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गुजरात चुनाव: सियासी पार्टियां पाटीदारों को क्यों पटाना चाहती हैं?

गुजरात में पाटीदार अभी अपने पत्ते खोलने को नहीं तैयार

अमिताभ तिवारी
नजरिया
Published:
पाटीदारों को रिझाने में लगे राजनीतिक दल
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पाटीदारों को रिझाने में लगे राजनीतिक दल
( फोटो:Vibushita Singh/The Quint )

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गुजरात विधानसभा चुनाव में ज्यादा दिन नहीं बचे हैं और पाटीदार समुदाय की अहमियत राज्य में बढ़ने लगी है. आनंदीबेन पटेल के शासनकाल में बीजेपी ने पाटीदारों के लिए आरक्षण के मसले पर सख्त रुख दिखाया और उनके नेता हार्दिक पटेल के खिलाफ राजद्रोह का मामला दायर कर दिया.

हालांकि, उनकी राजनीतिक पहुंच को देखते हुए हाल ही में बीजेपी सरकार ने समुदाय के प्रतिनिधियों को बातचीत के लिए बुलाया. 27 सितंबर को बीजेपी सरकार ने पाटीदारों को खुश करने के लिए कई कदमों का ऐलान किया है.

इन कदमों का कितना असर समुदाय पर होगा, ये देखना होगा. हार्दिक के दल ने अपना संघर्ष जारी रखने और उस पार्टी को समर्थन देने का संकल्प लिया है, जो उनकी मांग मानेगी. कांग्रेस भी समुदाय को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है, ताकि बीजेपी से उसके मोहभंग का फायदा उठाया जा सके. राहुल गांधी ने इस हफ्ते अपनी ‘नवसर्जन गुजरात यात्रा’ की शुरुआत पाटीदारों के प्रभुत्व वाले इलाकों से की.

गुजरात चुनाव में पाटीदार समुदाय का असर (इन्फोग्राफिक्स: Harsh Sahani/ The Quint)

पाटीदार समुदाय का प्रभाव

पाटीदार या पटेल गुजरात में आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली समूह है. 1970 के अंत तक पूरे राज्य में उनका राजनीतिक दबदबा था और वो कांग्रेस के पक्के समर्थक थे. लेकिन 1980 के दशक में कांग्रेस ने आरक्षण के समीकरणों और इंदिरा के ‘गरीबी हटाओ’ नारे को देखते हुए अपना फोकस KHAM (खाम) गठजोड़ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) की तरफ कर दिया था. इससे पटेल नाराज हो गए और बीजेपी की तरफ झुक गए. आज एक-तिहाई बीजेपी विधायक और सात वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री, पटेल हैं.

पाटीदार की आबादी राज्य में करीब 16 फीसदी है. गुजरात में जातिवार देखें तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के पास, पाटीदारों को छोड़कर, बराबर वोट हैं, यानी 42-42 फीसदी. पारंपरिक रूप से खाम गठजोड़ ने कांग्रेस को बड़े पैमाने पर वोट दिया है, जबकि सवर्णों और अन्य पिछड़ा वर्ग ने बीजेपी को. ये पाटीदार समुदाय का ही समर्थन है जिसने पिछले दो दशक से बीजेपी के पक्ष में पलड़ा झुका रखा है.

लेउवा और कड़वा ने 2012 में बीजेपी को वोट दिया

पटेलों में दो उप-समुदाय हैं- लेउवा और कड़वा. हार्दिक, कड़वा पटेल हैं. केशुभाई पटेल लेउवा समुदाय से हैं. 1990 के दशक से ही दो-तिहाई से ज्यादा पटेल, बीजेपी के पक्ष में वोट करते आए हैं. पाटीदार समुदाय में लेउवा का हिस्सा 60 फीसदी और कड़वा का हिस्सा 40 फीसदी है. कांग्रेस को कड़वा के मुकाबले लेउवा से ज्यादा समर्थन मिलता रहा है. पाटीदार समुदाय संगठित रहता है और एक पक्ष में सामूहिक वोट डालता है. 2012 में बीजेपी को 63 फीसदी लेउवा और 82 फीसदी कड़वा के वोट मिले थे.

