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बैंक घोटालों का रिश्‍ता चुनाव फंडिंग से, फिर कैसे रुके घोटाला?

क्या बैंकों का सरकारी होना है घोटाले की वजह?

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
जब भी बैंकों में गड़बड़ी का मामला उठता है, तो ये सवाल उठता है कि इसका बैंकों की ओनरशिप से कोई संबंध तो नहीं है?
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जब भी बैंकों में गड़बड़ी का मामला उठता है, तो ये सवाल उठता है कि इसका बैंकों की ओनरशिप से कोई संबंध तो नहीं है?
(फोटो: iStock)

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दो हफ्ते पहले जब पंजाब नेशनल बैंक के एक जूनियर अधिकारी का तमाम नियम-कानूनों को धता बताते हुए नीरव मोदी को मुफ्त के कर्ज देने की बात सामने आई, तो देशभर में उलाहना और शिकवे-शिकायतों का दौर शुरू हो गया.

इससे ऐसा लगा कि इस तरह फ्रॉड से निपटने के तरीका बहुत आसान है. ऐसी बहुत सी बहस का मकसद सही था, पर बहस कर रहे लोगों के पास जानकारी पर्याप्त नहीं थी. इसमें एजेंडा के तहत काम करने वाले टीवी एंकर, प्रिंट और वेबसाइट कमेंटेटर भी शामिल हैं.

सबसे जरूरी बात ये है कि ऐसी बैंक धोखाधड़ी सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि इसे पूरी दुनिया में कहीं भी देखी जा सकती है. मसलन, निक लेसन ने बैरिंग बैंक को अकेले ही बर्बाद कर दिया था. ये बैंक डूबने के बाद सिर्फ एक डॉलर में बिका. इसी तरह बर्नी मेडॉफ पर पचास अरब डालर के पेंशन फंड धोखाधड़ी का आरोप लगा था. इस तरह की धोखाधड़ियों सूची बहुत लंबी है. लेकिन इतना तो तय है कि मजबूत से मजबूत बैंकिंग सिस्टम में भी बीच-बीच में फ्रॉड सामने आते रहते हैं.

भारत में भी 1935 से 1947 के बीच लगभग 900 बैंक दिवालिया घोषित हुए और उसके साथ ही उनके जमाकर्ता भी दिवालिया हो गए. 1949 में जब रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण हुआ और यह बैंक रेगुलेटर के रूप सामने आया, तब से बैंकों के दिवालिया होने की घटनाओं में बड़ी कमी आई है.
आरबीआई सभी सरकारी और प्राइवेट बैंकों को रेगुलेट करता है(फोटो: Facebook)

इसके बावजूद 1961 में केरल का पलानी बैंक डूब गया और उसके साथ उसके ग्राहकों की बचत भी डूब गई. एक लंबे अंतराल के बाद 1998 में ग्लोबल ट्रस्ट बैंक की हालत खस्ता हुई और उसे एक मजबूत सरकारी बैंक में विलय कर बचाया गया. भारत में बैंक घोटालों के विषय में पीएनबी के पूर्व अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती के 2013 के रिसर्च पेपर से जानकारी ली जा सकती है.

बैंकों का सरकारी होना घोटालों की वजह?

एक सवाल यह उठता है कि क्या बैंकों का सरकारीकरण ही तो धोखाधड़ी की असली वजह नहीं है? क्योंकि इस तरह से बैंकों पर राजनेताओं की नियंत्रण हो जाता है या फिर धोखाधड़ी ओनरशिप से कोई लेना-देना नहीं है?

जब भी बैंकों में गड़बड़ी का मामला उठता है, तो ये सवाल उठता है कि इसका बैंकों की ओनरशिप से कोई संबंध तो नहीं है. हालांकि इस बारे में तमाम तरीकों पर चर्चा तो खूब हुई, पर कुछ ठोस नहीं हुआ. घोटालों की करीब दर्जनभर वजह हैं, जिन पर पिछले दो हफ्ते में इस बारे में खूब चर्चा हुई.

