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हार्दिक और राहुल के व्यवहार से ये जाहिर हो गया है कि भारतीय मर्दों की बचपन की ट्रेनिंग में भारी खोट है. परिवार, स्कूल और मोहल्ले लड़कों को एक अच्छा नागरिक बनना नहीं सिखा पा रहे हैं.
बात ये है कि जब कोई मर्द बड़बोलेपन में ऐसा कुछ बोलता है, उसमें एक पक्ष और होता है. वह पक्ष होता है औरत का. मर्द का औरतों और कई औरतों के साथ सोना उनके लिए शान की बात हो सकती है. जब वह किसी औरत के साथ सेक्स करता है, तो ये उसके लिए एक औरत को जीत लेना हो सकता है. लेकिन औरतों के लिए यह उतना आसान नहीं है.
अभी तक जैसा भारतीय समाज बना है, उसमें औरतों के लिए यह सब शर्म की बात है, इसमें स्टिग्मा यानी दाग है. ऐसा करने वाला मर्द कॉलर ऊंची करके, सीना तानकर चलता है. ऐसी चर्चा में आ गई औरतें अक्सर नजर झुकाकर, आंख बचाकर चलती है.
हार्दिक पांड्या और राहुल ‘कॉफी विद करण’ शो में खुद को मर्द साबित करने के चक्कर में ज्यादा बोल गए. उन्होंने चीयरलीडर्स के बारे में लूज टॉक किया, नाइट क्लब में लड़कियों के साथ अपने अनुभव सुनाए, लड़कियों को ट्रॉफी बताया, उनको पटाने के बारे में उलजुलूल बोला और साथ ही यह भी बताया कि जब पहली बार सेक्स करके आया था, तो पूरे परिवार को उसकी जानकारी दी थी.
इसमें कितना सच है और कितना झूठ, किसी को नहीं मालूम. हालाकि हार्दिक कह रहे हैं कि शो के फॉर्मेट की वजह से वे बिना-सोचे समझे यह सब बोल गए.
मुझे लगता है कि पांड्या और राहुल जब ये बोल रहे थे, तो उन्हें सचमुच मालूम नहीं था कि वे कुछ गलत बोल रहे हैं. इसलिए जब अचानक मामला बड़ा हो गया, तो वे समझ ही नहीं पाए कि उन्होंने ऐसा क्या गलत कह दिया कि इतना बड़ा विवाद हो गया. इसीलिए, माफी मांगने में भी उन्हें समय लग गया.
इस बीच कई लोग ये भी कहते पाए गए कि ‘गलती हो गई तो क्या दोनों का करियर खराब कर दिया जाए? अब दोनों ने गलती मान ली है तो माफ करो और उन्हें खेलने दो.’ वह तो देश में अब माहौल ऐसा बन गया है, वरना ऐसे मामलों के रफा-दफा होने में कितना समय लगता है? अब तक जाने कितने लोगों ने अपने कासानोवा यानी इंसानी सांड होने के किस्से बताए हैं और कोई बवाल नहीं हुआ.
ऐसी तमाम ट्रेनिंग बच्चों को दरअसल परिवार, स्कूल और आसपास के माहौल से मिलती है, जिसे समाजशास्त्री प्राइमरी सोशलाइजेशन या प्राथमिक सामाजीकरण कहते हैं. प्राइमरी सोशलाइजेशन की वजह से ही आदमी, आदमियों जैसा व्यवहार करता है. वह जूते में रखकर खाना नहीं खाता और ऑफिस मीटिंग के दौरान टेबल पर पैर नहीं रखता या 'नमस्ते' और 'गुड मॉर्निंग' बोलता है. ये सब वह अपने आसपास से सीखता है.
प्राइमरी सोशलाइजेश जानवरों में भी होता है. मिसाल के तौर पर घर का पालतू कुत्ता तभी पॉटी करता है, जब उसे टहलाने के लिए घर से बाहर ले जाया जाता है, उसे अपने प्राइमरी सोशलाइजेशन और ट्रेनिंग से पता होता है कि उसे कैसा व्यवहार करना है.
इस ट्रेनिंग के लिए दंड और पुरस्कार दोनों का एक साथ प्रयोग किया जाता है. जब आदमी या जानवर सामान्य व्यवहार के अनुसार काम करता है, तो उसे पुरस्कार दिया जाता है, जब वह कोई गलती करता है, तो उसे दंडित किया जाता है. इस तरह आदमी या जानवर सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार व्यवहार करना सीख लेता है. इस ट्रेनिंग के अभाव में आदमी हार्दिक पांड्या हो जाता है. ऐसी स्थिति में उन्हें दंडित करना पड़ता है. उसके बाद आदमी अक्सर सुधर जाता है.
अब तक वे ये सब करते आए थे. उन्हें न कोई टोकता था, न दंडित करता था. बल्कि इस तरह उन्हें माचो मैन माना जाता था और कई औरतें भी उन पर फिदा होती थीं, लेकिन देखते ही देखते ये बदल रहा है.
मर्दानगी औरतों की कीमत पर साबित नहीं की जा सकती. इसकी इजाजत जब तक थी, तब थी. अब नए कानून और गाइडलाइंस इसकी इजाजत नहीं देते. ऐसी कई घटनाएं अब सोशल मीडिया पर काफी शोर पैदा करती हैं. इन्हें लेकर समाज में जीरो टॉलरेंस का माहौल बन रहा है.
अगर परिवार इस मामले में सतर्क हो जाएं, तो इन घटनाओं पर काफी हद तक रोक लग जाएगी, क्योंकि आदमी सबसे ज्यादा परिवार से सीखता है और बचपन से सीखी हुई बातें अक्सर आदमी के व्यक्तित्व से चिपक जाती हैं और आखिर तक बनी रहती हैं.
इसलिए देश के तमाम हार्दिक पांड्या और राहुल के लिए इस घटना का सबक है कि आपका लूज टॉक अगर किसी को नीचा दिखा रहा है, उसका अस्मिता से खिलवाड़ कर रहा है, स्त्री विरोधी है, तो यह अस्वीकार्य है, नए दौर के नए नैतिक मानदंडों के हिसाब से ये गलत है. इसकी सजा अगर कानून न भी दे, तो संस्थाएं और समाज इसकी सजा दे सकता है. हार्दिक और राहुल इन दिनों यही सब सीख रहे हैं.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 16 Jan 2019,04:32 PM IST