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पटना कॉलेज के ठीक सामने की एक गली में खाने के कई ढाबे हुआ करते थे. गर्मी के महीने में लगातार कई क्लास अटेंड करने के बाद एक ढाबे में मैं खाने पहुंच गया. शुद्ध शाकाहारी खाना. लेकिन खाना खत्म करने के साथ ही मुझे पता चल गया कि मैं गलत जगह खाना खा आया. गलत जगह इसलिए कि वहां काम करने वाले मेरे धर्म के नहीं थे.
इसके बाद तो मेरे अंदर एक चेन रिएक्शन शुरू हो गया. भागा-भागा मैं पटना कॉलेज के पीछे गंगा नदी के पास चला गया. उल्टी की और गंगा में डुबकी लगाकर अपना पाप धोया.
उससे पहले दूसरी दुनिया से मेरा एक ही वास्ता था- उस समय की सोवियत यूनियन से निकलने वाली रादुगा प्रकाशन की सस्ती लेकिन अच्छी डिजायन वाली किताबें जिसमें मैक्सिम गोर्की और फ्योदोर दोस्तोएव्स्की की किताबें भी थीं. लेकिन वो तो किताबें थी- बेजान और बेअसर. मेरे गहरे संस्कार को हिलाने की उनमें क्षमता कहां थी.
इस भारी भरकम संस्कार के बोझ को लेकर मैं ठीक 25 साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचा. शुरुआती कुछ हफ्ते तो झकझोरने वाले थे. लड़के-लड़कियां बेहिचक बातें करती दिखीं, प्रोफेसर और छात्रों के बीच हंसी-ठिठोली. लड़कियों के अजीबो-गरीब पोशाक, रात की पार्टी और शराब-सिगरेट की खुलेआम बातें.
ये थी दिल्ली विश्वविद्यालय की शुरुआती झलकियां. मैं पूरी तरह से हिल गया था. शायद डीयू पूरी तरह से हिलाकर ही मुझे अपने अपनाना चाहता था. उसके बाद के चार साल ने मेरी सोच ही बदल दी. डीयू ने मुझे सिखाया कि वैचारिक मतभेदों को कैसे जिया जाता है.
मैंने पाया कि पार्टी की बात करने वाले भी उतने ही कूल हैं जितने बाकी सभी. कि बंगाली और मद्रासी भी बिल्कुल हमारे जैसे हैं. कि धर्म और संस्कार हमें जोड़ता है, इसका इस्तेमाल दिलों को तोड़ने के लिए तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए. कि देशभक्ति और देशद्रोही जैसी अवधारणाओं का मतलब समय और परिपेक्ष्य के साथ बदलता रहता है. कि आखिरी सच जैसा कुछ नहीं होता है और सवाल उठाना कुछ नया जानने के लिए एकदम जरूरी होता है. डीयू ने इन सब बातों को हमें आत्मसात करना सिखाया.
यह सब बड़ी बाते लगती हैं जो किताबों में लिखी जाती रहीं हैं. लेकिन डीयू में हमने इसे हर पल जिया. एक बिहारी को लाख खामियों के बावजूद बिना सवाल पुछे सबने अपनाया. यह बड़ी बात थी.
मेरे संस्कार ने कहा कि अगर वो मुझे इतनी सहजता से अपना सकते हैं और वो भी बिना किसी शर्त के, तो फिर उन्हें अपना कहने में झिझक क्यों?
लेफ्ट, राइट- ये सारी विचारधाराएं उस समय भी थी लेकिन किसी पर थोपने की जिद नहीं थी. एवीबीपी, एनएसयूआई, एएफआई और आईसा उस जमाने में भी था. लेकिन किसी को डीयू की आत्मा बदलने की इजाजत नहीं थी. डीयू एक ऐसा चौराहा था जहां सारी फिजाएं मिलती थी. और उस विविधता का सभी आनंद लेते थे.
कुछ दिनों की घटना ने डीयू की आत्मा पर चोट पहुंचाई है. लेकिन क्या यह विश्वविद्यालय अपनी आत्मा फिर से पा लेगा. मुझे पूरा भरोसा है कि ऐसा ही होगा. गुरमेहर कौर जैसी आवाजें सुनने के बाद यह भरोसा और भी बढ़ जाता है.
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Published: 01 Mar 2017,07:34 PM IST