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(चेतावनी: बलात्कार और हत्या- इस लेख के कुछ हिस्से पाठकों को विचलित कर सकते हैं. पाठक अपने विवेक का इस्तेमाल करें.)
उत्तर प्रदेश के हाथरस में एससी/एसटी (दलित) लड़की का गैंगरेप और हत्या सिर्फ एक जघन्य अपराध नहीं है. यह पुलिस के लिए एक क्लासिक उदाहरण के तौर पर याद किया जाएगा- कि ऐसे मामलों में उन्हें किस तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए.
पुलिस ने इस मामले में बेहद असंवेदनशीलता से काम लिया, शुरुआत से ही, उसकी गंभीरता को कम करके आंका.
पुलिस का कहना है कि लड़की ने अपने पहले बयान में बलात्कार ‘का जिक्र नहीं किया था’. अगर हम बहस से बचने के लिए इस बात को मान लें तो भी एक सवाल खड़ा होता है. पीड़िता की मां ने कहा था कि वह खेतों में घायल और बेसुध मिली थी. उसके कपड़े फटे हुए थे. उसके प्राइवेट पार्ट्स से खून बह रहा था. चूंकि पीड़िता को उस हालत में पुलिस स्टेशन नहीं ले जाया जा सकता था, इसलिए उसकी मां ने उसे ढंक दिया.
पुलिस यहीं नाकाम हो गई.
अगर कोई महिला खेतों में फटे हुए कपड़ों के साथ, क्रूरता की शिकार पाई जाती है तो उस स्थिति को बलात्कार/यौन हिंसा से जोड़ा जाता है. ऐसे में पुलिस के दिमाग में सबसे पहले क्या विचार आना चाहिए? बेशक, यौन हमले का. पुलिस को खुद ही ऐसे मामले को बलात्कार की कोशिश या मॉलेस्टेशन के मामले के तौर पर दर्ज कर लेना चाहिए और बाद में जरूरत होने पर उसमें परिवर्तन करना चाहिए, भले ही घायल लड़की उस समय साफ तौर पर ‘बलात्कार’ न बोल पा रही हो.
यह भी संभव है कि जब उसे होश आया और वह बातचीत करने लायक हुई तो सबसे पहले उसके दिमाग में वह आरोपी आया, जिसने उसका गला घोंटने की कोशिश की थी, जैसा कि उसने बताया था. उसे तुरंत बाद बलात्कार के कृत्य को स्मरण हुआ और अपने बाद के बयान में उसने उसका जिक्र किया.
इस मामले में पुलिस परिस्थितिजन्य सबूत को समग्र रूप से देखने में नाकाम रही.
पुलिस इस मामले में नाकाम क्यों रही? पहली वजह तो यह है कि वह अपने आकाओं को खुश करना चाहती है. बलात्कार के मामले को कम करके आंकना, वह भी वंचित समुदाय की किसी लड़की के बलात्कार के मामले को, राज्य की ‘शानदार’ कानून व्यवस्था की स्थिति को पुष्ट करने की कोशिश थी.
दूसरी वजह यह है कि वह जांच के दबाव से बचना चाहती है. अपने काम के बोझ को कम करना चाहती है.
पीड़िता के परिवार का आरोप है कि उसने हाथरस और अलीगढ़ में सही मेडिकल देखभाल नहीं मिली और उन्हें उसकी असली स्थिति के बारे में नहीं बताया गया. उसे क्या मेडिकल उपचार दिया गया, इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिली है, इसलिए हम दूसरी बात पर भरोसा कर सकते हैं. भारत में डॉक्टर इस बात के लिए कुख्यात हैं कि वे मरीजों और उनके परिजनों को मरीज की असली स्थिति के बारे में अच्छे से नहीं बताते.
उनकी जानकारी के लिए यह बताना जरूरी है कि आईपीसी का सेक्शन 375 (जिसे आपराधिक कानूनन संशोधन अधिनियम, 2013 ने संशोधित किया है) बलात्कार की परिभाषा को व्यापक बनाता है ताकि उसमें पेनो वेजाइनल पेनेट्रेशन के अलावा दूसरे कार्य भी शामिल किए जा सकें.
यहां मेडिको-लीगल जांच में बलात्कार के संदिग्ध होने की बात दोहराना, उनके कुछ दूसरे मंतव्यों की तरफ इशारा करता है.
