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क्रिकेट में एक मजेदार कहानी है- एलबीडब्ल्यू के लिए बार-बार अपील किए जाने के बाद भी अंपायर बैट्समैन को आउट नहीं दे रहे थे. लेकिन बॉलर ने स्टंप्स उड़ा दिए और अंपायर की ओर देखने लगा:
अंपायर- वो तो बोल्ड हो गया.
गेंदबाज- मुझे पता है सर, लेकिन क्या वो आउट हो गया?
गुजरात का चुनाव नतीजा भी कुछ इसी तरह का है. बीजेपी की सरकार बनेगी, लेकिन क्या पार्टी की जीत हुई और कांग्रेस की हार हुई? लेकिन क्या पार्टी को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है? इस सवाल का जो भी जवाब देना चाहेगा, समझिए वो खतरे से खेल रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात की शान हैं, वहां के आइकन. और सामने राहुल, एक बाहरी, एक ऐसे नेता, जिनकी पार्टी लगातार शिकस्त झेल रही है.
मतलब ये कि प्रधानमंत्री मोदी की जीत नहीं हुई और न ही राहुल हारे. राजनीति में साहस दिखाने के मामले में उनका ग्राफ काफी ऊपर गया. आज के धमाकेदार नतीजे का मेरे हिसाब से सबसे बड़ा निष्कर्ष यही है.
मुझे याद है कि मैंने अपने एडिटर्स को उस समय कहा था कि यूपी की जीत बीजेपी के प्रदर्शन का शिखर है.
पंजाब, बवाना, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ का चुनाव, यूपी निकाय चुनाव. मैंने जान-बूझकर अलग-अलग स्तर वाले चुनावों का हवाला दिया है. बवाना को छोड़कर बीजेपी को हर उस चुनाव में असफलता मिली, जहां केंद्र या राज्य, किसी स्तर पर उसकी सरकार थी. ये बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हो सकती है.
प्रधानमंत्री ने नोटबंदी को गरीबों के हित वाला कदम बताया और इस संदेश को ठीक से पहुंचाने में सफल भी रहे. लोगों ने उम्मीद में सारी तकलीफें झेलीं. लोगों को लगा कि वो फैसला बेईमानों को जमीन पर ला देगा.
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के नतीजे शायद उसी का परिणाम थे. लेकिन जैसे-जैसे लोग हकीकत से रूबरू होने लगे, लोगों ने सवाल पूछने शुरू कर दिए हैं. और उस पर से जीएसटी की मार. प्रधानमंत्री को इस माहौल से उबरने के लिए असाधारण फैसले लेने होंगे और शायद इसके लिए अपने विरोधियों की बातों को भी ध्यान से सुनना होगा.
यूपी चुनाव के बाद पंडितों के बड़े-बड़े ऐलानों पर फिर से विचार करने की जरूरत है. उस समय कहा गया कि कांग्रेस, राहुल और विपक्ष के लिए 2019 में 'नो चांस'. कहा गया कि 2019 में बीजेपी को 350 से कम सीटें नहीं आने वाली हैं. ऐसे ऐलानों पर शायद अब विराम लगेगा. और वो भी उस राज्य के नतीजों के बाद, जो मोदी जी की जन्मभूमि और कर्मभूमि है.
ये थे मेरे पांच निष्कर्ष. इसके अलावा, अगर प्रधानमंत्री की नजरें इनायत हों, तो एक सुझाव भी है. मेरा मानना है कि अगर प्रधानमंत्री अपनी विकासोन्मुखी राजनीति की तरफ नहीं मुड़े तो 2014 में उनके साथ जो प्रगतिशील वोटर्स जुड़े थे, उनके छिटकने का खतरा है.
1999 के बाद के चुनावों पर नजर डालें, तो बीजेपी और कांग्रेस को मिलाकर दोनों पार्टियों को 50 फीसदी वोट मिलता रहा है. दोनों का अपना-अपना हिस्सा करीब 25 फीसदी रहा है. 2014 में बीजेपी ने इस बंधन को तोड़ा और करीब 5 फीसदी मॉडरेट वोटर्स को अपनी तरफ खींच लिया. इसकी वजह से जहां बीजेपी 30 फीसदी का आंकड़ा पार कर गई, वहीं कांग्रेस 20 फीसदी के नीचे गिर गई.
अगर प्रधानमंत्री दोबारा विकास की तरफ नहीं मुड़े और कट्टरपंथियों पर लगाम नहीं लगा पाए, तो 2019 का मौका उनके हाथ से फिसल सकता है.
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Published: 18 Dec 2017,04:40 PM IST