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हिंदी हितैषी हैं तो पढ़िए और जानिए कैसे इतनी व्यापक भाषा बनी है हिंदी.

मृणाल पांडे
नजरिया
Updated:
(फोटोः द क्विंट)
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(फोटोः द क्विंट)
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हिंदी पखवाड़ा चल रहा है. और हर साल की तरह गैर हिंदी, गैर संस्कृत मूल के विदेशी शब्दों की हिंदी में भारी आवक पर बदस्तूर शोक और चिंता जताई जा रही है. यह शोक हर बार महज एक नाटक हो ऐसा भी नहीं.

हिंदी हितैषी हैं तो दो बातें समझ लीजिए

हिंदी के तमाम हितैषी दो बातें साफ समझ लें. एक, कि गंगा की तरह हिंदी की धारा भी सारी हिंदी पट्टी से कई अन्य छोटी नदियों नालों, घाटों से अनेक किस्म का जल और जैविक तत्व बटोरती हुई बहती रही हैं, और उसमें लगातार इलाके की बोलियों, उर्दू, फारसी या अंग्रेज़ी की धारायें आ कर मिलती रही हैं. यह संकरण हिंदी को प्रदूषित नहीं करता, उसे समृद्ध और व्यापक बनाता है.

दूसरा, जैसे-जैसे 11 राज्यों में फैली विशाल हिंदी पट्टी में साक्षरता बढ़ रही है, और मतदाता अपनी बोली में राजनीति और अर्थनीति समझना चाहते हैं, तो उस जानकारी के लिये हिंदी के अनेक इलाकाई प्रकार भी परदेसी शब्दों को समेटते हुए सामने आ रहे हैं. खासकर क्षेत्रीय मीडिया में.

व्यापक भाषा है हिंदी

यह स्थिति भी कोई नई नहीं है. यह तो आज से डेढ़ सौ बरस पहले भी मौजूद थी जब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने एक लेख में एक-दो नहीं, 12 प्रकार की हिंदियां गिनाईं थीं, जैसे सरकारी हिंदी, अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी और रेलवे की हिंदी.

वली दकनी जैसे शायरों की अलबेली दकनी हिंदी भी सौ से अधिक बरसों से फलफूल रही है :

तेरी भंवां कूं देख के कैते हैं आशिकां, है शाह जिसके नाम चढी है कमान आज.

यहां यह देख लेना भी सही होगा कि वह हिंदी, जिसके बाबत भारतेंदु ने घोषणा की थीः ‘हिंदी नये चाल में ढली,’ कैसे बनी?

हुआ यह, कि जब आगरा के फोर्ट विलियम कॉलेज के भाखा मुंशियों ने देवनागरी लिपि के मार्फत मानकीकृत हिंदी को लिखित रूप में हिंदी पट्टीवालों के लिये पेश करने की राह खोल दी, तो उसके बाद 1860 के अासपास भारतेंदु, बालमुकुंद गुप्त या प्रतापनारायण मिश्र जैसे शुरुआती लेखकों ने लोचदार हिंदी की तलाश करते हुए अपने लिये उस हिंदी को छांटा जिसको व्याकरणाचार्य या कि काशी के संस्कृत विद्वान् नहीं, आम जनता बोलती थी. और जिसके कलेवर में उस विशाल जनपद की तमाम पुरबिया, पछाहीं बोलियों के अलावा अंग्रेज बहादुर की शासकीय उर्दू फारसी और अंग्रेज़ी के लफ्ज़ भी मौजूद थे.

कई भाषाओं-बोलियों को समेटे हुए है हिंदी

यही हिंदी 19वीं सदी के अंत तक (1854 के एज्युकेशनल डिस्पैच की सलाह के आधार पर ) सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में किताबों के लिये इस्तेमाल होने लगी और प्रकाशन व्यवसाय तथा पाठ्य पुस्तक लेखकों की अच्छी कमाई का गारंटीशुदा जरिया बनी. आज अंग्रेज़ी मुक्त हिंदी की पेशकश करने वाले जान लें कि भारतेंदु के जमाने की हिंदी में भी फारसी के चचा, चिक, चहक जैसे लफ्ज़ थे तो पुर्तगाली के नीलाम, मेज, अरबी के सुराही, नजर, प्रशासन से जुड़े कई अंग्रेजी के देशज रूप लालटेन, अस्पताल, कलट्टर, कमिश्नर और मलेशिया के गोदाम सरीखे शब्द भी.

