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जामिया का यूथ नए साल के जश्न में क्यों गा रहा ‘जन गण मन’?

नए साल का जश्न फीका है, लेकिन सूरज उगने लगा है, किरणें दिख रही हैं

संतोष कुमार
नजरिया
Updated:
31 दिसंबर की रात शाहीन बाग में CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शन
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31 दिसंबर की रात शाहीन बाग में CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शन
(फोटो: मुकुल भंडारी/क्विंट हिंदी)

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नए साल की सुबह सूरज ने पूरी अंगड़ाई नहीं ली. धूप पूरी खिली नहीं. गरमाहट कुछ कम-कुछ मद्धम. लेकिन मंद ही सही, 18 दिन बाद दिल्ली ने सूरज की ऐसी किरणें देखीं, जिनमें ठंडे थपेड़ों से लड़ने की जुर्रत थी. बदन अब भी ठिठुर रहा था लेकिन उम्मीद की किरणें थीं.
कुछ घंटे पहले.
दिल्ली के ही शाहीन बाग में. रात के बारह बजे. ठिठुरते हाथ हवा में लहराए. कांपते लब हिले. पूरी गर्मजोशी से गूंज उठा- 'जन गण मन' 'भारत माता की जय'. 'इंकलाब जिंदाबाद'.
मैं सोच रहा हूं कि 31 दिसंबर की रात और 1 जनवरी की सुबह-इन दो तस्वीरों में कुछ एक जैसा है क्या? सिहराता अंधेरा-सर्द सवेरा. गर्म खून-गर्माहट की किरणें.

शाहीन बाग में ये लोग पिछले कई दिनों से हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में एक पतले से टेंट के नीचे जमे हैं. ज्यादातर यूथ. कहने वाले इन्हें भटके हुए, भ्रमित और यहां तक कि 'दूषित' भी कह रहे हैं, लेकिन ये जन-गण-मन गा रहे थे, इंकलाब के नारे लगा रहे थे.

इनके दिलों में भी देश के लिए वही जज्बा है, जो इनकी आलोचना करने वालों के दिलों में है. बस देश कैसा हो, इसका आइडिया अलग है. और इस अलग आइडिए में उम्मीद की किरणें हैं. उम्मीद की किरणों के उजास का इंतजार है,क्योंकि रात ढली नहीं है.

नए साल के मुहाने पर जरा पीछे मुड़िए

देखिए 7 दशक में हम कहां पहुंचे हैं?


क्या हम ऐसा देश बना पाए हैं, जहां कोई भूखा पेट न सोता हो? क्या हमारे किसान आज भी खुदकुशी को मजबूर नहीं है? क्या हर हुनरमंद हाथ को काम है? क्या हर बेटी बराबरी का अहसास करती है? क्या हर लड़की बेधड़क घर से निकलती है? क्या जात-पात को लेकर भेदभाव खत्म हुआ है? धर्म को लेकर झगड़े खत्म हुए हैं क्या? एप्पल की तरह हम चार ऐसी चीजें बना पाए हैं क्या, जिसे खरीदने के लिए दुनिया कतार में खड़ी हो जाए? इन जैसे तमाम सवालों के जवाब हैं-नहीं. मुझे ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि पिछली पीढ़ियों ने हमें फेल किया है.

इस तिमिर में उम्मीद की किरणें यूथ से ही आनी हैं,आ रही हैं. देश में शायद ही कोई ऐसा कानून बना हो, जिसने सीधे संविधान की संरचना को चुनौती दी हो. और जब बड़े-बड़े नेता सिर्फ ट्विटर और फेसबुक पर CAA-NRC पर अपने विरोध का फर्ज निभा रहे हैं तो यूथ सीना तानकर खड़ा है. कहीं उसका सामना गोलियों से है, कहीं लाठियों से तो कहीं रिकॉर्डतोड़ सर्दी में वाटर कैनन से. और ये सिर्फ यूनिवर्सिटी के छात्र नहीं है. 
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सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत

जब बॉलीवुड का एक दिग्गज कहता है कि हम नहीं बोल सकते क्योंकि नुकसान हो जाएगा तो उसी इंडस्ट्री का यंग ब्रिगेड खुलकर सामने आता है. जब एक पार्टी के बुजुर्ग लिहाफ के अंदर से लोकतंत्र बचाने की कोशिश करते हैं तो उसी पार्टी की एक यंग नेता यूपी पुलिस से जूझती हैं. जब मोटी सैलरी पाने वाला टाइम पर ऑफिस पहुंच जाता है तो यूनिवर्सिटी का छात्र क्लास का बहिष्कार करता है. क्या उसका कुछ नुकसान नहीं हो रहा. यूथ को कुछ खोने का डर नहीं लगता. उसे तो सिर्फ पाना है, खोना नहीं है. खोने के लिए है ही क्या?

और ये युवा दिमाग है. संवारना हो या नए सृजन के लिए कुछ मिटाना हो, उसके पास एक से एक आइडिया है. विरोध के ऐसे तरीके हैं कि रोकने वाले अवाक. जब कहा गया कि विरोध करने वालों को कपड़ों से पहचान सकते हैं तो जामिया के छात्र बिन शर्ट सड़क पर उतर आए. जो लोग 'भारत माता की जय' बोलने की चुनौती देते हैं उनसे वो 'भारत माता की जय' बोलकर अपना विरोध जताते हैं. प्रधानमंत्री ने सही कहा है कि जब सिस्टम रिस्पॉन्ड नहीं करता तो यूथ बेचैन होता है.

युवा सिस्टम को फॉलो करना पसंद करते हैं. कभी कहीं सिस्टम की प्रतिक्रिया सही ना हो तो वे बैचेन भी हो जाते हैं और हिम्मत के साथ सिस्टम से सवाल भी करते हैं
29 दिसंबर को मन की बात में पीएम मोदी

वाकई में पूरे सिस्टम को पीएम की बात को सीरियसली लेना चाहिए. क्योंकि फिलहाल तो सिस्टम यूथ की सुनता नजर नहीं आता. और जब सिस्टम यूथ के सवालों का जवाब नहीं देता तो यूथ सवाल पूछकर जवाब के अंतहीन इंतजार में नहीं बैठता. रूस और फ्रांस की क्रांति से लेकर अमेरिका और अफ्रीका तक, इतिहास के पन्ने इस बात के गवाह हैं.

नए साल का जश्न फीका है, लेकिन...

नए दशक की दहलीज पर खड़े देश में सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा. कहीं 144 है. कहीं इंटरनेट बंद है. पाबंदियां हैं. दुश्वारियां हैं. विरोध को राष्ट्रद्रोह बताने वाली हवा बह रही है.

उत्तर का एक पूरा राज्य कटा है. उत्तर पूर्व का एक पूरा राज्य खफा है. बीच का एक पूरा राज्य किसी के ‘बदले’ का शिकार हो रहा है. और बाकी देश की जिन यूनिवर्सिटियों में भविष्य की रेसिपी तय होनी चाहिए है, वहां बेलगाम उबाल है. इन सबके बीच खबरिया चैनल स्पेशल प्रोग्राम चला रहा है - ‘दिल टोटे-टोटे हो गया’.

नए साल का जश्न फीका है. सर्दी अब भी बहुत है. उजाला पूरा नहीं है. कोहरा है. साफ-साफ दिख नहीं रहा. लेकिन सूरज उगने लगा है, किरणें दिखने लगी हैं. लिहाफ में दुबके लोगों को बाहर आने की जुर्रत दे रही हैं.

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Published: 01 Jan 2020,08:19 PM IST

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