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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत काफी अच्छे वक्ता हैं. उनके भाषणों में एक खास तरह की आत्मीयता और प्रामाणिकता है. जब वे बिना स्क्रिप्ट के बोलते हैं, तब बातों में और भी मिठास और अपनापन भरा होता है.
उनके औपचारिक भाषणों में एक आग्रह दिखता है कि वो शुद्ध हिंदी बोलें, संस्कृतनिष्ठ शब्दों का खूब प्रयोग करें. अगर आम बोलचाल वाले शब्द मौजूद भी हैं, तब भी वो अप्रचलित और अल्प-प्रचलित शब्दों का भरपूर प्रयोग करते हैं, जिससे एक विशिष्ट सांस्कृतिक भाव और ध्वनि पैदा हो. शायद ये आग्रह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रिफ्लेक्शन है.
मैंने उनका विजयादशमी के भाषण का आधिकारिक रूप से जारी आलेख बड़े ध्यान से पढ़ा. मैं चाहता तो था कि उसमें राजनीतिक महत्व की बातों को समझूं, लेकिन उनके भाषा-संसार ने मेरा ध्यान खींचा. उनके भाषण में पारतंत्र्यकाल, अहर्निश, कालखंड, समुन्नति, संगणक (कंप्यूटर), अंतरताना (इंटरनेट) और सात्मीकरण जैसे शब्द मिले.
ऐसे शब्द कम ही सुनने को मिलते हैं. इन शब्दों के इस्तेमाल से साफ है कि वो इंटरनेट और कंप्यूटर जैसे प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहते.
विजयदशमी के मौके पर दिए गए भागवत जी के भाषण के आलेख में ऐसे शब्द हैं- विरासत, रोजगार, सदी, बुनियाद, बरबाद, पसंद, खरीदारी, बंद. ये सारे शब्द फारसी हैं. कई अरबी शब्द मिले- राहत, कबाइली, कर्ज, फसल.
बाजारीकरण, फारसी और संस्कृत का मिश्रण है और असरकारी, अरबी और हिंदी का मिश्रण है (ये रिसर्च मैंने एक मित्र की मदद से प्रभात वृहद हिंदी शब्दकोश के आधार पर किया है). मैं यहां उन शब्दों का जिक्र नहीं कर रहा, जो प्राकृत और पाली से आए हैं. इन भाषाओं को तो हम भारतीय मानते ही हैं.
ताजमहल को अपना न मानने वालों और शहरों के नाम बदलने का शंख फूकने वालों की इस बेबसी की इंतहा का पता एक होर्डिंग से लगता है, जो उत्तर प्रदेश की किसान कर्ज माफी के बारे में है. उस पर लिखा है- फसल ऋण मोचन योजना. कितनी कल्पनाशीलता लगी होगी कर्ज माफी का हिंदी अनुवाद खोजने में- ऋण मोचन. लेकिन फसल में फिसल गए. उपज के बजाय अरबी फसल लिखना पड़ा.
भागवत जी का भाषण काफी बड़ा है और पढ़ने योग्य है. मैंने अपना मूल विचार बिंदु यहां संक्षेप में रख दिया है. लोग चाहें तो रिसर्च कर सकते हैं. भागवत जी महाराष्ट्र के हैं. मराठी भाषा एक तरफ जितनी संस्कृतनिष्ठ है, उसमें उतने ही अरबी और फारसी के भी शब्द हैं. इसलिए मुझे तो भागवत जी का भाषा संसार काफी पसंद है. उनकी इस शैली का स्वागत किया जाना चाहिए, इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
संघ एक नए सामाजिक समावेशन को आगे बढ़ाने की सोच रहा है. वो ये कि दलितों और मुसलमानों को भी अपने साथ कैसे जोड़ा जाए. भागवत जी अपने भाषण में खुली और प्रवाहमान भाषा का इंद्रधनुष अगर अनायास ही बनाते हैं, तो उन्हें अब ये सायास बनाना चाहिए.
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