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सरकार के फैसलों को चुनौती देना तो परंपरा बनती जा रही है

क्या सरकार के फैसलों की आलोचना राजनीतिक पार्टियां किसी आदर्श या सिद्धांत की वजह से करती हैं?

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
(फोटो: Reuters)
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(फोटो: Reuters)
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भारत एक अनोखा देश बनता जा रहा है. यहां ऐसा एक दिन भी नहीं गुजरता, जब सरकार के जायज फैसलों को कोई न कोई चुनौती नहीं देता. वह भी तब, जब फैसला सत्ता को मिले जायज अधिकारों का इस्तेमाल करके लिया गया हो. 

इतना ही नहीं, ऐसा एक महीना भी नहीं गुजरता, जब अदालतें वैसी याचिकाएं स्वीकार नहीं करतीं, जिनका कोई आधार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट भी इससे बचा नहीं है. इसकी मिसाल नोटबंदी का मामला है, जिसे चुनौती देने वाली याचिकाओं की वह सुनवाई कर रहा है.

इसी ‘ट्रेडिशन’ को आगे बढ़ाते हुए अब जनरल बिपिन रावत को अगला आर्मी चीफ नियुक्‍त करने के खिलाफ शिकायत की जा रही है. कहा जा रहा है कि उनकी नियुक्ति में दो अन्य लेफ्टिनेंट जनरल की सीनियॉरिटी की अनदेखी की गई है. शुक्र है कि अब तक यह मामला अदालत में नहीं पहुंचा है.

मुद्दा नया नहीं

जब क्विंट ने मुझसे इस विषय पर लिखने के बारे में पूछा, तो मेरा मन नहीं मान रहा था. पहली बात तो यह कि इस पर पहले ही लिखा जा चुका था. दूसरी बात यह थी कि पहले भी सीनियॉरिटी की अनदेखी करके आर्मी चीफ की नियुक्‍त‍ि हो चुकी है.

पिछले 70 साल में कम से कम 6 बार ऐसा हो चुका है. 1980 के दशक के मध्य में जनरल एसके सिन्हा को छोड़ दें, तो ऐसी नियुक्‍त‍ि कभी मीडिया में बहस का मुद्दा नहीं बनी. यह ऐसा मुद्दा भी नहीं बना था, जिस पर छुटभैये नेता कमेंट करें.

वैसे भी सिविल सर्विसेज, सरकारी बैंकों, आरबीआई और सभी पीएसयू, यहां तक कि प्राइवेट सेक्टर में भी इस तरह से अप्वाइंटमेंट होते रहते हैं. मीडिया में तो कमोबेश हमेशा ही अप्वाइंटमेंट में सीनियॉरिटी को इग्नोर करने के मामले देखे गए हैं. राजनीतिक पार्टियों में भी ऐसा होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी, अखिलेश यादव, लालू यादव के दोनों बेटे, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया उन पदों पर नहीं होते, जिन पर आज वे बैठे हुए हैं.

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दुख किस बात का है?

मजाक को छोड़ दें, तो आलोचकों को यह सोचना चाहिए कि क्या कोई भी सरकार इतनी बेवकूफ हो सकती है कि वह आर्मी चीफ के पद पर नाकाबिल शख्स की नियुक्ति करेगी? अगर ऐसा नहीं है, तो उन्हें इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या ऐसे अप्वाइंटमेंट में सिर्फ सीनियॉरिटी देखी जानी चाहिए. सीनियॉरिटी का मतलब क्या है? आपका जन्म किस तारीख को हुआ है, इससे सीनियॉरिटी तय होती है? क्या जन्म की तारीख एक संयोग नहीं है?

हालांकि, अब तक किसी आलोचक ने इस ओर ध्यान नहीं दिलाया है. इसके लिए उन्हें दाद दी जानी चाहिए!

तो फिर वे किस बात की शिकायत कर रहे हैं? शायद मोदी सरकार की किसी या सभी मुद्दे पर आलोचना करना ऐसी आदत हो गई है कि आलोचक उसके सही और गलत फैसलों के बीच फर्क नहीं कर पा रहे हैं.

हर चीज को ‘दो खूबसूरत शब्दों’ के जरिये खारिज किया जा रहा है, जो भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी लेकर आई थीं. ये दो शब्द हैं- ‘पॉलिटिकली मोटिवेटेड’ यानी राजनीति से प्रेरित. 

तो क्या सरकार के फैसलों की आलोचना राजनीतिक पार्टियां किसी आदर्श या सिद्धांत की वजह से करती हैं? लेकिन 1985 के बाद गैर-राजनीतिक लोगों की तरफ से मोदी सरकार सहित दूसरी सरकारों की आलोचना को क्या कहा जाए? दरअसल, इन लोगों को समझ नहीं है कि सरकार क्या होती है और उसे कहां से पावर मिलती है?

इसलिए ये लोग बेतुकी आलोचना करते रहते हैं.

क्या होती है सॉवरेन पावर

कानूनी भाषा में इसका मतलब ‘उस सत्ता से है, जिसके जरिये किसी आजाद देश पर शासन किया जाता है और जिससे सरकार को पावर मिलती है.’ आम भाषा में इसका मतलब यह है कि लाइफ, लिबर्टी, फ्रीडम ऑफ स्पीच जैसी चीजों को छोड़कर सरकार जो भी चाहे, कर सकती है. खासतौर पर जिन मुद्दों के बारे में फैसले करने का उसके पास कानूनी अधिकार है.

पदों पर नियुक्ति ऐसा ही एक मामला है. सरकार को अपनी पसंद के लोगों को अप्वाइंट करने की आजादी है, बशर्ते कैंडिडेट मानसिक तौर पर फिट हो. सरकार के इस अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि अगर ऐसा होने लगे, तो राजकाज चलाना मुश्किल हो जाएगा.

जनरल बिपिन रावत को अगला आर्मी चीफ अप्वाइंट करने के खिलाफ कंप्लेन की जा रही है. (फोटो: PIB)

भारत सहित दुनिया के सभी देशों में सरकारें अपनी पसंद के लोगों का अप्वाइंटमेंट करती आई हैं. हालांकि अक्सर ऐसी नियुक्ति में कुछ नियमों का पालन किया जाता है. ये रूल्स सीनियॉरिटी और मेरिट से जुड़े नहीं होते. इसका मतलब यह है कि कोई शख्स सिर्फ सीनियॉरिटी या मेरिट के आधार पर किसी पद के योग्य नहीं हो जाता.

यह कहा जाता है कि सीनियॉरिटी के सिद्धांत को नहीं मानने पर नेताओं को नियुक्तियों में मनमानी करने की छूट मिल जाती है. इसे गलत बताया जाता है. यह बेवकूफी है. राजनीति से सरकारें वजूद में आती हैं. इसलिए वे जो भी फैसले करेंगी, उनमें राजनीतिक पहलुओं का ख्याल रखा जाएगा. हमारी अदालतों, एक्टिविस्टों और पेशेवर प्रदर्शनकारियों को यह बात समझनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो सिर्फ उन्मादी माहौल बनाने वाले टीवी चैनलों को फायदा होता रहेगा.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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