यही सिद्धांत अखबारी पत्रकारिता के तमाम रूपों पर भी लागू होता है जो बकौल राजेंद्र माथुर रेडीमेड नहीं उपजते, समाज की ठोंकापीटी से ही अपना स्वरूप पाते और विकास करते हैं. राजनीति, अर्थनीति, खेल, स्वास्थ्य या कि सामाजिक विषय, इन सब पर बढ़िया धारदार रिपोर्टिंग और उम्दा संपादकीय लेखन के लिये वह हाजिर जवाबी, शाब्दिक गुगलियाँ और चौके छक्के जरूरी हैं जो अकादमिक पंडिताऊपने और संस्कृत से दबी हिंदी से नहीं, आमफहम मिलीजुली भाषा से ही उपज सकते हैं.

सौ बात की एक बात, समाज या संस्था के नाते अगर हिंदी भाषियों को उत्कृष्टता हासिल करनी हो तो उनके लिये हिंदी के हीनता, विपन्नता और जलनखोरी के संस्कारों से खुद हिंदी जगत को मुक्त होना पड़ेगा.

हिंदी का बेहतरीन साहित्य पढ़ कर कुढ़ना और प्रशंसाकृपण बनना, किसी अच्छे हिंदी लेखन के पुरस्कृत होने पर चयनप्रणाली और नामांकन प्रक्रिया में कीड़े निकालना, लेखक की बाबत गुमनाम खबरें छपवाना, हिंदी लेखक की रॉयल्टी मारना, और जिसे अच्छी रॉयल्टी मिल रही हो, उस लेखक को बिना हिचक व्यवस्था का दलाल कहना और घटिया लेखन के साथ स्तरहीन प्रकाशनों को ही हिंदी का भाग्य बताना यह कुकर्म हिंदीवाले ही करते आये हैं, बाहरिया लोग नहीं. इसके बाद फिर हम यह उम्मीद किस तरह कर सकते हैं कि पाठक ही नहीं,निवेशक, प्रकाशक या अनुवादक हमको गंभीरता से लेंगे ?

हिंदी कोई कल्पवृक्ष या कामधेनु नहीं जो हमको मुंहमांगी दौलत और यश देगी. हम ही उसे लेकर गलत समीकरण बनाते रहे हैं. हिंदी में लिखना, अपनी भाषा में आत्माभिव्यक्ति की इकलौती राह है, उसे ‘हिंदी की सेवा’ बताना कैसा? शेक्सपीयर ने क्या इसलिये लिखा कि वे अंग्रेजी की सेवा करना चाहते थे? इसी तरह हर हिंदी लेखक से देश या युवाओं के लिये कोई संदेश देने की मांग भी बेवकूफी है. लेखक को जो भी कहना है वह उसके लेखन में अभिव्यक्त है. उसे वहां खोजने की बजाय लेखकों को जनप्रचार में जुटे भभूती चुटकी देने वाले बाबा या जुमलेबाज राजनेता का दर्जा किस लिए देना? 

हिंदी आज हमारे बुद्धिजीवियों को मिला पूर्वजों के सुकर्मों से उपजा एक वरदान है जिसे खुद उन्होंने बहुत मेहनत से संवर्धित नहीं किया, न करना चाहते हैं. इसलिये वे हाय हिंदी भ्रष्ट हुई अंग्रेजी की छूत से ग्रस्त हुई का शोर मचाते रहते हैं. अरे हिंदी चौराहे पर आएगी तो सड़कछाप बनेगी ही. उसे न हम सत्ता का यंत्र बनने से दूर रख सकते हैं, न ही वर्ग या जाति विशेष तक सीमित.

चुने हुए बुद्धिजीवियों का नेतृत्व आज हर कहीं खत्म हो रहा है तो हिंदी ही अपवाद क्यों रहे? सोशल मीडिया पर भले वह हमको जिद्दी उद्दंड दुराग्रही लगती हो, उसकी युवा ऊर्जा, प्रयोगधर्मिता और नकली विनम्रता का अस्वीकार उसे लोकतांत्रिक बनाता है.

इस भाषा की बढ़ती व्यापकता आज हिंदी पट्टी को साहित्य, फिल्म, सोशल मीडिया, व्यापार, बाजार हर कहीं चयन की जो आजादी दे रही है, आइए उसका, नित्य नूतन होती हिंदी का समारोह मनाएं. वह अपने लेखकीय और लोकतांत्रिक वजूद के तमाम स्तरों से हमारा परिचय करा रही है. हम उससे मुंह मोड़कर कैसे शुद्धतावादी आग्रहों की वह इकलखोरी राह पकड़ लें, जिसके दर्शन हमको हिंदी लेखकों और पत्रकारों के लिये प्रतिबंधित भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन में हुए ?

(मृणाल पांडेय सीनियर जर्नलिस्‍ट और साहित्‍यकार हैं. ये प्रसार भारती की चेयरपर्सन रह चुकी हैं. इन्‍होंने हिंदी भाषा के कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया है.)

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Published: 24 Sep 2016,11:32 PM IST

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