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जब लड़कियां पैंट पहन सकती हैं तो लड़के स्कर्ट क्यों नहीं?

लैंगिक संवेदनशीलता पर बहस करने से आखिर क्यों कतराता है समाज?

सरोज सिंह
नजरिया
Published:
ब्रिटेन के एक स्कूल में विरोध स्वरूप स्कर्ट पहनकर स्कूल पहुंचे छात्र
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ब्रिटेन के एक स्कूल में विरोध स्वरूप स्कर्ट पहनकर स्कूल पहुंचे छात्र
(फोटोः swns)

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जून की गर्मी में ब्रिटेन के एक स्कूल में कुछ छात्र जब फुल पैंट की जगह शॉर्ट्स पहन कर गए तो स्कूल प्रशासन ने उन्हें वापस घर भेज दिया. स्कूल प्रशासन के इस फैसले का विरोध करने छात्र अगले दिन स्कर्ट पहन कर पहुंचे, तो सब देख कर हैरान थे. लेकिन इस बार उन्हें स्कूल में रहने की इजाजत दी गई. ऐसा इसलिए क्योंकि ब्रिटेन के उस स्कूल में लड़कियों की यूनिफार्म स्कर्ट ही है. लेकिन इस पूरे वाकये ने खूब सुर्खियां बटोरी.

भारत में कई स्कूलों में लड़कियों को स्कूल ड्रेस के तौर पर आपने शर्ट और फुल या हाफ पैंट पहने हुए देखा होगा. लेकिन क्या कभी आपने देश के किसी स्कूल में लड़कों को स्कूल ड्रेस के तौर पर स्कर्ट पहने देखा है? शायद नहीं.

सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्यों है? असल में यही हमारी सोच को दर्शाता है. स्कर्ट को लड़कियों का पहनावा मान लिया गया है और लड़के उसे पहनें तो लोग स्वीकार नहीं करते. लेकिन पैंट लड़कों का पहनावा है जिसे लड़कियां पहनें तो वो लड़कों से बराबरी करती नजर आती हैं. हममें से कई लोग हमेशा लड़कियों से ये कहते हैं कि वो किसी मायने में लड़कों से कम नहीं हैं और साथ ही उन्हें ये एहसास भी करा देते है कि हमारे समाज में तमाम ऐसे लोग हैं जो लड़कियों को लड़कों से कमकर आंकते हैं. यही सोच लैंगिक संवेदनहीनता को जन्म देती है.

लैंगिक संवेदनशीलता पर बहस करने से कतराता है समाज

जेंडर सेंसेटाइजेशन यानी लैंगिक संवेदनशीलता एक ऐसा विषय है जिस पर हमारा समाज खुलकर बहस करने से कतराता है और अगर बात स्कूली बच्चों की हो तो ये विषय और भी ज्यादा गोपनीय बन जाता है. स्कूल में टीचर और घर में माता-पिता भी लिंग भेद आधारित संवेदनशीलता के विषय पर बच्चों से खुलकर और स्पष्ट बात करने में हिचकिचाते हैं. यही वजह है कि अब जेंडर सेंसेटाइजेशन यानी लैंगिक संवेदनशीलता को देश भर के स्कूलों में पाठ्यक्रम के तौर पर शामिल करने के लिए एक मुहिम की शुरुआत की गई है.

टाटा टी ने अपनी समाजिक जिम्मेदारी के तहत इस मुहिम को देश के मानव संसाधन और विकास मंत्रालय तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है ताकि समाज में महिलाओं के साथ हो रहे दोहरे बर्ताव और लैंगिक दुर्व्यवहार के प्रति समाज को जागरूक बनाया जा सके. स्कूलों से इस मुहिम को शुरू करने के पीछे मकसद ये है कि स्कूल में जब बच्चे दुनिया और समाज को समझना शुरू करते हैं उसी दौरान उनमें महिलाओं के प्रति सम्मान का बीज बोया जाए ताकि बड़े होने पर उनके मन-मस्तिष्क में ये बात गहराई तक समा सके.

ये पहल इसलिए भी जरूरी है ताकि साल दर साल हम क्राइम रिकार्ड को खंगालकर महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध की अलग से गिनती करने पर न मजबूर हों. इसलिए सबसे पहले ये जान लेना जरूरी है कि जेंडर सेंसेटाइजेशन यानी लैंगिक संवेदनशीलता आखिर क्या है?

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जेंडर सेंसेटाइजेशन क्या है?

