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उन्नीस देशों और यूरोपीय संघ (EU) के नेता जी20 समिट के लिए भारत की राजधानी दिल्ली (Delhi) पहुंच रहे हैं, मतलब दुनिया की ज्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का 80 प्रतिशत और पूरी दुनिया की दो-तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले देश. हालांकि इस प्रभावशाली ग्लोबल मंच G20 या G20 समूह की अध्यक्षता रेगुलर तौर पर बारी-बारी एक देश से दूसरे देश को मिलती है लेकिन भारत में इस साल इसकी अध्यक्षता को लेकर काफी हाईप खड़ा किया गया है.
इस शिखर सम्मेलन के समय, देश के सख्त कोविड लॉकडाउन के दौरान अपनी अर्थव्यवस्था में 24 फीसदी कॉन्ट्रैक्शन के बाद भी यह 3 ट्रिलियन-डॉलर की सीमा को पार कर गई है.
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो दुनिया में अरबपतियों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है. लॉकडाउन और कोविड महामारी भी हमें रोक नहीं पाई. भारत में अरबपतियों की संख्या 2020 में 102 थी, जो 2022 में बढकर 166 हो गई.
लेकिन इस चमक-दमक और बढ़ती अमीरी के पीछ भारत की गरीबी का अंधेरा भी है. भारत सरकार कभी नहीं चाहेगी कि उसके प्रभावशाली और ताकतवर मेहमान, जो दुनिया जहान से आ रहे हैं...वो भारत की इस दुर्दशा के बारे में जाने.
G20 देशों के बीच भारत अभी भी प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से सबसे निचले पायदान पर है.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानि वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भी सबसे निचले पायदान पर है.
दुनिया में सबसे बड़ी गरीबों की तादाद भारत में है.
यही नहीं अभी भी भारत ही दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषित आबादी वाला देश है. इतना नहीं असमानता के पैमाने पर भी हालात बदतर हैं.
विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के हिसाब से भारत दुनिया में सबसे ज्यादा गैरबराबरी वाला देश है, जहां एक साथ तेजी से गरीबी बढ़ी है तो वहीं अमीर भी बड़ी संख्या में बढ़े हैं.
भारत में G20 शिखर सम्मेलन की तैयारियों का शुभंकर बुलडोजर है. इसके साथ ही सरकार भारत के लाखों मेहनती मजदूरों, गरीबों को बेदखल करने, उन पर पर्दा डालने की पुरजोर कोशिश कर रही है. हम राष्ट्रीय राजधानी और देश भर के उन शहरों में सैकड़ों झुग्गियों, अनौपचारिक बस्तियों और स्ट्रीट को ध्वस्त करने के जुनूनी और गैर-जिम्मेदारी भरे क्रूर अभियान के गवाह हैं, जहां G20 प्रतिनिधियों ने दौरा किया था.
(फोटो- ऋभू चटर्जी/क्विंट हिंदी)
(फोटो- ऋभू चटर्जी/क्विंट हिंदी)
(फोटो- ऋभू चटर्जी/क्विंट हिंदी)
(फोटो- ऋभू चटर्जी/क्विंट हिंदी)
मई 2023 में कन्सर्न्ड कलेक्टिव सिटिजन की अगुवाई में ऐसी ही एक पब्लिक हियरिंग में (जिसमें मुझे जूरी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था) हमने क्रूरता से बेदखली की कई दर्दनाक गवाहियां सुनीं.
आकाश भट्टाचार्य दक्षिणी दिल्ली में तुगलकाबाद झुग्गी बस्ती के एक बड़े सफाई अभियान के बारे में बताते हुए कहते हैं-
हाउसिंग राइट्स एक्टिविस्ट अब्दुल शकील कहते हैं कि तुगलकाबाद बेदखली इतनी क्रूर थी कि हममें से जो लोग दशकों से इस तरह की बेदखली को देखते रहे हैं उन्होंने भी इस स्तर की क्रूरता पहले कभी नहीं देखी. पुलिस ने बस्ती को घेर लिया, जैमर लगा दिए गए ताकि कोई वीडियो साझा न कर सके, कार्यकर्ताओं के फोन छीन लिए गए, आसपास के होटल और दुकानें बंद कर दी गईं और दो दिनों में पूरी बस्ती तबाह कर दी गई.
