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अर्थव्यवस्था में स्लोडाउन से डरिए, क्राइसिस गहराने वाली है

आर्थिक सुस्ती (इसे मंदी भी कह सकते हैं) की कई वजहें गिनाई जा रहीं हैं

मयंक मिश्रा
नजरिया
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आर्थिक सुस्ती (इसे मंदी भी कह सकते हैं) की कई वजहें गिनाई जा रहीं हैं
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आर्थिक सुस्ती (इसे मंदी भी कह सकते हैं) की कई वजहें गिनाई जा रहीं हैं
(फोटो: क्विंट)

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4.5 परसेंट जीडीपी विकास दर. इसे मैन मेड डिजास्टर ही कहेंगे ना. क्षमता से काफी नीचे वाली विकास दर त्रासदी ही तो है. हमारी क्षमताएं अनेक हैं- युवा आबादी, बड़ा बाजार, विकास की सीढ़ी में नीचे जिसकी वजह से हर क्षेत्र में तरक्की के मौके, एक मजबूत उद्यमी क्लास और एक फंक्शनल कैपिटल मार्केट.

आर्थिक सुस्ती (इसे मंदी भी कह सकते हैं) की कई वजहें गिनाई जा रहीं हैं. नोटबंदी और जीएसटी काफी अहम वजहें हैं. ऐसा माहौल, जिसमें माना जाता है कि आप दोषी हैं जबतक ये साबित ना कर दें कि आप निर्दोष हैं, ये भी स्लोडाउन की वजह है. निवेश के लिए जोखिम उठाने का साहस जरूरी होता है. डर के माहौल में साहस तो छूमंतर हो जाता है. बजाज ग्रुप के चेयरमैन राहुल बजाज शायद यही कहना चाह रहे हैं.

नोटबंदी को तो वापस नहीं किया जा सकता है. वो एक अजूबा था जिसका कितना और कब तक नुकसान उठाना होगा पता नहीं. लेकिन जीएसटी में सुधार संभव है. डर का माहौल भी खत्म किया जा सकता है. लेकिन उन वजहों का क्या जो आगे भी विकास दर में बाधा डालेंगे?

मिडल क्लास साइज सिकुड़ रहा है भाई!

मंदी जैसे हालात लंबे समय तक चल सकते हैं. इसका पुख्ता संकेत हमें NSSO के एक्सपेंडिचर सर्वे से मिलता है जिसे पब्लिश ही नहीं किया गया. उस रिपोर्ट में सामने आया कि लोगों की उपभोग पर खर्च करने की क्षमता घटी है. इसका मतलब तो यही निकलता है कि जिस इंडिया ग्रोथ स्टोरी की वजह से हर साल लाखों लोग गरीबी रेखा से बाहर आते थे और कंज्यूमिंग क्लास में शामिल होते थे, इस पर लगाम लग गई है. मिंट में राहुल जेकब का विश्लेषण है कि शायद देश में मिडिल क्लास का साइज कम हो रहा है.

इसकी वजह शायद गांवों में मजदूरी का मामूली रफ्तार से बढ़ना और किसानों को अपनी उपज का सही भाव नहीं मिलना है. सार्थक पॉलिसी एक्शन की वजह से यही वो वर्ग था जो मिडल क्लास में शामिल हो रहा था और हमारी तरक्की- चाहे वो मोटरसाइल की बिक्री हो या फिर फ्रिज, वाशिंग-मशीन की खरीद के जरिए आगे बढ़ाने में मदद कर रहा.

जानते हैं यह कितनी बड़ी त्रासदी है. बढ़ते मिडल क्लास की साइज की वजह से निवेशकों की नजरे इनायत हुई थी. दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांड भारतीय बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहते थे.

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गायब होते बड़े ब्रांड

फिलहाल, आपको किसी बड़े निवेश की याद आ रही है? कई सालों से किसी बड़े विदेशी निवेश की घोषणा सुनना सपने जैसा हो गया है. आखिरी वाला फ्लिपकार्ट की खरीद थी. उसके बाद पॅलिसी में जो बदलाव आया उसके बाद से तो वॉलमार्ट भी फ्लिपकार्ट को खरीद कर पछता ही रहा होगा. देश में कंज्यूमिंग क्लास के दम पर हम जो बड़े निवेश के डेस्टिनेशन के रूप में उभर रहे थे, वहीं कंज्यूमिंग क्लास अब रोटी-दाल को जुगाड़ने की मशक्कत में लगा हुआ है.

बड़ा निवेश तो छोड़िए, जो आए भी उसमें कुछ तो वापस चले गए. जनरल मोटर्स याद होगा. बोरिया बिस्तर समेट कर चला गया. फाक्सवैगन और स्कोडा जैसे ब्रांड भी किसी तरह काम ही चला रहे हैं. और अपने समय का रिकॉर्ड निवेश करने वाला वोडाफोन भी अब बेलआउट की गुहार लगा रहा है. इतने दिग्गज धूल चाट रहे हैं तो विकास की पटरी को रास्ते पर फिर से कौन लाएगा? और नया निवेशक किस तरह खुद को प्रोत्साहित कर पाएगा.

हम तो दशक की थीम भी नहीं पकड़ पाए...

ऐसा क्यों हो गया? जब से अर्थव्यवस्था को ठीक से देखने शुरू किया है तबसे मैंने पाया है कि अपने देश में हर दशक की एक थीम रही है. 1990 के दशक में ऑटो सेक्टर का बोलबाला था. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में आईटी, फार्मा, टेलीकॉम और फाइनेंशियल सर्विसेज छाया रहा था. मीडिया और एंटरटेनमेंट में भी खासी तरक्की दिखी. दूसरे दशक में लगा कि डिजिटल इकनॉमी बड़ी थीम होगी. जिस तरह से फ्लिपकार्ट, स्नैपडील के वैल्यूएशन हो रहे थे, उससे हौसला बढ़ रहा है. इस पूरी थीम का हमने गलत पॉलिसी की वजह से गला घोंट दिया. इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक अब खत्म होने को है और पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि यह 'खोया हुआ दशक' ही साबित होगा. तीसरे दशक में कोई नई थीम मिलेगी ऐसा होता दिख नहीं रहा है.

थीम पर राइड करने से अर्थव्यवस्था की स्टेबिलिटी बढ़ती है, एक फील गुड का ऐहसास होता है. डिजिटल थीम को बर्बाद करके हमने कितना नुकसान पहुंचाया है, इसका हमें अंदाजा भी नहीं है. याद रहे कि अमेजन, अलीबाबा और फेसबुक डिजिटल थीम वाली कंपनियां हैं, जिसकी पूरी दुनिया में धूम मची है. हम तो बस अपने ट्रोल आर्मी पर ही इतरा रहे हैं.

ये सारी बातें यही संकेत देती हैं कि हमारी ग्रोथ पटरी से उतर चुकी है और उसमें फिर से जान भरने के लिए मामूली फेरबदल से काम नहीं चलेगा. ईमानदारी से मंथन करना पड़ेगा कि हमसे कहां चूक हुई. बैंड-एड से नहीं सर्जरी की जरूरत पड़ेगी. नहीं तो सब ऊपर वाले के भरोसे ही है.

(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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