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भारतीय लोकतंत्र का संघीय ढांचे के सामने अस्तित्व का खतरा
नहीं, ये मौजूदा समय में खबरों को लेकर हमारी विलुप्त होती नैतिकता के तहत बढ़ा-चढ़ा कर कही गई कोई बात नहीं है. ये एक डरावना सच है अगर सोमवार 12 अक्टूबर, 2020 को मोदी सरकार और विपक्ष शासित राज्य एक उचित समझौता नहीं कर लें. इसमें अब 72 घंटे से कम का ही समय बचा है और जैसे-जैसे समय बीत रहा है समझौते की उम्मीद कम होती जा रही है और भारत का संघवाद वेंटिलेटर पर टिका हुआ है.
मैं आपको आसान तरीके से समझाता हूं.
1 जुलाई 2017 की आधी रात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवाहर लाल नेहरू के ऐतिहासिक संसदीय लम्हे की ही तरह एक “दूसरी भारतीय स्वतंत्रता” शुरू की यानी हजारों अलग-अलग टैक्स से देश को आजादी. उनकी सरकार ने राज्यों के साथ विश्वास का समझौता किया.
सिद्धांत और भावना में ये ढांचा एकदम सही था, अच्छे दिनों में ये अच्छे से चलती रही, गुड एंड इजी टाइम्स (GST!). लेकिन जल्दी या देर से हर अच्छे इरादे को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है. क्या ये इस समय भी ठीक से काम रही है या बिखर गई? या इससे भी बुरा, बेईमान हो गई, वादों से पीछे हट गई. जीएसटी व्यवस्था के लिए कोविड 19 वही भयानक समय बन गया-वायरस ने अर्थव्यवस्था पर विराम लगा दिया, केंद्र सरकार के खजाने को खाली कर दिया. लेकिन इससे विश्वास के समझौते के तहत राज्यों के प्रति केंद्र की 2.35 लाख करोड़ की देनदारी नहीं टली.
अपने दायित्वों को पूरा करने के बजाए केंद्र सरकार डर कर पीछे हट गई.
सच कहें तो मोदी सरकार की ये आशंकाएं सही हैं, लेकिन अपने संवैधानिक दायित्वों से इनकार करने का नुस्खा लोकतंत्र के लिए जिम्मेदारी से भागने वाला है.
हां, एक विकल्प साफ तौर पर दिख रहा है अगर प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों के पास पुरानी और आजमाई गई नीतियों के बाहर सोचने की बौद्धिक हिम्मत है.
जरा सोचिए अगर वो इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए डॉलर बॉन्ड जुटाने की अपनी रोकी गई योजना को फिर से शुरू कर दें तो..
मुझे पता है कि मुझे विदेशी ऋण बाजार में सॉवरेन इंडियन डॉलर बॉन्ड को उतारने के प्रभाव को फिर-फिर-फिर से उठाने के लिए लोग मेरी आलोचना करेंगे लेकिन क्या फर्क पड़ता है अगर आप इसकी श्रेष्ठता को लेकर आश्वस्त हैं, तो सिर्फ इसलिए कि आपकी आलोचना होगी, इससे क्यों बचना. तो चलिए इस योजना/ढांचे की जांच करते हैं.
दुर्भाग्य से मैं अभी से हर बात पर न कहने वालों को सुन सकता हूं लेकिन चलिए हर आपत्ति को एक-एक कर खारिज करते हैं
आपत्ति: डॉलर/रुपये की अस्थिर कीमतों के कारण लंबे समय में लागत इतनी बढ़ जाएगी कि चुकाना मुश्किल होगा
जवाब: गलत. भविष्य में बढ़ने वाली डॉलर की कीमतों से बचाव के लिए 5 फीसदी हेज का भुगतान कर हमारी लागत हमेशा के लिए नियंत्रित रहेगी और चुका पाने लायक होगी. हेज ब्याज दरें उस दर से कुछ बेसिस प्वाइंट ज्यादा होंगी जिसपर सरकार स्थानीय बाजार में उधार ले सकती हैं लेकिन विदेशों में निवेश से होने वाले, कई फायदों से इसकी भरपाई हो जाएगी साथ ही ये तथ्य भी है कि निजी कर्जदारों को घरेलू बॉन्ड मार्केट में ज्यादा नकद मिलता है.
आपत्ति: विदेश जाने की क्या जरूरत है जब आप FPI (फॉरेन पोर्टफोलियो इनवेस्टर्स) को घरेलू बाजार में ज्यादा उधार देने को कह सकते हैं यानी उन्हें ज्यादा रुपया बॉन्ड बेच सकते हैं
जवाब: ऐसा करना बाहर से देखने में अच्छा है. क्योंकि जब आप विदेश में सॉवरिन बॉन्ड लाते हैं तो आप पास FPI, जो भारत में निवेश करने के लिए अधिकृत होते हैं, से अलग पूरी तरह से एक कर्ज देने वालों के एक नए वर्ग तक पहुंचते हैं.
आपत्ति: विदेशी निवेशक अंधाधुंध तरीके से हमारे बॉन्ड को सस्ते में बेच सकते हैं जिससे रुपया घूमता रहेगा और “आयात” बढ़ सकता है
जवाब: गलत. चूंकि बॉन्ड को डॉलर में दर्शाया जाएगा और विदेशी एक्सचेंज में कारोबार होगा, सस्ते में बेचने का कोई असर सीधे रुपये और घरेलू बाजार पर नहीं होगा. वास्तव में ऊपर FPI को रुपया बॉन्ड ज्यादा बेचने के जिस विकल्प की वकालत की जा रही है, उससे सस्ते में बेचने का खतरा बनता है जिसे गलत तरीके से डॉलर बॉन्ड के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.
आपत्ति: डरावने, बदलते समय में भारत पर अंतरराष्ट्रीय डिफॉल्ट का खतरा मंडरा सकता है
जवाब: ये डर बिल्कुल गलत है. विदेशों में रह रहे भारतीय हर साल करीब 70 बिलियन डॉलर देश में रह रहे अपने रिश्तेदारों के लिए भेजते हैं. अप्रवासी भारतीयों (NRI) ने अपने भारत में करीब 100 बिलियन डॉलर का टर्म डिपोजिट भी कर रखा है. अंत में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 18 गुना बढ़कर 30 बिलियन डॉलर पर है और ये लगातार बढ़ ही रहा है. अगर हमारे पास इस जोखिम के लिए साहस नहीं है तो हार मान लें (या स्वैच्छिक रिटायरमेंट ले लें).
इसलिए जीएसटी परिषद के माननीयों, आइए, लेते हैं एक छोटा डॉलर ‘रिस्क’, साहसी बनें और भारत के संविधान को सलाम करें.
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