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गुरमेहर कौर के बारे में अगर कोई एक हफ्ते पहले पूछता तो सिवाय उसके परिवारवालों, दोस्तों के अलावा कोई कुछ नहीं कह पाता. लेकिन आज अगर कोई उसके बारे में पूछे तो सोशल मीडिया, टीवी, अखबार देखने पढ़ने वाला हर शख्स उसके बारे में आसानी से बता सकता है. उसके घर परिवार का पूरा ब्योरा भी दे सकता है. यहां तक कि बड़े-बड़े नामचीन भी उसके साथ और खिलाफ खड़े दिखायी पड़ेंगे.
जावेद अख्तर उसकी तरफदारी कर रहे हैं तो वीरेंद्र सहवाग उसकी हंसी उड़ा रहे हैं. देश के केंद्रीय मंत्री इशारों-इशारों में गुरमेहर को देशद्रोही करार दे रहे हैं. आज गुरमेहर के बारे में कह सकते हैं कि वो एक आम लड़की के दायरे से निकल कर एक यूथ आइकॉन बन गयी है. आप गुरमेहर से नफरत करें या फिर प्यार, लेकिन आज आप उसको नजरअंदाज नहीं कर सकते.
ये संभव है कि कुछ दिनों के बाद वो बहस से गायब हो जाये. ये भी संभव है कि उसको लेकर चर्चा होना बंद हो जाये. वो टीवी पर भी न दिखाई दे. लेकिन जिस मुद्दे की वो प्रतीक बन गई है, 21 साल की छोटी सी उम्र में वो उभरते भारत की एक नई कहानी कह रहा है.
हालांकि इस मुद्दे को भटकाने के लिये देशप्रेम को भी डाल दिया गया. लेकिन चर्चा खूब गरम है. यही तो एक आइकॉन का काम है. वो समाज में उठती प्रवृत्तियों, उम्मीदों, आशाओं, निराशाओं, परंपराओं, साहस, मानवीय संवेदनाओं के ही तो प्रतीक होते हैं.
उसने वो मुद्दा उठाया जो बड़े-बड़े महारथी उठाने से डर रहे थे. या फिर कन्नी काट रहे थे. और इस संदर्भ में वो अकेली नहीं है. पिछले सालों में ये देखने में आया है कि अचानक कोई नया नायक खड़ा हो जाता है.
इन सबसे काफी पहले 2011 में अन्ना हजारे एक नई राष्ट्रीय चेतना के वाहक बन गये थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन चला उसने राष्ट्रीय विमर्श को बदलने का काम किया. उनके बाद अरविंद केजरीवाल उस चेतना को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.
ये सभी लोग अपनी तरह से राजनीतिक पटल पर दखल तो दे रहे हैं, राजनीतिक बहस को जन्म दे रहे हैं या फिर बुझते हुये ज्वलंत मुद्दों को नयी आग देने का काम कर रहे हैं.
चाहे लोहिया का पिछड़ावाद हो या फिर जेपी का आपातकाल के खिंलाफ आंदोलन. या आगे कहें बीजेपी का राम मंदिर विवाद. इन सबके पीछे पेशेवर राजनेताओं की सोच ही काम कर रही थी. लेकिन अन्ना से गुरूमेहर तक का नया सफर एकदम नया है. नेता पीछे है आम जन आगे हैं.
भारतीय संदर्भ से अलग-अगर देखें तो वेल घोनिम का नाम सहसा याद आता है. 25 जनवरी 2011 के पहले वो एक आम आदमी था. तीस साल का युवक. तीन महीने में ही टाइम मैगजीन ने दुनिया के सबसे प्रमुख 100 लोगों मे सबसे ऊपर घोनिम का नाम रखा.
मिस्र के नेता एल बारदेई ने लिखा कि घोनिम ने निराशा में डूबी एक पूरी पीढ़ी को उम्मीद दी. मिस्र से जो क्रांति का बिगुल बजा तो पूरे मध्यपूर्व एशिया का नक्शा ही बदल गया, लोकतंत्र की नयी बयार बहने लगी. इसी तरह निराशा में डूबे फ्रांस के लोगों को उम्मीद देने का काम 1789 में चंद आम लोगों ने किया था.
जैकोबिन क्लब और उससे जुड़े लोग या फिर रोब्स पियरे जैसे लोग वकील मामूली थे. कोई नेता नहीं थे और न ही उस वक्त की राजशाही में उनका कोई दखल था. लेकिन जब राजा का आतंक बढ़ा, मंहगांई बढ़ी, लोगों का जीना दूभर हो गया तो विद्रोह की शुरुआत हुयी, राजशाही हमेशा के लिये फ्रांस में खत्म हो गयी, सामंतवाद का सफाया हो गया, पादरियों की ताकत कम हुयी और समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांत पर लोकतंत्र की नींव पड़ी. ईजे हाब्सबाम जैसे इतिहासकार ने लिखा कि फ्रांसिसी क्रांति ने लोगों की उम्मीदों को राजशाही से जनता की तरफ मोड़ दिया.
