एसपीजी जिन लोगों की सुरक्षा करती है, उन्हें भी उनकी नसीहतों को ध्यान से सुनना और समझना चाहिए. चूंकि उनकी जिम्मेदारी न सिर्फ उस शख्स को महफूज रखना है, बल्कि यह देश के हित में भी जरूरी है.
(संजीव कृष्ण सूद (रिटायर्ड) बीएसएफ के एडिश्नल जनरल रह चुके हैं और एसपीजी में भी रहे हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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