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गुजरात के चौंकाने वाले नतीजों को आए अभी 72 घंटे भी नहीं हुए हैं, लेकिन लगता है कि राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है. कुछ नमूने देखिए:
बीजेपी को चुनाव में 1.40 करोड़ वोट मिले और कांग्रेस को 1.20 करोड़. बीजेपी को 15 लाख सरप्लस वोट सिर्फ 5 शहरी जिलों में मिले.
अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत, राजकोट और भावनगर में से उसने 50 सीटें जीतीं, जबकि उसे राज्य में कुल 99 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस को इन 5 जिलों में 12 से भी कम सीटें मिलीं.
इन शहरी जिलों को छोड़ दें, तो पूरे गुजरात में कांग्रेस को 70 सीटों पर जीत मिली, जबकि बीजेपी को 44 सीटों पर. यानी इनमें से दो-तिहाई सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हो गया.
7 ऐसे जिले भी हैं, जिनमें बीजेपी को एक सीट भी नहीं मिली.
इस पर बौद्धिक बहस चल रही है कि गुजरात का असल विजेता कौन है?
जो लोग मोदी के साथ हैं, वे कह रहे हैं कि 2012 से 2017 के बीच बीजेपी का वोट शेयर 2 पर्सेंट बढ़ा है. वे जोर देकर कह रहे हैं कि 2014 लोकसभा चुनाव में विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी को मिली बढ़त की तुलना 2017 से नहीं करनी चाहिए.
कांग्रेस समर्थक इससे सहमत नहीं हैं. वे 2014 लोकसभा चुनाव की तुलना इस बार के चुनाव से कर रहे हैं. उनका कहना है कि 2012 विधानसभा चुनाव का संदर्भ बिल्कुल अलग था. वे दावा कर रहे हैं कि मोदी के गढ़ में बीजेपी के वोट शेयर में 11 पर्सेंट की गिरावट आई है.
2014 लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने 60 पर्सेंट वोट हासिल किए थे. स्वतंत्र भारत में किसी भी बड़े राज्य के सीएम को इतना वोट शेयर शायद आज तक नहीं मिला है. कांग्रेस के समर्थक इसलिए मोदी को आसमान से जमीन पर लाने का वादा कर रहे हैं. इस बार गुजरात चुनाव में बीजेपी को 49 पर्सेंट वोट मिला.
अगर इस तमाशे को रहने दें, तो गुजरात का असल विजेता कौन है, इसका फैसला इससे होता है कि आप 2012 की तुलना 2017 से कर रहे हैं या 2014 लोकसभा चुनाव की तुलना इस बार के नतीजों से.
इस बारे में मैं 5 अहम बातें यहां दे रहा हूं.
2017 में मोदी ने 2014 की तरह ही कैंपेन किया. वो एक रैली से दूसरी रैली में जाते रहे. एक दिन में उनकी पांच-पांच रैलियां हुईं. हेलिकॉप्टर की गर्द झाड़ते हुए कभी उनकी आवाज धीमी पड़ जाती थी तो अचानक वो हुंकार भी भरने लगते थे. 2014 के मुकाबले इस बार उनकी रैलियों में कम भीड़ जुटी और पहले जैसा जोश भी लोगों में नहीं दिखा. उन्होंने कांग्रेस पर हमला करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.
इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि री-इलेक्शन के लिए कैंडिडेट मोदी थे. उन्होंने अमीरों को कुचलने वाली नोटबंदी- जो उनके हिसाब से भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और देश को डिजिटाइज करने और उद्यमियों की मदद वाला कदम है- जैसी अपनी पहल का जिक्र किया.
फसलों की कम कीमत को भूल जाइए. गुजरात के वोटरों को पाकिस्तान की दुष्ट नीतियों का क्रैश कोर्स कराया गया. बीच-बीच में डोकलाम और चीन का जिक्र भी कैंपेन के दौरान हुआ. ऐसा लगा कि कश्मीर से आईएसआई एजेंट कच्छ बॉर्डर पर चले आए और यहां से गुजरात के इलेक्शन बूथ तक घुसपैठ कर ली.
जहां बीजेपी की तरफ से सिर्फ मोदी कैंपेन में नजर आ रहे थे, वहीं कांग्रेस की तरफ से यही काम राहुल गांधी ने किया. गुजरात में एक राष्ट्रीय नेता का सामना दूसरे राष्ट्रीय नेता से हुआ. इसे स्थानीय मुकाबला कैसे कहा जा सकता है? ये एक राष्ट्रीय चुनाव था, जो एक राज्य में लड़ा जा रहा था.
2014 में मोदी को पूरे देश के लोगों को संबोधित करना था. इसलिए उन्होंने हिंदी में भाषण दिए थे. इस बार उन्होंने लोगों तक पहुंचने के लिए गुजराती को चुना. इस आधार पर तो इसे लोकल चुनाव माना जाना चाहिए. लेकिन मोदी के गुजराती में (राष्ट्रीय मुद्दों पर) बात करने पर 2014 की तुलना में लोगों की मजबूत प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ.
मैंने 5 वजहें बताई हैं, जिनकी वजह से 2017 गुजरात चुनाव की तुलना 2014 लोकसभा चुनाव से की जानी चाहिए, न कि 2012 विधानसभा चुनाव से. इस मापदंड पर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी ने 11 पर्सेंटेज प्वाइंट्स गंवा दिए हैं.
जो जीता वही सिकंदर!
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