दिल्ली के बेला एस्टेट की पूजा बताती हैं कि
रीना शर्मा अफसोस जताते हुए कहती हैं- ''हमने अपने जीवन की सारी कमाई उस घर में लगा दी थी और उन्होंने इसे मिनटों में मिट्टी में मिला दिया."
उदाहरण के लिए- 2010 में सुदामा सिंह ने एक मुकदमा दायर किया था, इसमें दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया था कि आवास का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार का अभिन्न अंग है. न्यायालय ने आदेश दिया कि सरकारों को घरों से हटाने या तोड़फोड़ का सहारा केवल तभी लेना चाहिए जब जमीन के लिए एक सटीक सार्वजनिक टारगेट हो. इससे पहले उन लोगों के साथ "सार्थक बात" होनी चाहिए, जिनके घर हटाए जा रहे हैं, ताकि उनको दूसरी किसी जगह पर बसाया जा सके. उनकी आजीविका और सामाजिक जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त जगह दी जा सके.
अगर डिमॉलिशन ड्राइव को चैलेंज किया जाता है, तो राज्य के अधिकारियों का बचाव यह होता है कि ये "अवैध" अतिक्रमणकारियों और सड़क विक्रेताओं के खिलाफ सिर्फ "रूटीन" एक्शन हैं. लेकिन यह दावा कि बुलडोजर से हटाया जाना सिर्फ "रूटीन" काम है, अपने आप में बहुत कपटी और छल वाली बात लगती है.
इस अभियान में ध्वस्त किए गए घर और दूसरे ढांचे की "अवैधता" के दावे की भी बारीकी से जांच करनी चाहिए. दिमाग को जरा ठंडा करके और ध्यान से देखने पर यह साफ है कि ज्यादातर बड़ी अन-ऑफिसियल बस्तियां, जो हर भारतीय शहर की पहचान हैं, वैध नहीं हैं. लेकिन यह सरकार ही है जो अन-ऑफिसियल पड़ोस के कामकाजी वर्ग के निवासियों पर अवैधता थोपता है और फिर उन्हें इस "अवैधता" के लिए सताता है.
यह मान लेना नाइंसाफी और संवेदनहीन है कि झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी जो अक्सर प्लास्टिक की छत और कार्डबोर्ड की दीवारों वाले एक कमरे में (जहां पानी निकासी भी नहीं होती और कचरे के दुर्गंध वाले घरों में) रहते हैं, वो इस तरह की अमानवीय परिस्थितियों में अपनी मर्जी से रहते हैं.
उनके पास स्वच्छता, पीने लायक पानी, स्कूल और बच्चों के पार्क भी नहीं होते हैं. वे पहले तो इस तरह रहने के लिए मजबूर हैं क्योंकि जिन ग्रामीण इलाकों से वे खाली हाथ जिंदगी जीने के लिए शहर में आते हैं, वहां सभ्य और अच्छे काम के बहुत कम मौके मिलते हैं. और दूसरी वजह है कि जिस शहर में उन्हें पलायन करने के लिए मजबूर किया जाता है, उसकी योजना इस तरह से नहीं बनाई गई है या बनाया नहीं गया है कि उन्हें सभ्य किफायती घरों में कानूनी रूप से रहने का कोई मौका मिल सके.
वास्तव में भारत के सभी शहरों के नागरिकों को लेकर एक तरह की वर्गीकरण बनाया गया है. शहर के वैध निवासी वे हैं, जो कानूनी तौर पर मंजूर किए गए घरों में रहते हैं. बाकी लोग अलग-अलग तरह से अवैध और गैरकानूनी तरीके से जिंदगी गुजारते हैं. इस राजनीतिक और नीतिगत ढांचे में सरकार सिर्फ अपने-अपने वैध नागरिकों और कानून का पालन करने वालों का फिक्र करती है.
पैट्रिक हेलर और पार्थ मुखोपाध्याय के नेतृत्व में ब्राउन यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने “Cities of Delhi” नाम से एक अहम स्टडी की है. इसमें एक अंदाजा लगाया गया कि दिल्ली के सिर्फ एक चौथाई से भी कम निवासी कानूनी और प्लान की गई कॉलोनियों में रहते हैं. अवैध कॉलोनियों में रहने वाले लोगों की संख्या चौंकाने वाली रही, जो दिल्ली की तीन-चौथाई है. वे लोग जो स्लम में रहते हैं (हालांकि 1994 के बाद से कोई भी क्षेत्र इस प्रकार तय नहीं किया गया है), अनधिकृत कॉलोनियों, झुग्गी झोपड़ियों, पुनर्वास कॉलोनियों और शहरी गांवों में रहते हैं.