पुलिस ने जिस तरह रातों-रात पीड़िता का दाह संस्कार किया, वह भी पुलिस प्रशासन की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है. पुलिस ने चोरी-छिपे रात के अंधेरे में यह संस्कार किया, और इसे देखकर हमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की याद आती है. ब्रिटिश प्रशासन ने कैसे उन्हें फांसी देने के बाद रात को ही उनका दाह संस्कार कर दिया था. कानून के लिहाज से यह एक बड़ी गलती थी. अगर यह तर्क भी दिया जाए कि पुलिस वाले ‘प्रदर्शनों और आंदोलनों को रोकना चाहते थे’- चूंकि उन्हें इस बात का डर था कि अगर पीड़िता का संस्कार उसके गांव में होता तो कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती थी, तो भी दो सवाल खड़े होते हैं.
इस मामले को देखकर हमें महाराष्ट्र के भंडारा की मार्च 2013 की घटना याद आती है. नागपुर से 70 किलोमीटर दूर भंडारा जिले के लखनी ताल्लुका में मुरवाड़ी गांव की तीन लड़कियों के साथ अज्ञात लोगों ने कथित तौर पर बलात्कार किया. फिर हत्या करके उन्हें खेत के कुएं में फेंक दिया. इन लड़कियों की उम्र छह, नौ और ग्यारह साल थी.
भंडारा जिले के सरकारी अस्पताल में अगले दिन पोस्ट मार्टम किया गया और उसमें कहा गया कि उनके साथ बलात्कार हुआ था. लेकिन मुंबई और एम्स के डॉक्टरों के पैनल ने बलात्कार न होने की बात कही. डॉक्टरों ने कहा कि लड़कियों की मौत पानी में डूबने से हुई.
बेशक, इस पर भी बहस की जा सकती है कि क्या लड़कियों की मौत इस तरह सुसाइड से हो सकती है. लेकिन एक और बात है- दो अलग-अलग तरह की रिपोर्ट्स एक साथ कैसे आ सकती हैं. इसमें किसी न किसी ने तो भारी भूल की है और उन्हें इस भूल के लिए सजा दी जानी चाहिए. पर ऐसा नहीं हुआ.
वे सभी गलतियां करते हैं. इसलिए संदिग्ध परिस्थितियों में दूसरी बार पोस्ट मार्टम की मांग को सुना जाना चाहिए.
पुलिस की तरफ से अकेला अच्छा काम यह हुआ कि उसने आरोपियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया. पर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि आरोपियों ने न तो अपनी पहचान छिपाने की कोशिश की और न ही गांव से भागने की.
यह मामला अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. यह जरूरी है कि डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए वेजाइनल स्वैब और पीड़िता के कपड़ों की जांच की जाए. डीएनए प्रोफाइलिंग को उन मामलों में भी हासिल किया जा सकता है, जहां केमिकल जांच सीमन की मौजूदगी साबित न कर पाए. बेशक, पीड़िता के आखिरी बयान को सही मायने में मौत से पहले का बयान नहीं कहा जा सकता, फिर भी सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में ऐसे बयानों में काफी महत्व दिया गया है.
बलात्कार और हत्या के मामलों की जांच कोई रॉकेट साइंस नहीं है. हर पुलिस प्रशिक्षण संस्थान में परंपरागत तकनीकों और प्रक्रियाओं की शिक्षा दी जाती है. अब यह जांच अधिकारी पर है कि क्या वे पेशेवर कौशल का इस्तेमाल करना चाहते हैं, और नई से नई वैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल करके बेहतर नतीजा देना चाहते हैं.
सबसे अफसोसजनक बात यह है कि भारतीय समाज लगातार क्रूरता और यौन विकृतियों की मिसाल देता रहता है. निर्भया, कठुआ, सूरत- इन सभी नृशंस घटनाओं से साबित होता है कि सिर्फ कानून ‘पुरुषों के दिमाग में बैठे शैतान’ को काबू में नहीं कर सकता.
इन हादसों से यह भी पता चलता है कि सामाजिक सुधारों का बहुत अधिक असर नहीं हुआ है. समाज में जो कुछ भी बदसूरत, पाशविक और भयावह है, वह इसीलिए कायम है क्योंकि विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को चुपचाप इससे फायदा होता रहता है. हम गुस्सा भी चुन-चुनकर करते हैं. कठुआ और सूरत के मामलों में बहुत अधिक विरोध नहीं हुआ. हाथरस के मामले में उतना गुस्सा जाहिर नहीं हुआ.
हाथरस की बेटी का बलात्कार और हत्या दो बार हुई, एक बार अपराधियों के हाथों, और दूसरी बार पुलिस वालों की असंवेदनशीलता के चलते. पुलिस की जड़ता ने उसके साथ-साथ उसके परिवार वालों के सपनों को भी रौंद दिया है.
(डॉ. एन सी अस्थाना रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और डीजीपी केरल तथा लंबे समय तक एडीजी सीआरपीएफ और बीएसएफ रह चुके हैं. वह @NcAsthana पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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