क्या बैंकों का सरकारीकरण ही धोखाधड़ी की असली वजह है?(फोटो: ट्विटर)

चुनाव की फंडिंग बड़ी वजह

अगर मुझसे पूछेंगे, तो मेरी नजर में इसके पीछे मुख्य वजह चुनावों में फंडिंग है. यह चुनाव की सरकारी फंडिंग का भारतीय संस्करण है. एक तरह से सीधे सरकारी खजाने से चुनाव सहायता देने के बदले सियासतदान इसे सरकारी बैंकों के माध्यम से कर रहे हैं.

जैसे-जैसे चुनावी खर्चे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे बैंक धोखाधड़ी की रकम भी बढ़ रही है. ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि जैसे-जैसे हरेक चुनाव क्षेत्रों में वोटरों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है, इससे जन प्रतिनिधियों के खर्चों बढ़ते जा रहे हैं.

संसदीय चुनाव में प्रत्येक वोटर पर चुनाव खर्चा 2000 रुपये तक पहुंच गया है, जबकि यह 2004 में सिर्फ 100 रुपया था. अब आप खुद समझ सकते हैं कि चुनावी खर्चों में किस कदर बढ़ोतरी हुई है और उम्मीदवारों का खर्चे कितने बढ़ गए हैं.

खेल कैसे होता है

बड़े लेनदारों (बोरोअर्स) ने को कंपनी की प्रोजेक्ट की जरूरत से ज्यादा कर्ज लेने को मजबूर किया जाने लगा है. मतलब अगर उनकी लागत 5000 करोड़ रुपये हैं, तो उनसे कहा जाता है कि वो 6000 करोड़ रुपये कर्ज लें. ये एक्स्ट्रा 1000 करोड़ रुपये की रकम बाद में किसी राजनीतिक पार्टी या राजनेता को पहुंचा दी जाती है.

जाहिर है बिजनेसमैन पूरी रकम राजनेता को नहीं देता, कुछ अपने लिए भी रख लेता है. लेकिन जब ये रकम बैंक को चुकाने का वक्त आता है, तो ये एक्‍स्‍ट्रा रकम खराब लोन यानी एनपीए बन जाता है.

अगर आप एनपीए पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि इसमें एक बड़ा हिस्सा लगातार ब्याज जुड़ने की वजह से हुआ है. ये ब्याज उस अतिरिक्त रकम का है, जो कारोबारी के बजाए राजनीतिक दलों या राजनेताओं के पास पहुंच गई है.
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ऐसे में घोटाले रोकने का तरीका क्या है?

इन तमाम बातों से यह जरूरी है कि सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाए. अगर ये मुमकिन नहीं हो, तो भी इन बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी 50 परसेंट से नीचे लाई जाए.

बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी का एक स्तर 33 परसेंट हो सकता है, जैसा कि 90 के दशक में नरसिंहम कमेटी ने सिफारिश की थी. पर मेरे हिसाब से इसकी आदर्श स्थिति 26 परसेंट से नीचे यानी 25.9 परसेंट पर फिक्स कर देनी चाहिए.

हालांकि इससे इससे बैंकों में धोखाधड़ी पूरी तरह नहीं रुकेगी. लेकिन इससे उन सियासतदानों पर रोक लगेगी, जो बैंक राशि को अपनी अमानत समझते हैं. इससे टैक्स पेयर्स की रकम की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी, जो रीकैपिटलाइजेशन के जरिए बैंक में फिर फ्रॉड में निकल जाती है.

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी धंधे में फ्रॉड का जोखिम तो रहता ही है, धोखाधड़ी पर पूरी तरह से रोक असंभव है. लेकिन 90 परसेंट रोक तो लग ही जाएगी और इसका लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

ये भी पढ़ें- पीएम मोदी को क्यों चाणक्य नीति से सीखने की जरूरत है

(लड़कियों, वो कौन सी चीज है जो तुम्हें हंसाती है? क्या तुम लड़कियों को लेकर हो रहे भेदभाव पर हंसती हो, पुरुषों के दबदबे वाले समाज पर, महिलाओं को लेकर हो रहे खराब व्यवहार पर या वही घिसी-पिटी 'संस्कारी' सोच पर. इस महिला दिवस पर जुड़िए क्विंट के 'अब नारी हंसेगी' कैंपेन से. खाइए, पीजिए, खिलखिलाइए, मुस्कुराइए, कुल मिलाकर खूब मौज करिए और ऐसी ही हंसती हुई तस्वीरें हमें भेज दीजिए buriladki@thequint.com पर.)

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