किसी पार्टी के पक्ष में इतना बड़ा समर्थन सिर्फ मुस्लिम दिखाते रहे हैं- 2012 में कांग्रेस को 72 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे. पाटीदार 73 विधानसभा क्षेत्रों में किस्मत का फैसला कर सकते हैं, जो गुजरात में विधानसभा की कुल सीटों का 40 फीसदी है.
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कांग्रेस ने स्थिति सुधारी है

कांग्रेस की हालत चुनावों में खराब होती गई है, 1985 में 55.6 फीसदी वोट से गिरकर 2012 में 38.9 फीसदी तक. वहीं इसी अवधि में बीजेपी का ग्राफ 15 फीसदी से बढ़ते हुए 48 फीसदी तक पहुंच गया है. पिछले तीन चुनावों में, ये 48-50 फीसदी के बीच रहा है.

कांग्रेस ने भी 1990 में 30.7 फीसदी से अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 2012 में इसे 39 फीसदी तक पहुंचाया. राज्य में जनता दल के खत्म होने का फायदा दोनों पार्टियों को मिला है. मुकाबला मोटे तौर पर द्विपक्षीय ही रहा है, और इन दोनों पार्टियों ने मिलाकर 90 फीसदी वोट हासिल किए हैं. औसतन बीजेपी और कांग्रेस के बीच 10 फीसदी वोटों का अंतर रहा है.

पाटीदार आंदोलन Vs केशुभाई का विद्रोह

बीजेपी के वोट शेयर पर नजर डालें, तो दिखता है कि इसका करीब एक-चौथाई पाटीदारों से आता है. अन्य पिछड़ा वर्ग, जिसमें कोली भी हैं, बीजेपी के लिए सबसे बड़ा वोटर ग्रुप है. उसके बाद पाटीदार और फिर सवर्ण. 2012 में बीजेपी को 48 फीसदी वोट मिले थे, जिनमें 11 फीसदी पाटीदारों का था.

बीजेपी की बड़ी चिंता ये है कि इस समुदाय का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो रहा है, क्योंकि अगर एक-तिहाई पाटीदार भी सत्तारूढ़ पार्टी को वोट नहीं देते हैं तो मुकाबला काफी कठिन हो जाएगा. 2012 में, केशुभाई पटेल ने बीजेपी से बगावत करके गुजरात परिवर्तन पार्टी से चुनाव लड़ा था. हालांकि इस पार्टी को सिर्फ 3.6 फीसदी वोट मिले, ये सौराष्ट्र और कच्छ में बीजेपी के 23 उम्मीदवारों की हार का कारण बनी. लोगों का मानना है कि मौजूदा पाटीदार आंदोलन केशुभाई की बगावत से काफी बड़ा है.

16 फीसदी आबादी वाले पाटीदार गुजरात में सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं. जहां दूसरे जाति/समुदायों ने अपना मन बना लिया है, पटेल आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक हलचल को गौर से देख रहे हैं. वो जानते हैं कि जाति समीकरण उन्हें ‘किंगमेकर’ बनाते हैं.

वैसे इस वक्त तीसरे मोर्चे की भी बात हो रही है, ये थोड़ा मुश्किल लगता है कि पाटीदार उसे समर्थन दें क्योंकि उसके जीतने की संभावना काफी कम है. दो दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता का स्वाद चखने के बाद पाटीदारों के लिए सत्ता से बाहर रहना मुश्किल होगा. इसलिए वो दोनों बड़ी पार्टियों से अपनी मांग पूरी कराने के लिए जमकर मोल-भाव करेंगे.

1 अक्टूबर से बीजेपी की ‘गुजरात गौरव यात्रा’ सरदार पटेल के जन्मस्थान करमसद से शुरू हो रही है, ताकि पाटीदारों को अपनी ओर खींचा जा सके. अगर हार्दिक पटेल बीजेपी के खेमे में नहीं आते, तो पार्टी आने वाले महीनों के दौरान समुदाय का वोट बांटने की अपनी कोशिशें तेज करेगी.

(अमिताभ तिवारी राजनीतिक सलाहकार और समीक्षक हैं. वो कॉरपोरेट जगत और इन्वेस्टमेंट बैंकिंग से जुड़े रहे हैं. अमिताभ ‘बैटल ऑफ बिहार’ के सह-लेखक हैं और उनसे आप @politicalbaaba पर संपर्क कर सकते हैं. इस लेख में छपे विचार लेखक के हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है, न ही इनकी जिम्मेदारी लेता है.)

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