तो क्या माना जाये? भारत में भी कुछ बदल रहा है? क्या बड़ी घटना के पदचाप सुनाई दे रहे हैं? क्या कुछ बड़ा घटने वाला है? बदलाव प्रकृति का नियम है. भारतीय राजनीति, पिछले कुछ सालों से समाज में जो नया परिवर्तन हो रहा है उसको प्रतिनिधित्व देने में नाकाम रही है. नई अर्थव्यवस्था और संवैधानिक ढांचे ने समाज में क्रांतिकारी बदलावों का आगाज कर दिया है. नये मध्यवर्ग के साथ-साथ पिछड़ा और दलित वर्ग अपने नये एहसासों का हिसाब और हक दोनो ही मांग रहा है.
महिलाओं में भी नयी चेतना का प्रसार काफी तेजी से हो रहा है. वो पुरुष प्रधान ढांचे के खिलाफ अपने को मजबूती से स्थापित कर रही है. लेकिन राजनेता और राजनीति दुर्भाग्य से आज भी पुरानी दुनिया में सांस ले रहे हैं. वही घिसे-पिटे लोग, वही घिसी-पिटी बातें, वही घिसे-पिटे मुद्दे. न नये की पहचान है और न ही कोई नया समाधान. सोशल मीडिया इस नये संदर्भ को नया मंच दे रहा है. आम जन वहां अपनी बात पुरजोर तरीके से रखने की कोशिश करता है. जब उसकी बात सुनी नहीं जाती है या फिर उसका मजाक उड़ाया जाता है तो विक्षोभ बढ़ता है.
सोशल मीडिया बहुत ताकतवर हो गया है. इसकी पहुंच हर घर तक है. शहर हो या फिर गांव सब जगह इसकी धमक है. वहां खुले में बहस हो रही है. टामस फ्रीडमैन कहता है कि सन 2000 में जब हम सब सो रहे थे तब चुपके से दुनिया वैश्वीकरण के तीसरे चरण में प्रवेश कर गयी. फ्रीडमैन के मुताबिक वैश्वीकरण का पहला चरण 1492 से 1800 तक चला, दूसरा 1800 से 2000 तक, यानी इस वक्त विश्व वैश्वीकरण के तीसरे चरण के शुरुआती दौर में है.
अगर पहले दौर की खासियत देशों के बीच वैश्वीकरण की ललक थी, दूसरे दौर को बड़ी-बड़ी कंपनियां रेखांकित करती थीं तो तीसरे को व्यक्ति संचालित कर रहा है. वैश्वीकरण के इस दौर में व्यक्ति पूरे दुनिया के लोगों से साझेदारी भी कर रहा है और आपस में प्रतिस्पर्धा में भी जुटा है. सोशल मीडिया ने पूरी दुनिया के लोगों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है. एक भारतीय वैसे ही किसी अमेरिकी या जापानी से बहस कर सकता है जैसे वो कुछ समय पहले तक अपने गांव की चौखट या पंचायत और पान की दुकान पर करता था. इस सुविधा ने इस नये जन को नयी ताकत दी है और उसके लिये ज्ञान के नये द्वार खोले हैं. अब वो बड़े-बड़े नामों से भयभीत नहीं होता. न ही अपने को कमतर महसूस करता है.
आज जरूरत इस नयी आकांक्षा को समझने की है. नये सामाजिक व्यक्तित्व के बरक्स नये राजनीतिक यंत्र को इजाद करने की है. गुरमेहर अकेली दिख सकती है, पर वो अकेली है नहीं. उसके लिखे शब्द पूरे विश्व से जुड़े हैं. फ्रांस में जब रानी ने लोगों को केक खाने का ज्ञान दिया था तब लोगों की भावनायें आहत हुईं थी. तब क्रांति का आह्वान हुआ था.
गुरमेहर जैसे लोगों को समझने की आवश्यकता है. उस जैसे लोग जब नई बहस को जन्म देते हैं जिनकी कोई पहचान नहीं थी तो मतलब साफ है राजनीति असफल हो रही है, विचारधारा के वर्चस्व के संघर्ष में असली मुद्दे पीछे छूट रहे हैं. उनको समय रहते अगर हैंडल नहीं किया गया तो कौन जाने भविष्य के किस कोने में कौन सा तहरीर स्क्वायर बैठा है और न जाने कहां से कोई गुरमेहर वेल घोनिम बन जाये.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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