कोई भी शहर गरीबों और मेहनतकश मजदूरों के बिना एक दिन भी नहीं चल सकता, लेकिन उनके लिए रोटी, कपड़ा, मकान और बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई जगह मुहैया नहीं कराई जाती है.
यह ऐसा है, मानो अमीर और मध्यम वर्ग के लिए मेहनती गरीब अलादीन के जिन्न की तरह हैं. जब भी गरीबों की जरूरत है उनका इस्तेमाल करें और काम पूरा होते ही गरीब को सिरे से गायब कर दिया जाए. उन्हें अपने बच्चों के लिए रहने के लिए घर, पानी, शौचालय, सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल की गैरवाजिब मांग नहीं करनी चाहिए.
अगर सरकार ने शहर में कामकाजी वर्ग के लोगों के समान अधिकार के संवैधानिक सिद्धांत को स्वीकार कर लिया, तो एक बहुत ही अलग तरह का शहर उभर कर सामने आएगा, जो कामकाजी लोगों के लिए शहर के अंदर उनकी आजीविका के संभावित स्रोतों के करीब रहने के लिए जगह की योजना बनाएगा. और जो कम सुविधा लेकर शहर के निवासियों के लिए सामाजिक आवास और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वच्छता, पानी, जल निकासी, पार्क, स्कूलों और अस्पतालों के बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण सार्वजनिक धन का निवेश करता है.
ऐसे माहौल में, दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं के नेताओं के G20 शिखर सम्मेलन की चकाचौंध और पावरप्ले के पीछे गरीबों की पीड़ा छिपी हुई है. उनका दुख और तकलीफ गहरा है. सुप्रीम कोर्ट में हमारे हस्तक्षेप के बाद बेघरों के लिए यमुना नदी के किनारे बनाए गए रैन बसेरों को हटा दिया गया है. जाहिर तौर पर नदी के किनारे मेहमानों के लिए पैदल रास्ता बनाने के लिए ऐसा किया गया.
दुनिया की अर्थव्यवस्था के मंच पर भारत की नकली अकड़ की पोल खुल जाएगी अगर दुनिया के नेताओं और मीडिया को यह याद दिलाया जाए कि भूख को खत्म करने की मुहिम दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के एक बड़े हिस्से की तुलना में भारत में कितना धीमा रहा है.
इन अभियानों के पीछे ऑफिसियल टारगेट विदेशी मेहमानों के दौरे पर भारत के शहरों में दिखाई देने वाली गरीबी के हर सनाख्त को मिटाना है, जिससे वे केवल चौड़े राजमार्गों और ओवर-ब्रिज, बडे़ अपार्टमेंट इमारतों, ग्रीन पार्कों और चमकदार शॉपिंग मॉल वाले भारत को देख सकें. इसलिए दीवारों पर गुर्राते शेर, कई तरह की मूर्तिंयां (बेशक विवादित) लगाई गई हैं.
एक दिन काम पर जाते वक्त मैंने अवैध तौर पर झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की दुनिया पर पर्दा डालने के लिए एक लंबा बरा पर्दा देखा. पर्दे पर चिपकाए गए पोस्टर मुझे घूर रहे थे, एक मुस्कुराते हुआ प्रधानमंत्री और दूसरी तरफ कमल पर बैठा G20 का शुंभकर.
मैंने अपना लैपटॉप निकाला और ट्वीट किया. "मेरी होम सिटी दिल्ली मेहनती गरीबों को हटाकर, झुग्गियों और बेघरों के रैन बसेरों को खत्म करके या झुग्गियों को छिपाने के लिए पर्दों के जरिए G20 के ग्लोबल नेताओं की अगवानी की तैयारी कर रहा है. किसी भी शहर को मेहनतकश गरीब ही बनाते हैं और उसे चलाते भी हैं. मुझे ऐसी सरकार पर शर्म आती है जो अपने गरीबों के कामकाज पर शर्मिंदा है.”
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