महिलाएं, पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं है. ये बात हम हर रोज सुनते हैं, कहते हैं और किताबों में पढ़ते भी हैं. लेकिन असल जीवन में इसका पालन बहुत कम लोग ही करते है. जीवन के हर मोड़ पर पुरुष चाहे-अनचाहे महिलाओं को उनके महिला होने का एहसास कराने से नहीं चूकता. यही एहसास लैंगिक संवेदनहीनता का जनक है और इसी को खत्म करने के लिए जेंडर सेंसेटाइजेशन यानी लैंगिक संवेदनशीलता जरूरी है.

लैंगिक संवेदनशीलता यानी हर लिंग (चाहे पुरुष हो या महिला) का व्यक्ति दूसरे लिंग (चाहे पुरुष हो या महिला) के प्रति सम्मान का भाव रखे. लिंग भेद को दरकिनार कर एक-दूसरे के प्रति सम्मान के भाव होना ही लैंगिक संवेदनशीलता है.

जेंडर सेंसेटाइजेशन के लिए मुहिम की आवश्यकता क्यों?

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ो के मुताबिक, साल 2011 से 2015 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराध में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. साल 2011 में जहां 41.7 फीसदी अपराध महिलाओं के खिलाफ हुए थे, वहीं 2015 में ये आंकड़ा बढ़कर 53.9 फीसदी हो गया. साल 2015 में महिलाओं के खिलाफ 3,27,394 अपराध दर्ज किए गए, जिसमें से 1,13,403 घरेलू हिंसा से जुड़े मामले थे, 34,651 रेप के मामले, 4,437 रेप की कोशिश के मामले और 59,277 महिला अपहरण से जुड़े मामले थे.

अफसोस इस बात का है कि समाज के तौर पर हम सब केवल इसे आंकड़ों के तौर पर देखते आए हैं, लेकिन जरूरत है कि अब इन आंकड़ों को हम अपनी हीन मानसिकता के परिचायक के तौर पर देंखें. ऐसा करने पर पता चलेगा कि तमाम दावों और वादों के बावजूद महिलाओं को हम समाज में आज भी बराबरी का दर्जा नहीं दिला पाए हैं.

क्या स्कूलों में पढ़ाने से बनेगी बात?

सीबीएसई से जुड़े स्कूलों में जेंडर सेंसेटाइजेशन के लिए कई तरह के किट और माड्यूल शिक्षकों को उपलब्ध कराए जाते हैं. इसका मकसद ये होता है कि शिक्षक स्कूल में छात्र और छात्राओं के बीच किसी तरह का भेदभाव न करें. साल 2012 में बने POCSO कानून का मकसद लैंगिक अपराध से नाबालिग बच्चों को बचाना था. साथ ही इस कानून का मकसद स्कूल में छात्र-छात्राओं के समग्र विकास को बढ़ावा देना भी है.

बावजूद इसके जेंडर सेंसेटाइजेशन को पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवाज समय-समय पर उठती रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि लैंगिक संवेदनशीलता को हमें अपने समाज और व्यवहार का हिस्सा बनाने की जरूरत है, तभी हम इस लिंग-भेद से लड़ पाएंगे.

हमें समाज की उस सोच से लड़ना होगा जो लड़कियों और महिलाओं को एक निश्चित विचारधारा और व्यवहार के दायरे में बांधती है. जरूरी नहीं कि इसके लिए एक किताब हो, जिसे छात्रों को गणित और अंग्रेजी जैसे विषयों की तरह पढ़ाया जाए और फिर उसकी परीक्षा ली जाए, जिसे पास करने की अनिवार्यता भी हो. इसके बजाय लैंगिक संवेदनशीलता को मूल्य शिक्षा यानी वैल्यू एजुकेशन के तौर पर छात्र-छात्राओं को सिखाया जा सकता है.

नई पीढ़ियों को लैंगिक तौर पर संवेदनशील बनाना होगा

कहानी, फिल्मों और वर्कशॉप के माध्यम से बच्चों को जागरूक बनाने का सतत प्रयास किया जाना जरूरी है. लेकिन केवल सुझाव या एडवाइजरी के तौर पर नहीं, इसे अनिवार्य बनाकर ही हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को लैंगिक तौर संवेदनशील बना सकते हैं. और शायद तब पुरुष महिलाओं को अपने बराबर का दर्जा देने में हिचकिचाएंगे नहीं.

इस मुहिम को आज ही रफ्तार देनी होगी, क्योंकि कल कभी नहीं आता और अगर लैंगिक संवेदनशीलता के मुद्दे पर हमारा समाज अब भी नहीं जागृत हुआ तो कल हालात और बदतर भी हो सकते हैं. इसीलिए जेंडर सेंसेटाइजेशन यानी लैंगिक संवेदनशीलता को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मुहिम को नाम दिया गया है- अलार्म बजने से पहले जागो रे!

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